गुरुवार, 16 मई 2013

फंतासी भी सपनों में



शंभूनाथ शुक्ल

आपत्तिकाले मर्यादानास्ति

विचित्र सपना था वह एकदम फंतासी जैसा। याद करते ही मैं सिहर उठता हूं। सपनों को हमारे अवचेतन मन की कल्पना बताने वाले भी उस सपने की व्याख्या नहीं कर सकते। हालांकि मेरा भी मानना है कि वास्तविक जीवन में जो हम नहीं कर पाते, नहीं बोल पाते वही सारा कुछ हमारे अंदर घुटता रहता है और सपने में साकार होकर हमारे सामने आता है। ऐसा ही एक सपना मैने देखा और इस विचित्र सपने में मैं ऐसी एक घटना का नायक बन गया जिसे हकीकत में बदलने के लिए इतिहास में बड़ी-बड़ी क्रांतियां हुईं और जिसे दबाने के लिए शासकों ने अनगिनत लोगों का खून बहाया है। लेकिन सपने में यह घटना बड़े ही अहिंसात्मक रूप से घट गई पर उसका अंत भयानक खून खराबे में हुआ। शायद दिमाग में चलते द्वंदों के तहत ऐसा हुआ होगा। सपना जब टूटा तो मैं पसीने से सराबोर था। मेरे गले से घर-घर की आवाज निकल रही थी। मेरे दोनों हाथ छाती पर रखे थे। मैने अनुमान लगाया कि छाती पर हाथ रखे होने के कारण ही मुंह से ऐसी आवाज निकल रही होगी। मैने बहुत देर तक  सपने को याद करने की कोशिश की तब कहीं कडिय़ां जोड़कर मैं वह सपना याद कर पाया। वाकई वह सपना कितना रोमैंटिक था! लेकिन यह सिर्फ एक सपना था जो सपने की तरह ही ढह गया।
पिछले दिनों एक जरूरी काम से मुझे फैजाबाद जाना पड़ा। काम तो वहां पहुंचने के कुछ ही समय बाद पूरा हो गया पर मेरी वापसी की ट्रेन टिकट अगले रोज शाम की थी। करीब-करीब पूरे दो दिन मेरे पास थे और फैजाबाद में दो दिन बिताना बड़ा ही बोरिंग था। छोटा सा शहर ऊपर से वहां के होटल भी माशाअल्लाह बस दड़बे जैसे। फैजाबाद चूंकि पुरानी कमिश्नरी है इसलिए यहां का सर्किट हाउस बहुत सुंदर बना हुआ है। लेकिन अयोध्या फैसले के आसन्न संकट के कारण राज्य के गृह विभाग का पूरा अमला फैजाबाद में डटा हुआ था इसलिए सर्किट हाउस में सारे सूट भरे हुए थे। अब दो ही रास्ते थे या तो मैं सड़क मार्ग से लखनऊ जाकर वहां से दिल्ली के लिए कोई अन्य ट्रेन पकड़ूं या पास के कस्बे अयोध्या में दो दिन गुजारूं। मुझे अयोध्या जाना ही रुचिकर लगा। मेरी धर्म-कर्म में कोई आस्था नहीं है, ईश्वर मुझे अज्ञान का पर्यायलगता है। पर अयोध्या जाने, घूमने और उसे समझने की मेरी प्रबल इच्छा रही है। मेरी निजी तौर पर देशों की सभ्यता, संस्कृति और उनके उत्सवों को जानने में बड़ी दिलचस्पी रहती है। ऐसे शहर जहां लाखों की संख्या में लोग बिना किसी लाभ के जुटते हों वहां के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक है। फिर अयोध्या तो देश की सबसे प्राचीन पुरियों में से एक  है। ईसा पूर्व दो सहस्त्राब्दियों तक इसका इतिहास मिलता है। वैदिक, जैन और बौद्घ आदि सभी पंथों की पुरानी किताबों में इसका वर्णन है। अयोध्या जिसे अवधपुरी और साकेत के नाम से भी जाना जाता है, में देश की नागर सभ्यता सबसे पहले फैली। यही वह शहर है जहां से विभिन्न गणों या कबीलों के टॉटमों के बीच एकता की पहल शुरू हुई। देखा जाए तो खुद फैजाबाद शहर भी अयोध्या का विस्तार ही है। १८वीं सदी की शुरुआत में नवाब सफदरजंग ने जब फैजाबाद को नए अवध सुल्तानेट की राजधानी बनाई तो उसके दिमाग में प्राचीन नगर अयोध्या के समीप बसने की इच्छा रही थी या नहीं, यह तो मैं कह सकता लेकिन इतना जरूर तय है कि अवध सुल्तानेट का अयोध्या से पक्का जुड़ाव है। अवध गंगा-जमना के मैदान का सबसे उपजाऊ भूभाग है। इस पूरे इलाके में बंजर जमीन कहीं भी नहीं मिलती। गर्मी हो या सर्दी अथवा बरसात यहां जमीन का चप्पा-चप्पा हरा-भरा रहता है। परंपरागत तीनों फसलें, गन्ना, दलहन व तिलहन की खेती यहां खूब होती है। दस फीट की गहराई पर पानी का मिल जाना यहां बहुत आम है। अनगिनत छोटी बड़ी नदियों ने इस पूरे क्षेत्र को शस्य श्यामला बना दिया है। लेकिन हिमालय की तलहटी के समीप आबाद इस अवध में जमीन जितनी ही उपजाऊ है वहां के बाशिंदे उतने ही गरीब और लाचार। अवध के इस इलाके के गांवों में लंबे चौड़े और खूब स्वस्थ लोग नहीं मिलते। यहां मर्दों की औसत लंबाई साढ़े पांच फुट तथा औरतों की पौने पांच फुट से ज्यादा नहीं है। 
मुझे पहले ही बता दिया गया था कि अयोध्या में होटल नहीं हैं अलबत्ता धर्मशालाएं हर गली व नुक्कड़ में हैं। इसके अलावा विभिन्न मठों के आश्रम और धर्मादा संस्थाओं के भवन भी खूब हैं। यहां की धर्मशालाओं में एसी रूम भी उपलब्ध हैं तथा आश्रम व भवनों के सूट तो किसी भी स्टार होटल के लक्जरी कमरों को मात देते हैं। कानपुर, वाराणसी, गोरखपुर आदि शहरों के व्यवसायियों द्वारा बनवाए गए ये भवन सारी आधुनिक सुख सुविधाओं से लैस हैं। हर सूट में दो बेडरूम, सुसज्जित ड्राइंगरूम और किचेन भी है। एक-एक फुट तक धंस जाने वाले लेदर के सोफे, आला दरजे के बेड तथा कांच की टॉप वाली उम्दा डाइनिंग टेबल, दीवालों पर लगे एलसीडी टीवी, इंटरकाम तथा हर कमरे में एसी फिट हैं। दरअसल अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद की दखल के बाद व्यवसायियों ने यहां खूब इनवेस्ट किया लेकिन बेचारे पैसा लगाकर फंस गए क्योंकि रिटर्न कुछ नहीं मिला। अब यही व्यवसायी हर साल सावन के महीने में सपरिवार यहां आकर रहते हैं। इसीलिए इन भवनों में घर जैसा माहौल जरूर मिलने लगा है। ऐसे ही एक भवन में मेरा इंतजाम हो गया। जरूरत मुझे बस एक कमरे की थी पर यहां तो जो सूट मिला उसमें तीन कमरे अटैच्ड थे। मैने बाकी के कमरे खुलवाए तक नहीं सिर्फ एक बेडरूम में कुछ देर आराम किया और फिर अयोध्या घूमने का प्रोग्राम बनाया।
