बुधवार, 9 सितंबर 2015

रिपोर्ट पढऩे को हमारा मुख्य स्रोत जीवित ही नहीं रहा

रिपोर्ट पढऩे को हमारा मुख्य स्रोत जीवित ही नहीं रहा
शंभूनाथ शुक्ल
उतरते बैशाख की उस रात गर्मी खूब थी मगर हिंचलाल हमें अपने घर के अंदर ही बिठाए बातचीत कर रहा था ऊपर से चूल्हे का धुआँ और तपन परेशान कर रही थी। मैने कहा कि कामरेड हम बाहर बैठकर बातें करें तो बेहतर रहे। हिंचलाल बोला कि हम बाहर बैठ तो सकते हैं पर आप शायद नहीं समझ रहे हैं कि भीतर की गर्मी बाहर की हवा से सुरक्षित है। बाहर कब कोई छिपकर हम पर वार कर दे पता नहीं। वैसे हमारे दो आदमी बाहर डटे हैं मगर कामरेड आप नहीं जानते कि हम यहां कितनी खतरनाक स्थितियों में रह रहे हैं। हिंचलाल ने बताया कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हैं और दलित समुदाय से हैं लेकिन मौज-मस्ती भरी नौकरी करने की बजाय उन्होंने अपने भाइयों के लिए लडऩा बेहतर समझा। यहां पत्थरों की तुड़ाई होती है और साथ में धान की खेती। एक जमाने में यह पूरा इलाका राजा मांडा और डैया रजवाड़ों की रियासत में था। इन रियासतों के राजाओं ने अपनी जमींदारी जाने पर इस इलाके को फर्जी नामों के पटटे पर चढ़ाकर सारी जमीन बचा ली और जो उनके बटैया अथवा जोतदार किसान थे उनकी जमीन छीन ली। ट्रस्ट बना कर वही रजवाड़े फिर से जमीन पर काबिज हैं। यूं तो सारी जमीन वीपी सिंह के पास है लेकिन वे स्वयं तो राजनीति के अखाड़े पर डटे हैं और ट्रस्ट का कामकाज उनके भाई लोग देखते हैं। यहां वे किसान अब भूमिहीन मजदूर हैं और इन्हीं ट्रस्टों में काम करते हैं। कई मजदूरों को तो ट्रस्ट में बहाल किया हुआ है लेकिन ट्रस्ट के कामकाज में उनकी कोई दखल नहीं है। वे इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते और अपने यहां ही काम करने को मजबूर करते हैं। इंकार करने पर मारपीट करते हैं और इसी के चलते तीन किसानों को मार दिया गया।
ये वे दिन थे जब राजनीति करवट ले रही थी। जनता पार्टी का प्रयोग बुरी तरह फ्लाप रहा था और यूपी की राजनीति में चरण सिंह अब हाशिये पर थे मगर उनका विकल्प उभर नहीं पा रहा था। कांग्रेस भी यहां पर फिर से पैर जमाने की कोशिश कर रही थी। मगर अब कांग्रेस को लग रहा था कि उसे अपने जातीय समीकरण को बदलना पड़ेगा। कांग्रेस की राजनीति में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेलने की कोशिश चल रही थी। संजय गांधी राजपूतों के बीच से नेतृत्व उभारने के लिए प्रयासरत थे। मगर राजपूतों के बीच से जो सबसे ताकतवर नाम था वह वीर बहादुर सिंह का था। वे खाँटी राजनेता थे और उनकी जड़ें जमीन तक थीं। लेकिन संजय की इच्छा थी कि लखनऊ में वही नेता बैठे जो उनका खास बनकर रहे। इसलिए वीपी सिंह का नाम तलाशा गया। वीपी सिंह इलाहाबाद की मांडा रियासत के वारिस थे और पुणे के फर्ग्युसन कालेज के ग्रेजुएट थे। अंग्रेजी और अवधी में प्रवीण वीपी सिंह केंद्र में एक बार वाणिज्य उपमंत्री भी रह चुके थे। चुप्पा थे इसलिए संजय की पसंद भी थे। मगर उनके भाई लोग रीवा से सटे कुरांव के इलाके में जो कारनामे कर रहे थे इसलिए वीपी सिंह अपने भाइयों से दुखी भी रहते थे। पर इस मोर्चे पर चुप रह जाना ही उन्हें पसं द था। तभी यह घटना घट गई। वीपी सिंह ने अपने संपर्कों का लाभ उठाकर इसे अखबारों में नहीं आने दिया। इसके बावजूद हम वहां पहुंच गए थे। इसे लेकर सुगबुगाहट तो थी। इसलिए हिंचलाल ने हमें बाहर नहीं निकलने दिया।
हिंचलाल ने हमें वह सारी जानकारी दी जिसकी तलाश में हम वहां गए थे। हम उस युवा और उत्साही दलित नौजवान के आतिथ्य से अभिभूत थे। उस व्यक्ति ने दूर से गए अपने इन अनजान मेहमानों को अपने घर में सुरक्षा दी। और जिसके यहां खुद के भोजन के लाले हों वहां हमें भी अपने साथ भोजन कराया। मुझे याद है कि हिंचलाल के यहां कुल तीन थालियां थीं और वह भी अल्यूमीनियम की। उसकी पत्नी ने दाल जिस बटलोई में उबाली थी उसमें हाथ को ही चमचा बनाकर हमें परोसी क्योंकि उनके पास अलग से कोई चमचा नहीं था। हाथ से पकाई गई बेझर एक किस्म का मोटा आनाज की रोटियां परोसीं और बिना छिले प्याज रख दिया। उनके यहां चाकू नहीं था। हिंचलाल ने वह प्याज हमारी थालियों के किनारों से काटा तब हम उसे खा पाए। सारी रात वे बताते रहे और हम सुनते रहे। एक तरह से जमीनी स्तर पर जाकर कोई रिपोर्ट तैयार करने का यह मेरा पहला अनुभव था।

