शनिवार, 26 सितंबर 2015

नेहरू जी की हिंदुस्तानी और दिनकर की संस्कृति!

नेहरू जी की हिंदुस्तानी और दिनकर की संस्कृति!
कोई बहुत अच्छा कवि हो तो जरूरी नहीं कि वह बहुत अच्छा चिंतक भी होगा किसी ने बहुत बिकाऊ उपन्यास या कहानियां लिखी हों तो यह अकाट्य तो नहीं कि सामाजिक विषयों पर उसकी सोच युगान्तकारी ही होगी। कोई व्यक्ति साहित्य सृजन करता है तो यकीनन नहीं कहा जा सकता कि वह आदमी श्रेष्ठकर होगा ही। अब जैसे मुझे रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं पढ़कर नहीं लगा कि यह कोई युगांतरकारी या परिवर्तनकामी कवि है। क्योंकि जो व्यक्ति अतीत के पुनरुत्थान की बात करता हो वह महान कब से होने लगा। मुझे सदैव वे ओज के एक मंचखैंचू कवि ही लगे। मगर उनकी 'संस्कृति के चार अध्याय' उनके बारे में इस धारणा को तोड़ती है। हालांकि संस्कृति के चार अध्याय में भी वे भारतीय अतीत को महान बताते चले आए हैं और भारत की सामासिक संस्कृति के कहीं-कहीं हामी अवश्य नजर आते हैं पर पूरी पुस्तक पढ़कर यह नहीं लगता कि इसमें कुछ भी वे मौलिक बात कर रहे हैं। लेकिन इस पुस्तक का जो अभिनव योगदान है वह है प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की वह प्रस्तावना जिसे मैं अक्सर पढ़ता हूं और हर बार उसमें कुछ नयापन पाता हूं। इस प्रस्तावना में नेहरू जी लिखते हैं-
“मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक व दिलचस्प है। यह एक ऐसा विषय है जिससे, अक्सर, मेरा अपना मन भी ओतप्रोत होता रहा है और मैने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप, आप-से-आप पड़ गयी है। अक्सर मैं अपने आप से सवाल करता हूं, भारत है क्या? उसका तत्त्व या सार क्या है? वे शक्तियाँ कौन-सी हैं जिनसे भारत का निर्माण हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करने वाली प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ उनका क्या संबंध है? यह विषय अत्यंत विशाल है, और उसके दायरे में भारत और भारत के बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते हैं। और मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह इस संपूर्ण विश्व के साथ अकेला ही न्याय कर सके। फिर भी, इसके कुछ खास पहलुओं को लेकर उन्हें समझाने की कोशिश की जा सकती है। कम-से-कम, यह तो संभव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि सारे संसार को अपने सामने न रखने पर भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा।“
“भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो फिर हम भारत को समझने में भी असमर्थ रहेंगे। और यदि भारत को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सबके सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की एसेी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो।“
“मेरा विचार है कि दिनकर की पुस्तक इन बातों के समझने में, एक हद तक, सहायक होगी। इसलिए, मैं इसकी सराहना करता हूं और आशा करता हूं कि इसो पढ़कर अनेक लोग लाभान्वित होंगे।“
जवाहर लाल नेहरू
नयी दिल्ली
30 सितंबर 1955 ई.
यह पूरी प्रस्तावना नहीं है इसकी कुछ लाइनें भर हैं। आप इसे पढ़ें। पंडित जी ने इसे स्वयं हिंदुस्तानी व नागरी लिपि में लिखा है। उनकी भाषा बड़ी मोहक व बांधे रखने वाली थी तथा उनकी लिखावट गांधी जी की तुलना में ज्यादा साफ और बहिर्मुखी थी। गांधी जी जहां कई दफे अपनी लेखनी से झुझलाहट पैदा करते थे वहीं नेहरू जी की हिंदुस्तानी हिंदुस्तान के दिल के अधिक करीब थी। यह पूरी प्रस्तावना पढऩे के लिए दिनकर की पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय जरूर पढ़ें।

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