अयोध्या बहुत ही छोटा कस्बा है मुश्किल से दो किमी की लंबाई चौड़ाई में बसा। मंदिरों, मठों और धर्मशालाओं के अतिरिक्त यहां कुछ है भी नहीं। सकरी और ऊँची-नीची गलियां और दोनों तरफ बने मकान जो लखौरी ईटों से बने हुए हैं। मंदिर, मठ और मकान कोई भी इमारत मुझे वहां सौ-सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं दिखी। मंदिरों और मठों का अगवाड़ा तो खूब रंगा पुता दिखा लेकिन पिछवाड़े की दीवालों पर बुरी तरह काई लगी हुई थी। गलियों में कतार से मिठाई की दूकानें जरूर दिखती हैं जिनमें बस बेसन के लड्डू, जलेबी, समोसे और चाय ही मिलती है। इक्का-दुक्का दूकानों में अंकल चिप्स, बिस्किट व नमकीन के पैकेट भी बिकते दिखे। पूरे कस्बे में सिर्फ एक दूकान पर मेडिकल स्टोर लिखा था जहां आयुर्वेद, एलोपैथी और होम्योपैथी की दवाएं एक साथ मिलती थीं। अयोध्या में पैदल चलना ही बेहतर रहता है क्योंकि रिक्शे यहां हैं नहीं और गाड़ी को इन गलियों से गुजारते हुए ले जाना किसी नट के करतब जैसा लगता है। हालांकि अयोध्या में भीड़ कहीं भी नहीं दिखी। ज्यादातर मंदिरों में सन्नाटा था। सिवाय पुलिस और अर्धसैनिक बलों की आवाजाही के और कहीं कोई चहल पहल नहीं। मंदिरों में पुजारी मशीनी तरीके से प्रसाद को मूर्तियों के ऊपर फेंकते रहते हैं। उनकी उदासीन मुद्रा देखकर लगता ही नहीं कि यहां किसी को मंदिरों को बनाए रखने में दिलचस्पी है। मठों के बाहर बैरागी साधुओं के जत्थे माथे पर वैष्णवी तिलक लगाए सुमिरिनी फिराते रहते हैं। दुबले पतले इन बैरागियों को देखकर लगता है कि जैसे ये घर से भगा दिए गए हों और बाकी की उमर काटने के लिए इन्होंने अयोध्या की पनाह ली हुई है। हर आदमी का कद छोटा और पीठ पर कूबड़ निकला हुआ। मुझे इन कुबड़े पुजारियों, बैरागी साधुओं और लोकल लोगों को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। कई लोगों से इसकी वजह जानने की कोशिश भी की लेकिन कोई भी ठीक से जवाब नहीं दे पाया। कुछ ने बताया कि यहां का पानी खराब है तो कुछ के मुताबिक अयोध्या के लोगों को सीताजी ने श्राप दिया था कि जैसे यहां के लोगों ने उन्हें कष्ट दिया है वैसे ही यहां के लोग भी कभी खुश नहीं रह पाएंगे। लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि यहां के लोगों की कम लंबाई और कूबड़े होने की वजह यहां के पानी का खारा होना तथा यहां के खानपान में खट्टी चीजों का प्राधान्य है। आम और इमली का सेवन यहां के लोग सुबह शाम के भोजन में जरूर करते हैं। इमली आयुर्वेद में त्वचा और हड्डियों के लिए बहुत नुकसानदेह बताई गई है।
आजादी के पहले तक अयोध्या कस्बा एक छोटे रजवाड़े के अधीन रहा है। १८५७ में जब अवध की तमाम देसी रियासतें बेगत हजरतमहल की अगुआई में अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो गई थीं तब यहां के राजा दर्शन ङ्क्षसंह ने अंग्रेजों की मदद की थी। दर्शन सिंह की एक आँख खराब थी। जनता द्वारा बनाए गए आल्हाओं और लोकगीतों में दर्शन काना को १८५७ के विद्रेह का खलनायक बताया गया है। विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेजों ने अपने मददगारों को तमाम सुविधाएं और जमींदारियां बख्शीं। अयोध्या रियासत को भी अंग्रेजों ने खूब फलने फूलने दिया और दर्शन सिंह के पोते राज प्रताप सिंह को तो महाराजाधिराज का रुतबा भी दिया। पर इतना सब कुछ होते हुए भी यहां के राजपरिवार से यहां की जनता के बीच मधुर रिश्ता कभी भी नहीं बन पाया। लोग अयोध्या छोड़-छोड़ कर फैजाबाद, टांडा या लखनऊ जाकर बस गए। इस शहर के वीरान होने की एक वजह यह भी है। करीब डेढ़ सौ साल पहले राज दर्शन ङ्क्षसह ने ८ एकड़ में अपनी एक हवेली बनवाई जिसका आधा हिस्सा आजादी के बाद से बंद कर दिया गया है। पर यहां के लोगों का इस हवेली से कोई रिश्ता नहीं है न ही यहां के राजा ने कभी यहां के लोगों की सुविधा के लिए कोई सुधार कार्यक्रम चलाए अथवा स्कूल कालेज खुलवाए। अयोध्या शहर के बीच में बनी इस हवेली के चारदीवारी का इस्तेमाल लोग इश्तेहार लगाने अथवा मल-मूत्र विसर्जन के लिए ही करते हैं। किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में यहां के राज परिवार की कोई भागीदारी नहीं दीखती। हवेली, जिसे राज परिवार राज सदन कहता है में अब मौजूदा वारिस कोई मिश्र परिवार रहता है।
अयोध्या के उस विवादित परिसर में भी मैं गया जहां छह दिसंबर १९९२ को विश्व हिंदू परिषद के कारसेवकों ने वहां बनी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था। कहा जाता है कि १५२८ में इस मस्जिद को बाबर के सेनापति मीर बाकी ने वहां बने राम जन्मस्थान मंदिर को गिरवाकर बनवाया था। पर बाबरी मस्जिद के साथ बाबर का नाम क्यों जोड़ा गया, इसके सबूत नहीं मिलते। १५२६ में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के तत्कालीन शासक इब्राहिम लोदी  को हराया था। इसके बाद वह आगरा की तरफ चला गया। चूंकि आगरा के साथ-साथ अवध भी सीधे इब्राहिम लोदी के सीधे नियंत्रण में था इसलिए बाबर नावों के जरिए यमुना के रास्ते  इटावा, प्रयाग होते हुए बक्सर तक गया। बक्सर के बाद वह गंगा के रास्ते लौटा तथा सरयू की धार के विपरीत वह अयोध्या आया। बाबरनामा में अयोध्या का जिक्र तो है लेकिन वहां मस्जिद बनवाने या वहां रुकने का कोई उल्लेख नहीं है। हिंदुस्तान मेें उसने आखिरी लड़ाई कन्नौज में अफगानों से लड़ी थी। हालांकि बाबरनामा में उसने यह जरूर लिखा है कि पानीपत में इब्राहिम लोदी को हराकर उसने दारुल हरब को दारुल इस्लाम बना दिया। बाबर ने हिंदुस्तानियों को काला, बदमिजाज, कमजहीन और आलसी बताया है। उसने लिखा है कि उस वक्त हिंदुस्तान में पांच मुसलमान और दो हिंदू शासक थे। मुसलमानों में इब्राहिम लोदी के अलावा बंगाल, गुजरात, मालवा और दक्कन में मुसलमानों के शासन का जिक्र है। हिंदू शासक थे चित्तौड़ और बीजापुर में। हिंदुओं का दावा रहा है कि अयोध्या की मस्जिद जिसे १९४० तक मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहा जाता था, के ठीक बीच वाले गुंबद के नीचे भगवान राम का जन्म हुआ था। मस्जिद यहां बने राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। मजे की बात कि किसी भी ङ्क्षहदू धर्मगंथ में ऐसे किसी मंदिर का जिक्र नहीं है। वाल्मीकि रामायण तक तो खैर उत्तर भारत में किसी भी तरह के मंदिर बने होने का उल्लेख ही हिंदू ग्रंथों में नहीं मिलता। तुलसी ने भी अयोध्या में ऐसे किसी मंदिर के होने का जिक्रनहीं किया है।