हिंचलाल अगले रोज सुबह हमें बस पकड़वाने के लिए कुरांव छोडऩे आए तो वहां के बुजुर्ग पत्रकार चंद्रमा प्रसाद त्रिपाठी के घर ले गए। चंद्रमा प्रसाद जी पेशे से पत्रकार और स्वभाव से क्रांतिकारी थे। उन्होंने हमें राजा मांडा चैरिटेबल ट्रस्ट और राजा डैया चैरिटेबल ट्रस्ट की और तमाम जानकारियां दीं तथा सबूत भी। बाद में हम थाने गए जहां के थानेदार ने किसान सभा के तीन किसानों के मरने को सामान्य दुर्घटना करार दिया था और पूरे उस कस्बे में कोई हमें यह बताने वाला नहीं मिला कि वे तीन किसान क्यों मारे गए। हम वापस इलाहाबाद आए और वहां से ट्रेन पकड़कर कानपुर। महीने भर बाद मेरी विस्तृत रिपोर्ट तत्कालीन बंबई से छपने वाले साप्ताहिक करंट में छपी पर वह रिपोर्ट पढऩे के लिए हिंचलाल विद्यार्थी जीवित नहीं रहे थे। पता चला कि उन्हें कुछ दादुओं ने सोते वक्त मार दिया था।

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं इस तरह की खोजी पत्रकारिता का सम्मान करता हूँ व् इस पेशे से जुड़े लोगों का सम्मान करता हूँ ,जो लोग अपनी नौकरी के साथ खुद में इंसान को जिन्दा रख पाते है ,अन्यथा की स्थिति में भी उनकी रोजी रोटी व् पारवारिक जिम्मेवारियों के चलते उनका न्यूनतम सम्मान तो बनता ही है आखिर हमारे पत्रकार भाई समाज के सजग प्रहरी जो है !

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  2. मैं इस तरह की खोजी पत्रकारिता का सम्मान करता हूँ व् इस पेशे से जुड़े लोगों का सम्मान करता हूँ ,जो लोग अपनी नौकरी के साथ खुद में इंसान को जिन्दा रख पाते है ,अन्यथा की स्थिति में भी उनकी रोजी रोटी व् पारवारिक जिम्मेवारियों के चलते उनका न्यूनतम सम्मान तो बनता ही है आखिर हमारे पत्रकार भाई समाज के सजग प्रहरी जो है !

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