मस्जिद-ए-जन्मस्थान की खासियत यह थी कि इस मस्जिद में इस्लामी स्थापत्य की बजाय देसी स्थापत्य ज्यादा दिखाई देता था। हिंदुस्तान में तब तक  ऐसी मस्जिदों का निर्माण होने लगा था जिनका स्थापत्य एकदम हिंदुस्तानी था। उनका गुंबद शिवाले की शक्ल का होता था, इनके चारों तरफ एक ऊँची दीवाल होती थी तथा उसके अंदर आंगन। आंगन में ही कुआं होता था और फिर मस्जिद के गुंबद। ऐसी मस्जिदें जौनपुर के शर्की साम्राज्य ने बनवाई थीं दूसरी तरह की वे मस्जिदें, जो अरबी परंपरा के मुताबिक बनती थीं। इनमें सामने की तरफ दो मीनारें होती थीं तथा इनके गुंबद एकदम अर्धगोलाकार की बजाय कुछ स्लीक और अलग किस्म के होते थे। मस्जिद-ए-जन्मस्थान एक तरह से देसी मस्जिद थी जिसे यकीनन मध्य एशिया से आए हमलावर बाबर ने तो नहीं ही बनवाई होगी। मेरा अनुमान है कि यह मस्जिद जौनपुर के ही किसी शासक ने बनवाई होगी या संभव है कि अयोध्या के आसपास रह रहे मुसलमानों ने। दिल्ली के सुल्तानों ने भी यह मस्जिद नहीं बनवाई होगी क्योंकि दिल्ली के सुलतानों में अरबो ईरान का इल्म ज्यादा होता था और वे हिंदुस्तान के शासक होते हुए भी दिमाग से हिंदुस्तानी नहीं हो पाते थे। इसके नाम से ही देखिए कि यह मस्जिद चार सौ साल से ज्यादा वक्त तक मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहलाती रही। न तो किसी हिंदू ने न ही मुसलमान ने इसके नाम पर कोई आपत्ति की। मेरा अपना मानना है कि यदि इस परिसर को हिंदू मुसलमानों दोनों के लिए छोड़ दिया जाए और कहा जाए कि अब इसका जैसा स्वरूप है उसी स्वरूप में आप इसे स्वीकारें। बेहतर रहे कि वह कुआं जो पूरे अयोध्या के मीठे पानी का स्रोत था उसे फिर से तैयार किया जाए और उसके मीठे पानी को पूरा शहर इस्तेमाल करे। हर साल रामनवमी पर यहां मेले का आयोजन हो और इसमें हिंदू मुसलमान दोनों जुटें। हिंदू यहीं आरती गाएं और मुसलमान इसी कुएं के पानी से वजू कर नमाज अता करें तथा शांति की दुआ करें। 
यह मस्जिद-ए-जन्मस्थान इतनी भव्य और विशाल थी कि पूरे अवध में इससे बड़ी कोई मस्जिद नहीं रही थी। लेकिन इस मस्जिद को लेकर मुस्लिम समाज में कोई आस्था नहीं थी। इसमें नमाज अता करने या नियमित तौर पर यहां किसी इमाम के रहने के भी सबूत नहीं मिले हैं। मस्जिद के विशाल प्रांगण में एक कुआं था जिसका पानी पूरी अयोध्या में सबसे मीठा था। हिंदू इसे रामजी का प्रसाद बोलते तो मुसलमान आब-ए-खुदा। दोनों ही समुदाय के लोग इसका पानी इस्तेमाल करते थे। यहां हर साल एक मेला लगता था जिसमें हिंदू मुसलमान दोनों ही आते थे। इस मस्जिद पर हिंदू दावेदारी अवध के बादशाह वाजिदअली शाह के वक्त में १८५३ में शुरू हुई जब निर्मोही अखाड़े ने इस मस्जिद में पूजा अर्चना करने की अनुमति मांगी। अनुमति तो खैर नहीं मिली लेकिन इस बीच दो साल तक इस पर कब्जे को लेकर छिटपुट हिंसा होती रही। १८५५ में हिंदुओं को मस्जिद के बाहरी प्रांगण में एक चबूतरा बनाने की इजाजत दे दी गई और भीतरी प्रांगण में मुसलमानों को नमाज पढऩे की इजाजत बनी रही।  १८८३ में बाबा राघोदास ने फैजाबाद के सब जज पंडित हरीकिशन के यहां अपील दायर की कि  यह मस्जिद भगवान राम के जन्म स्थान के मंदिर को तोड़कर बनवाई गई है इसलिए इस मस्जिद की जमीन उन्हें वापस कर दिया जाए। इसी तरह बाबरी मस्जिद भी कोई उल्लेखनीय इमारत नहीं थी। अयोध्या में तो खैर मुस्लिम आबादी न के बराबर है लेकिन फैजाबाद में जब नवाबों का शासन था तब भी इस मस्जिद की ऐतिहासिकता अथवा इसके वजूद को लेकर कभी मुस्लिम समाज ने गर्व किया हो या नमाज अता की हो ऐसा कोई उल्लेख भी नहीं है। लेकिन इसका विवाद इतना भयानक चला कि  पहले अंग्रेज सरकार इसे तूल देती रही और आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार ने भी इसे हरा बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। १९४९ में यहां भगवान राम के प्राकट्य का एक ड्रामा खूब चला और फैजाबाद के तत्कालीन जिला मजिस्टे्रट आरके नैयर तथा सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर सुखदेव सिंह ने उस अफीमची हेड कांस्टेबल की कहानी को सच माना जिसने आधी रात को यहंा भगवान राम को जन्मते देखा था। जिला मजिस्ट्रेट ने मस्जिद में ताला लगवा दिया। १९८५ में केंद्र की राजीव गांधी सरकार के वक्त यहां का ताला खुला। इसके बाद तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक ङ्क्षसघल तथा भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने इस विवाद को इस कदर बढ़ा दिया कि इसी के सहारे भारतीय जनता पार्टी ने पहले उत्तर प्रदेश में और फिर केंद्र में अपनी सरकार बना ली। बाबरी मस्जिद ढहा दी गई लेकिन इससे न तो अयोध्या का भला हुआ न ही अयोध्या के ईष्ट भगवान राम का। बाबरी मस्जिद के स्थान पर अब एक टेंट लगाकर रामलला की मूर्तियां स्थापित की गई हैं और इस टेंट की सुरक्षा के लिए केंद और राज्य सरकार हर महीने करोड़ों रुपया खर्च करती है। सीआरपी, पीएसी और उत्तर प्रदेश पुलिस के हजारों जवान यहां तैनात हैं। पर इनमें से किसी को भी रामलला की इन मूर्तियों से न तो लगाव है न ही उन पर तनिक भी आस्था। जिस किसी जवान की ड्यूटी अयोध्या में लगाई जाती है उसकी पूरी कोशिश यहां से कहीं और तबादला कराने की रहती है। ऐसा नहीं कि यहां बहुत खतरा है या यहां का मौसम उन्हें सूट नहीं करता बल्कि इसलिए कि यहां किसी तरह की कोई भी ऊपरी आमदनी नहीं है। पुलिस में आदमी किसी रामलला या बाल कृष्ण की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए तो भरती होता नहीं उसे तो पोस्टिंग ऐसी जगह चाहिए होती है जहां ऊपरी आमदनी का जरिया हो। अलबत्ता उसे किसी नेता की सुरक्षा में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि नेता सत्ता में आया तो उसकी सुरक्षा में लगे जवानों को भी सत्ता की थोड़ी बहुत मलाई तो मिल ही जाती है। इसलिए जितने भी पुलिस वाले यहां दिखे वे सब बेहद चिड़चिड़े, शक्की तथा खब्ती हैं। हर आने जाने वाले को ऐसी चुभती निगाह से देखते हैं मानो वह तीर्थयात्री नहीं कोई आतंकवादी हो। मोबाइल, पेन, पर्स, बेल्ट सब परिसर के बाहर छोड़कर आओ तब इस परिसर में प्रवेश मिलेगा। अब बेचारा यात्री अपनी ये कीमती चीजें कहां छोड़े और किसके भरोसे छोड़े इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। पर यहां एक चीज मुझे अच्छी लगी वह थी परिसर में जूते पहनकर जाने की आजादी। मुझे नंगे पांव चलने में दिक्कत होती है इसलिए आमतौर पर मंदिरों में मैं या तो जाता नहीं या फिर बहुत मोटे सूत के मोजे पहनकर ही। 
रामलला के दर्शन के बाद मुझे बताया गया कि यहां कनक भवन और हनुमान गढ़ी के मंदिर भी देखने चाहिए। कनक भवन के बारे में मान्यता है कि सीताजी जब ब्याह कर ससुराल आईं तो उनको मँुहदिखाई के रूप में राजा दशरथ ने उन्हें यह महल भेंट किया था। अब इसकी कितनी ऐतिहासिकता है यह तो किसी को नहीं मालूम लेकिन मौजूदा कनक भवन ओरछा नरेश मधुकर शाह देव का बनाया हुआ है और इसके पैट्रन बॉडी में उनके वारिसों का नाम आज भी दर्ज है। कनक भवन काफी भव्य और विशाल है। कई सीढिय़ों को चढऩे के बाद एक  विशाल दरवाजे से इस भवन में आप प्रवेश करते हैं। दरवाजे से घुसते ही एक खूब बड़े आंगन को पार करना पड़ता है। इसके ठीक सामने गर्भगृह परिसर है जिसमें सीता और उनकी शेष तीन बहनों, जो उनकी देवरानियां भी थीं की मूर्तियां हैं। इस मंदिर में चहल-पहल दिख रही थी। जब मैं वहां पहुंचा तब मूर्तियों के सामने के दरवाजे पर परदा पड़ा था। पता चला कि  अभी सीताजी को भोग लगाया जा रहा था। करीब पौने घंटे के अंतराल के बाद यह परदा खुलने वाला था। मंदिर के भीतर पौन घंटे का इंतजार कम नहीं होता। पर कहीं और जाकर दोबारा यहां आने से बेहतर लगा कि मैं किसी तरह यहीं पर समय बिताऊं। मेरे साथ गए थानेदार ने गर्भगृह में व्यास गद्दी के पास मेरे बैठने की व्यवस्था करा दी। गर्भग्रह में जहां मूर्तियां स्थापित थी, के दरवाजे के ठीक बाहर करीब २५ फुट लंबा एक गलियारा था। इस गलियारे के बीच में पांच फुट की समानांतर दूरी में दो रेलिंग लगा दी गई थीं। यह बीच का रास्ता पुजारी के गर्भग्रह आने जाने का था। बायीं तरफ की रेलिंग के बाहर महिलाएं तथा दायीं तरफ की रेलिंग के पार पुरुषों के बैठने की थी। गलियारे में छाया भी थी और सीलिंग फैन भी  लगे हुए थे। धनीमानी और वीआईपी यात्रियों को इसी गलियारे में बिठा दिया जाता है बाकी के सामान्य यात्रियों को आंगन में खड़े रहना पड़ता है। यहां का माहौल एकदम शांत और भक्तिप्रधान दिख रहा था पर मुझे यह व्यवस्था बड़ी बनावटी व भेदभावपूर्ण प्रतीत हो रही थी इसलिए वहां आए भक्तों के चहरे ताकने के मेरे अंदर कोई भक्तिभावना जाग्रत नहीं हो रही थी। पुजारी भक्तों द्वारा लाए जा रहे लड्डुओं को भोग के वास्ते परदा हटाकर मूर्तियों के पास जाता और बाहर आता। उसकी यह आवाजाही मुझे चिढ़ा रही थी। 
- पुजारी जी जब सीताजी का अंदर भोग लग रहा है तो बीच में आप बार-बार उन्हें जाकर क्यों डिस्टर्ब करते हो? मैने पुजारी को टोका।
पुजारी चतुर था उसे पता था कि खुद थानेदार मेरी खातिर तवज्जो कर रहा है इसलिए भले ही मैं ज्यादा चढ़ावा न चढ़ाऊं लेकिन मैं सामान्य यात्री नहीं हूं इसलिए मुस्करा कर बेचारगी केे भाव में बोला- अब मैं क्या करूं लोग तो इसी बख्त लड्डू लेकर आ जाते हैं।
गलियारे में भी व्यास गद्दी के पास भीड़ काफी थी। रेलिंग के पास से मूर्ति का दर्शन ज्यादा सुविधा से हो सकता था इसलिए लोग रेलिंग पर ही चढ़े जा रहे थे। मेरे ठीक आगे एक अधेड़  मारवाड़ी आधी बांह का मलमल का कुरता और धोती पहने बैठा था। मोबाइल की स्क्रीन देख-देख कर वह काफी तेज आवाज के साथ हनुमान चालीसा बांच रहा था, मेरे टोकने से चिढ़ गया। बोला- लोग प्रसाद लाए हैं तो चढ़ाया ही जाएगा। जवाब में मेरे यह कहने पर कि आप सामने देखिए परदा खुलने ही वाला है, वह और खीझ गया एवं और ऊँचे स्वर में हनुमान  चालीसा बांचने लगा। मेरे पीछे एक खूब मोटा सिंधी बैठा था जो जब भी सांस लेता कच्चे लहशुन की बू चारों तरफ भर जाती दोनों के बीच मैं उकड़ूं बैठा था। मैं बार-बार गर्भगृह के सामने लगी घड़ी को देख रहा था कि कब समय बीते और पट खुलें। गर्भगृह के दरवाजे के दायीं तरफ व्यास चौकी थी इसके सामने वाले पाये एक छिपकली चिपकी थी जो फर्श पर बैठी मक्खी को दत्तचित्त होकर निहार रही थी। करीब आधे मिनट की साधना के बाद वह छिपकली उछली और सीधी मक्खी के समीप आकर गिरी उसने अपनी जीभ निकाली और उस मक्खी को पलक झपकते लील गई। और किसी ने तो नहीं देखा लेकिन मैने यह दृश्य देखा और पाया कि छिपकली की नजर अब ठीक मेरी टांग के नीचे बैठी मक्खी पर है। मुझे लगा कि अगर यह छिपकली अबकी उछली तो सीधे मेरी टांग के नीचे आकर गिरेगी। छिपकली के लिजलिजे स्पर्श के अंदेशे से मैं घबड़ा गया और भड़भड़ा कर उठ खड़ा हुआ। मेरे इस तरह अचानक उठ खड़े होने से आगे वाले मारवाड़ी का मोबाइल हाथ से छिटक कर दूर जा गिरा। और पीछे बैठे सिंधी का बैलेंस बिगड़ गया जिसके कारण वह सीधा प्रसाद के थाल के ऊपर जा गिरा। गीली बूंदियां और बेसन के लड्डुओं का चूरा उस थाल में रखा था। सिंधी के चेहरे पर वह चूरा चिपक गया जिससे वह बड़ा वीभत्स दिखने लगा। दोनों भक्तों ने मुझे इतनी गालियां दीं कि मुझे पहली बार लगा कि खड़ी बोली गालियों के मामले में काफी कमजोर है। गालियों के मामले में हमारी देसी बोलियां बहुत समृद्घ हैं। अच्छा रहा कि थानेदार साहब मंदिर के बाहर खड़े होकर मेरा इंतजार कर रहे थे और वहां कोई मुझे जानने-पहचानने वाला नहीं था। मैने तत्काल वहां से खिसक लेना ज्यादा ठीक समझा। लेकिन तभी मूर्तियों के भोग का समय पूरा हो गया और गर्भगृह का परदा खुल गया तथा आरती शुरू हो गई। घंटे, घडिय़ाल की आवाज के बीच मारवाड़ी और सिंधी की आवाजें दब गईं।
कनक भवन के बाद अब मुझे हनुमान गढ़ी जाना था। माना जाता है कि हनुमान गढ़ी अयोध्या की चौकी है। पूरी अयोध्या में ये मंदिर सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। ५० के करीब सीढिय़ां चढ़कर हनुमान गढ़ी मंदिर में जाना पड़ता है। अयोध्या की सुरक्षा की जिम्मेदारी हनुमान जी ने संभाली थी और वे इस सबसे ऊंची चौकी मे बैठकर अयोध्या की निगरानी करते हैं। हनुमान जी को अमर माना गया है इसलिए मान्यता है कि वे आज भी यहीं बिराजते हैं। इसी मान्यता के चलते हनुमान गढ़ी के मुख्य महंत कभी भी हनुमान गढ़ी से बाहर नहीं जाते। मृत्यु के बाद उनकी लाश ही इस गढ़ी से बाहर निकलती है। यहां तक कि अगर हनुमान गढ़ी के महंत के विरुद्घ अदालत में कोई मुकदमा भी हो तो अदालत को ही इस गढ़ी में आना पड़ता है। पर मैने महंत जी से पूछा कि ऐसा क्यों है तो उनका जवाब था कि चूंकि हनुमान जी को भगवान राम ने कभी भी गढ़ी न छोडऩे का वचन लिया था इसलिए वे भी इसी बचन में बंधे हैं।
- लेकिन महंत जी भगवान राम के सरयू नदी में अंतध्र्यान होने के काफी समय बाद द्वापर युग में तो हनुमान जी ने गढ़ी छोड़ी थी। मैने शंका की।
- कैसे? महंत जी थोड़ा विचलित लग रहे थे।
मैने उन्हें बताया कि द्वापर में पांडव जब १३ साल के बनवास पर थे और अर्जुन धनुर्विद्या सीखने किरात के पास जाते हैं तब लंबी अवधि तक अर्जुन के बाहर रहने के कारण चिंतित युधिष्ठिïर के आदेश पर भीम उन्हें तलाशने हिमालय के दुर्गम जंगलों में गए वहां एक अत्यंत बूढ़े वानर से उनकी भेंट हुई जो ठीक मार्ग के बीच में बैठा था। भीम उसकी ढिठाई से चिढ़ गए और डांट कर बोले- रास्ता छोड़ वानर।
वानर ने कहा कि बच्चा मैं तो बूढ़ा हो गया हूं तुम ही मेरी पूँछ हटाकर रास्ता बना लो। भीम, जिनमें दस हजार हाथियों का बल था उस वानर की पूँछ नहीं खिसका पाए। तब वे उसके पैरों पर पड़ गए। बोले- महात्मन आप कौन हैं? मैं आपको पहचान नहीं सका।
हनुमानजी ने उन्हें अपना विशाल स्वरूप दिखाया और बताया कि मैं हनुमान हूं। इसके बाद भीम को उन्होंने वायदा किया कि कुरुक्षेत्र में जब महासंग्राम होगा तब मैं तुम्हारी मदद के लिए रहूंगा। हनुमानजी ने अपना वायदा निभाया और कुरुक्षेत्र के महायुद्घ के दौरान वे पूरे १८ दिनों तक अर्जुन के रथ के ऊपर बैठे रहे। यह उन्हीं का प्रताप था कि कुरुक्षेत्र में बड़े बड़े महारथी अर्जुन के रथ को जरा भी नहीं खिसका पाए।
मेरी बात सुनकर महंत जी का चेहरा लाल पड़ गया और वे कुछ भुनभुनाते हुए बोले- हनुमान जी देवता हैं उनकी महिमा को हम कहां जान सकते हैं। यह मुझे चुप रहने का संकेत था। बहरहाल थानेदार के साथ जाने का एक फायदा तो हुआ ही कि मुझे बगैर कुछ चढ़ावा चढ़ाए ही करीब सेर भर बेसन के लड्डू प्रसाद में दिए गए।
अयोध्या शोध संस्थान पिछले करीब सात साल से अपने आडिटोरियम में रोजाना शाम छह से नौ बजे तक रामलीला का आयोजन करता है। हर पंद्रह दिन में रामलीला करने वाली मंडली बदल जाती है। मैं जब वहां गया तो रामलीला का २२९२वां दिन था। इस रामलीला को मुलायम सिंह ने तब शुरू किया था जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस दिन वहां लंका दहन का कार्यक्रम था। वृंदावन की कोई मंडली कर रही थी। रामलीला की समस्या यह है कि वहां आज भी स्त्री की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते हैं। इसलिए लीला में स्वाभाविकता नहीं आ पाती है। फिर भी मैं तीन घंटे तक रामलीला देखता रहा। अयोध्या एक धार्मिक स्थल है इसलिए यहां शराब और मांसाहार वर्जित है। लेकिन मेरे साथ गए थानेदार और वहां के विधायक के चेले चपाटियों ने मेरे लिए उस मारवाड़ी निवास में ही शराब और मांसाहार की व्यवस्था कर रखी थी। लेकिन जब मैने कहा कि मैं तो शराब पीता नहीं और हंड्रेड परसेंट शाकाहारी हूं तो वे बेचारे बहुत देर तक मेरे चेहरे को निहारते रहे फिर जैसे उन्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ लेकिन क्या करते। बोले- आपत्तिकाले मर्यादानास्ति। और इसी के साथ उन लोगों ने शराब की पूरी बोतल तथा चिकेन साफ कर डाला।

इमारतें, इबारतें व रवायतें

अगली सुबह तैयार होने के बाद गुप्तार घाट तथा भरतकुंड जाने का कार्यक्रम बना। गुप्तार घाट फैजाबाद में है और मान्यता है कि इसी जगह भगवान राम सरयू में समाये थे। हम लोग वहां से फैजाबाद के लिए निकले तो पहले गुलाबीबाग देखा। नवाब सआदत अली खान ने यह मजार अपने जीते जी बनवाई थी लेकिन मरने के बाद उसे यहां जगह नहीं मिली उसे दिल्ली में दफनाया गया। सफदरजंग के मकबरे के नाम से मशहूर दिल्ली में यह मजार जोरबाग के सामने बनी है। बहरहाल गुलाबीबाग इमारत वाकई कलात्मक रूप से काफी आकर्षक और यहां का लान बड़ा सुंदर है। यहां पर अब कुछ सरकारी दफ्तर तथा वक्फ बोर्ड का आफिस है। बेगम अख्तर की हवेली भी इसी गुलाबीबाग के पास बनी है। इस हवेली को जूते के एक कारोबारी ने खरीद लिया है जहां बेगम अख्तर की याद में कुछ भी नहीं सहेजा गया है। इसके बाद छावनी इलाके को पार करते हुए हम आगे बढ़े। फैजाबाद छावनी में डोगरा रेजीमेंट का मुख्यालय है। पर छावनी तो छावनी होती है चाहे वह सिख रेजीमेंट हो, राजपूत रेजीमेंट हो या डोगरा। सभी जगह एक ही तरह की इमारतें, इबारतें और रवायतें। छावनी का गेट पार करते ही गुप्तार घाट है। सरयू यहां अपने पूरे उफान पर थी। इतना विशाल पाट तो मैने गंगा का भी नहीं देखा। जहां तक नजर जाती थी बस पानी ही पानी। काफी गौर से देखने पर उस पार क्षितिज पर कुछ छायाएं जैसी दीखती थीं जो शायद पेड़ आदि थे। घाट की सारी सीढिय़ां डूबी हुई थीं। बुर्जी के ऊपर भी पानी था जो काफी वेग से गुजर रहा था। मुझे एक मोटरबोट वाला वहां दिखा मैने उससे पूछा कि चलोगे?
- कहां चलना है?
- तुम बताओ कहां तक ले जा सकते हो?
- जाने को तो साहब हम नंदीग्राम तक जा सकत हैं पर वहां तक ढाई सौ रुपया लेंगे। नाव वाला बोला।
साथ के लोगों ने कहा कि ज्यादा मांग रहा है। यूं भी इस बाढ़ में जाना ठीक नहीं है। लेकिन मैं ढाई सौ रुपये में राजी था।
- चलो और मैं लपक कर मोटरबोट पर बैठ गया। देखादेखी साथ के लोग भी कुछ झिझकते हुए सवार हो गए। हालांकि मैने कह दिया कि अगर डर हो तो वे कार से वहां पहुंचें।
मोटरबोट वाला चल दिया। बोट वाला पहले तो उसे किनारे से कुछ दूर ले गया फिर बहाव की दिशा में बोट को छोड़ दिया। घाटों के सामने से होती हुई बोट तेजी से बही जा रही थी। आसपास के पेड़ों की डालियां टूट-टूट कर नदी में गिर रही थीं जिस कारण बोट को बार-बार काटना पड़ रहा था। 
किसी भी रेलवे स्टेशन पर समय गुजारना मुझे कभी भी बोर नहीं करता। स्टेशन पर टहलकर आप पूरे हिंदुस्तान की विभिन्न छवियों को देखने का मजा ले सकते हैं। कुछ लोग तो आते ही  मुख्य प्लेटफार्म के बीच में किसी पंखे के नीचे फर्श पर चादर बिछाकर यूं लेट जाएंगे मानो वे ट्रेन पकडऩे नहीं प्लेटफार्म में नींद का मजा लेने आए हैं। किसी एक जगह प्लेटफार्म का पूरा कोना समेटे कोई परिवार दिखेगा जिसमें एक अधेड़ गृहिणी पूरा वक्त बस परिवार के सभी सदस्यों को पूरी सब्जी परोसती नजर आएगी। मानो यह परिवार टिफिन घर से लाया ही इसलिए हो कि प्लेटफार्म में बैठकर खाना है। फिर स्टेशन के सारे प्लेटफार्मों  को एक सिरे से दूसरे सिरे तक नापने का अपना एक अलग मजा है। मुझे प्लेटफार्म की हर गतिविधि को देखना बहुत पसंद है। चाहे वह किसी ट्रेन पर चढऩे उतरने के लिए सवारियों की धींगामुश्ती हो या उन सवारियों को देखना जो हर स्टेशन पर उतरकर प्लेटफार्म पर यूं ही घूमने लगती हैं जैसे वे अपने घर के लान में टहल रहे हों। जबकि उन बेचारों को यह तक नहीं पता होता है कि इस स्टेशन का नाम क्या है। मुझे पता नहीं चला कि कब तीन घंटे बीत गए और जब ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई तो मैने अपना कोच तलाशा और ट्रेन में सवार हो गया। सेकेंड एसी कोच में मेरी बर्थ साइड की लोअर थी। सामान अपने पास कुछ ज्यादा था नहीं इसलिए ट्रेन में चढ़ते ही मैने बर्थ पर रखा बेड रोल बिछाया और लेट गया। लेकिन साइड की लोअर बर्थ में नींद ठीक से आती नहीं है क्योंकि एक तो यह बर्थ साइड की दोनों सीटों को गिरा कर बनाई जाती है जिसके कारण इसका एक सिरा कुछ ऊंचा और दूसरा हल्का सा नीचा होता है। इसके अलावा यह बर्थ ट्रेन के पहियों के ठीक ऊपर होती है जिसकी वजह से गाड़ी रुकने या चलने के झटकों के कारण लगातार सोते रहना असंभव है। यही सोचकर मैने अल्प्रेक्स की एक गोली खाना खाने के फौरन बाद ले ली थी। मैं खूब गहरी नींद सोना चाहता था क्योंकि अगले दिन सुबह मैं दफ्तर पहुंचना चाहता था। नींद आ तो गई पर लखनऊ में कुछ कालेजी छोकरे चढ़े जिनकी जोर-जोर से बोलने की आवाजों से मैं जाग उठा। टाइम जानने की उत्सुकता हुई। घड़ी तो थी नहीं इसलिए तकिये के नीचे दबा मोबाइल उठाया और साइड में रखा चश्मा लगाकर समय देखा पौने दो बज रहे थे। यानी ट्रेन ने १३० किमी का सफर पूरे तीन घंटों में तय किया। पर सिंगल ट्रैक पर तीन घंटों में ट्रेन का इतनी दूरी कवर कर लेना बुरा नहीं था। मुझे राहत महसूस हुई क्योंकि यहां से ट्रेन में बिजली का इंजिन लग गया था और जिस रूट पर अब ट्रेन को दौडऩा था उसमें जाने की पटरी अलग थी और आने की अलग। इसलिए मैं आश्वस्त था कि दिल्ली तक ट्रेन अपना वक्त काफी हद तक कवर कर लेगी।
बिजली का इंजिन लगने के बाद ट्रेन में जैसे पर लग गए। प्लेटफार्म छोड़ते ही उसने स्पीड पकड़ ली। मैं फिर सो गया। अबकी नंीद खुली तो देखा कि ट्रेन एक उजाड़ से स्टेशन पर खड़ी है। न तो कोई चढ़ता हुआ दिखा न ही कोई सवारी वहां उतरी। बाहर प्लेटफार्म पर एक सिपाही जरूर एक बर्थ पर अधलेटा होकर बीड़ी पी रहा था उसके ठीक ऊपर एक सफेद सा बोर्ड था जिसमें कुछ नंबर लिखे थे। पर वहां रोशनी बहुत कम थी ऊपर से एसी कोच की खिड़की का काँच भी काला होता है जिससे नीम अंधेरे में उस तरफ का साफ-साफ कुछ दिखता भी नहीं है। चश्मा लगाने के बाद खूब आंखें गड़ा कर मैने पढ़ा। शायद जीआरपी के अफसरों के मोबाइल नंबर लिखे हुए थे उसी में एक नंबर के सामने लिखा था- एसओ जीआरपी उन्नाव। तब समझ में आया कि ट्रेन उन्नाव जंक्शन पर खड़ी है। गाड़ी चलते ही मैं फिर सोने की कोशिश करने लगा। यहां के बाद गाड़ी को बीस किमी चलकर कानपुर रुकना था। मैं लेट तो गया लेकिन उत्सुकता हुई कि शुक्लागंज में गंगा खूब बढ़ी होंगी। जरा खिड़की का परदा खोलकर गंगा की चढ़त देखी जाए यही सोच कर मैं फिर उठकर बैठ गया। सामने पानी ही पानी था। गंगा की धारा यहां से दूर थी पर बाढ़ के पानी के फैलाव ने आसपास पांच छह किमी के इलाके को डुबो दिया था। लगा गंगा भी ताकतवर से डरती है वर्ना जो कानपुर शहर उसे सबसे ज्यादा मैला करता है उसकी तरफ तो यह कभी रुख तक नहीं करती लेकिन पास के जिले उन्नाव के छोटे से कस्बे शुक्लागंज को हर साल लील जाती है। यही सोचते हुए मैं फिर कंबल के भीतर दुबक गया  पर कुछ ही देर बाद जैसे ही ट्रेन कानपुर पहुंची नींद खुद ब खुद खुल गई। मैं अब तक करीब चार घंटे की नींद ले चुका था। इसलिए अब सोने की इच्छा भी नहीं हुई। यूं भी कानपुर स्टेशन को आज तक मैने कभी भी सोते हुए नहीं पार किया।  चाहे दिन हो या रात कानपुर स्टेशन पहुंचते ही जाग जाता। शायद अपने शहर से बेहद लगाव की वजह से ऐसा हो। लेकिन कानपुर कहने को ही मेरा शहर रहा। यह बेमुरौवत शहर कभी किसी का नहीं रहा। 
कानपुर में कुछ सवारियां उतरीं। सामने का एक पूरा केबिन खाली हो गया। मैने लपक कर  नीचे की बर्थ अपने कब्जे में ले ली और उस पर बिछे बिस्तर को हटवाया तथा अपना बेड रोल बिछाकर आराम से लेट गया। टे्रन जैसे ही सरकी कानपुर के तमाम लोगों के चेहरे दिमाग में आने जाने लगे और धीरे-धीरे सब कुछ गड्ड-मड्ड होने लगा इसी बीच नींद आ गई। तभी मैने वह सपना देखा जिसे न तो भयावह कहा जा सकता है न सुखद। सपने में मैने देखा कि सांसदों के वेतन बढ़े वेतन को मुद्दा बनाकर मैने एक रिट याचिका देश के दक्षिणी छोर में स्थित प्रांत की हाईकोर्ट में डाली और बड़ी मजबूती से अपना केस लड़ा। मैने दलील दी कि  संविधान के अनुसार देश में विभिन्न पदों के वेतनमान में एक और दस से ज्यादा का फर्क नहीं होना चाहिए। पर इस दफे सांसदों ने अपना वेतन भत्ता इतना बढ़वा लिया है कि यह फर्क दस गुने की बजाय सौ गुना तक हो गया है। इस दौरान मुझ पर बहुत दबाव पड़े, लालच दिए गए और धमकाया भी गया लेकिन मैं अड़ा रहा और केस जीत गया। सरकार की खूब थू-थू हुई। शर्मशार हो कर केंद्र की सरकार ने राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंप दिया तथा लोकसभा के   मध्यावधि चुनाव कराए जाने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने नई सरकार बनने तक इसी सरकार को फौरी तौर पर काम करने को कहा। 
मीडिया और देश के मध्यवर्ग ने मुझे हाथों हाथ लिया। मेरी जीत को ईमानदारी, सत्यनिष्ठा की जीत बताया गया और रोजाना अखबारों में इंटरव्यू, बयान आदि छापे जाने लगे। मीडिया ने पता नहीं कहां से मेरी एक ऐसी फोटो भी प्राप्त कर ली जिसमें मैं सिर मुंड़ाए और धोती पहने एकदम गांधीजी की तरह दिखता था। ऐसी एक फोटो कानपुर के मेरे घर पर जरूर रखी हुई है जो उस वक्त खींची गई थी जब पिताजी की तेरहवीं के समय मैं छत पर हवन कुंड के समक्ष बैठकर रस्में अदा कर रहा था। इस फोटो मैं घुटे हुए सिर पर तौलिया डाले ऐसा दिखता हूं जैसे नोआखाली में अनशन पर बैठे गांधीजी दिखते थे। देश भर की मीडिया में मेरी प्रशंसा और मध्य वर्ग के मेरे साथ जुडऩे का नतीजा यह हुआ कि जहां भी मैं जाता लोगों की भीड़ मुझे घेर लेती। हर आदमी मुझे सुनने को, देखने को आतुर था। मेरे समर्थक कुछ युवाओं ने लोकमोर्चा के नाम से एक संगठन बना डाला और मुझे इसका बना दिया। ये सब मेरे पीछे पड़ गए कि मैं लोकसभा का चुनाव लड़ूं पर मेरी शर्त थी कि एक अकेले मेरे चुनाव लडऩे से कुछ नहीं होने वाला अगर मोर्चे को चुनाव में उतरना ही है तो लोकसभा की सारी ५४२ सीटों पर ईमानदार, प्रतिबद्घ, सादगीपसंद तथा कुछ नया करने के इच्छुक लोगों को चुनाव लड़ाया जाए।  इतनी जल्दी इतने लोगों को ढूंढऩा मुश्किल था पर हमारे मोर्चे ने आखिर पूरे देश से ५४२ लोग ढूंढ़ निकाले और लोकसभा की सारी सीटों पर मोर्चे ने अपने लोगों को लड़ा दिया। युवातुर्कों की मेहनत और मीडिया के मेरे पीछे लामबंद हो जाने के चलते हमें वह विजय मिल गई जो अकल्पनीय थी। हमारे मोर्चे ने सारी सीटें फतेह कर लीं और हमारे ५४२ साथी लोकसभा का चुनाव जीत गए।
पूरे देश में हड़कंप मच गया। वे सारे लोग जो देश में बहुदलीय लोकतंत्र को लेकर बड़े उत्साहित रहते थे उनके चेहरे धुंआ हो गए। अब क्या होगा? चूंकि  हमारा मोर्चा कोई रजिस्टर्ड राजनैतिक दल तो था नहीं इसलिए हमारे सारे सांसद निर्दलीय माने गए और कहा गया कि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इसलिए या तो सारे निर्दलीय सांसद किसी एक पार्टी में शामिल हो जाएं या वे आपस में मिलकर अपनी एक नई पार्टी बना लें। सांसदों की खरीद फरोख्त के लिए कई राजनैतिक दलों ने अपनी थैलियां खोल दीं। किसी ने प्रति सांसद एक करोड़ कीमत लगाई तो कोई दस करोड़ देकर सांसद खरीदना चाहता था। दुनिया के सबसे अमीर और ताकतवर देश के लिए काम करने वाली एक राजनैतिक पार्टी ने तो सौ करोड़ में सांसदों को खरीदने का विज्ञापन छपवा दिया। लेकिन लोकमोर्चा के मंच से जीत कर आए सांसद दूसरी ही मिट्टी के बने थे। एक भी सांसद यूं बिकने को तैयार नहीं हुआ। उलटे एकजुटता बनाए रखने के लिए ये सारे सांसद नतीजा आने के तीसरे ही दिन राजधानी आ गए और सबने मिलकर एक पार्टी का गठन कर डाला। अब ये सारे के सारे ५४२ लोकसभा सदस्य राष्ट्रीय लोकहित पार्टी के सांसद बन गए जिन्हें तोडऩा अब किसी के बूते में नहीं था। मुझे इस लोकहित पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। राष्ट्रपति के सचिव मुरारी लाल का अगले रोज मेरे  पास फोन आया। उन्होंने मुझे बधाई दी और कहा कि राष्टï्रपति ने सरकार बनाने के लिए आपकी पार्टी को आमंत्रित किया है। मैने उनसे कहा कि हमारी पार्टी का नेता अभी चुना जाना है तब तक की मोहलत मुझे दी जाए। अभी तक की परंपरा के अनुसार लोकसभा की सबसे बड़ी पार्टी का अध्यक्ष ही आमतौर पर प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार माना जाता है इसलिए मुझे भी इसे स्वीकार कर लेने के लिए दबाव पडऩे लगे। लेकिन मैने यह पद लेने से साफ मना कर दिया। सांसदों का आग्रह था कि कि इस पार्टी के स्वाभाविक नेता आप हैं इसलिए आप ही हमारा नेतृत्व करें। पर मैं हठ पकड़े था कि नहीं हमें अपनी पार्टी की तरफ से एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। जब हमने तय किया है कि एक  व्यक्ति सिर्फ एक ही पद पर रह सकता है तब फिर यह कैसे संभव है कि अध्यक्ष भी मैं रहूं और प्रधानमंत्री भी मैं। सांसदों के मेरे आग्रह के समक्ष झुकना पड़ा। उन लोगों ने अपना नेता चुना श्री रामखेलावन यादव को जो कि देश के मध्यभाग में स्थित एक लोकसभा सीट से जीत कर आए थे। पार्टी का संविधान बनाया गया और तय हुआ कि प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के निर्देशों के मुताबिक ही काम करेंगे और पार्टी सीधे जनता के प्रति समर्पित होगी। प्रधानमंत्री के भाषण, उनकी वरीयताएं, यहां तक कि उनकी पूरी दिनचर्या का चार्ट पार्टी मुख्यालय ही तय करेगा।
नियत समय पर हमारी लोकहित पार्टी की सरकार बन गई। प्रधानमंत्री के साथ ३१ मंत्रियों ने भी शपथ ली। गृहमंत्री कश्मीर से जीतकर आए मोहम्मद रफीक खान को बनाया गया। शपथ लेने के बाद प्रधानमंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस की और अपनी वरीयताओं में उन्होंने साफ साफ कहा कि अब देश की जनता के प्रति सिर्फ हमारी पार्टी ही जवाबदेह है क्योंकि और किसी को जनता ने जिताया ही नहीं है इसलिए पूरी सरकार के साथ-साथ अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं की जवाबदेही तय करने के लिए संविधान में जरूरी संशोधन उनकी सरकार करेगी। प्रधानमंत्री के इस बयान से जैसे आग लग गई। जो मीडिया हमारा मित्र था अचानक हमारे पीछे लठ्ठ लेकर पड़ गया। एक चैनल ने कुछ संविधान विशेषज्ञों के हवाले से एक परिचर्चा कराई कि यह सरकार ही असंवैधानिक है क्योंकि बहुदलीय लोकतंत्र में एक पार्टी का लोकसभा की सारी सीटों पर जीतना गलत है। अगर ऐसा होता रहा तो भविष्य में सरकारें तानाशाह बन जाएंगी। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि इस लोकसभा को असंवैधानिक बताकर राष्ट्रपति लोकसभा के दोबारा चुनाव कराएं। हमारी पार्टी के प्रवक्ता ने सवाल उठाया कि  अगर यह लोकसभा असंवैधानिक है तो राष्ट्रपति ने तत्काल क्यों नहीं कदम उठाया और अब सरकार बन जाने के बाद ऐसी चर्चाएं क्यों? हमारी पार्टी सिर्फ और सिर्फ जनता के प्रति जवाबदेह हैं किन्हीं लोकतांत्रिक घरानों के लिए नहीं। यह दूसरी चोट थी। हमने प्रेस और दूसरी समस्त पालिकाओं के ऊपर पत्थर फेंक दिया। प्रेस तो झल्लाया था ही न्यायपालिका का चेहरा भी लाल हो गया लेकिन उसने खुद जवाब देने की बजाय वकीलों को लगाया। सुप्रीम कोर्ट के वकील धड़ाधड़ एक के बाद एक याचिकाएं दाखिल करने लगे। लेकिन हमारी पार्टी की सरकार पर सीधे हमला करने की स्थिति में कोई नहीं था क्योकि सैकड़ों और हजारों की तादाद में छात्र, मजदूर, किसान और अन्य तमाम मध्य वर्ग के नुमाइंदे राजधानी पहुंच कर हमें नैतिक समर्थन देने के लिए संसद के बाहर एकत्र होने लगे।
नई लोकसभा के अध्यक्ष डॉ. राधेश्याम कुरील ने संसद का सत्र भी फौरन बुला लिया और कुछ आवश्यक संशोधन बिल रखे गए। पहला यह कि शिक्षा और स्वास्थ्य सीधे सरकार की देखरेख में चलेंगे। प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों/कालेजों का तत्काल प्रभाव से केंद्र सरकार अपने अधीन कर लेगी। पेश होते ही बिल लोकसभा बिना किसी विरोध के पास हो गया लेकिन राज्यसभा में इसके इतनी ही जल्दी गिर जाने का खतरा था इसलिए हमारी सरकार इस फैसले पर अमल के लिए अध्यादेश ले आई और बिना कोई मुआवजा दिए सभी स्कूलों तथा अस्पतालों को सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। राज्यसभा में खूब हो हल्ला मचा। हमारी सरकार के विरुद्घ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार को राज्यसभा में गिरा दिया गया। पर निचले सदन(लोकसभा) को भले ही निचला कहा जाए लेकिन सरकार गिराने की संवैधानिक  ताकत तो उसी के पास होती है। इसलिए सवाल उठा कि जो बिल राज्यसभा में गया ही नहीं उसे आधार बनाकर वह सदन सरकार को गिरा कैसे सकती है? राज्यसभा के सभापति यह सुनिश्चित ही नहीं कर सके। यह बड़ी ही दुविधा की स्थिति थी। उधर राजनैतिक दल प्रेस के  जरिए हम पर खूब हमले कर रहे थे। वेे रोज  हमारी सरकार को गिराने के लिए राष्ट्रपति से अपील करते। चूंकि प्रांतों में हमारी एक भी सरकार नहीं थी अत: विधानसभाओं में भी हमारे खिलाफ लगभग रोज ही हल्ला मचता। देश के ही औद्योगिक घराने नहीं बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी हमारी सरकार गिराने की जुगत में लगी थीं। दुनियां के विकसित देशों का सिरमौर एक देश तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमें बदनाम करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता।
औद्योगिक घरानों द्वारा कन्नी काट लेने से हमारी सरकार की वित्तीय स्थिति बहुत डांवाडोल थी। विदेशों से पैसा मिलने की हमें जरा भी उम्मीद नहीं थी। सरकार में नौकरशाही पुराने राजनैतिक दलों की विश्वस्त थी। एक भी नौकरशाह हमारी सरकार की इस स्थिति को लेकर चिंतित नहीं था। हमारी पार्टी के करीब करीब सभी सांसद नए और अनुभवहीन थे इसलिए हमने इस स्थिति से निपटने के लिए सबसे आसान तरीका निकाला खर्चों में कटौती का। पहले स्तर पर सभी सांसदों व मंत्रियों को मिलने वाले अनाप-शनाप भत्ते व वेतन रोक दिए गए। उनके आवास पर होने वाला खर्च, उनकी सुरक्षा के खर्चे भी खत्म कर दिए गए। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के अलावा अन्य किसी भी मंत्री व सांसद को न तो बंगले दिए गए न ही सिक्योरिटी जवान। सब के लिए बस टू बेडरूम फ्लैट की व्यवस्था की गई। मंत्रियों को सिर्फ एक गाड़ी और सांसदों को संसद आने जाने के लिए पूल कार। इसके बाद हमने शोभा के पदों को समाप्त करने का निर्णय किया। राष्ट्रपति का पद खत्म कर राष्ट्रपति भवन में कई सरकारी दफ्तर शिफ्ट कर दिए गए। जब राष्ट्रपति नहीं तो उप राष्ट्रपति का पद भी स्वत: ही समाप्त हो गया। अपर हाउस (राज्यसभा) के सदस्यों में तहलका मच गया। वहां पर एक स्वर से कहा गया कि भरपूर मजारिटी का यह पार्टी मजाक उड़ा रही है। इस सरकार को बर्खास्त किया जाए। पर अब बर्खास्त करता कौन? न तो राष्ट्रपति रहा न उप राष्ट्रपति इसलिए सुप्रीम कोर्ट से दरख्वास्त की गई। पर सुप्रीम कोर्ट किस आधार पर ऐसा फैसला करता? तब पुराने घाघ राजनैतिक दलों ने नौकरशाही के प्रमुख कैबिनेट सेक्रेट्री से अपील की कि इस सरकार के आदेशों को मानने से अफसर साफ मना कर दें। लेकिन हमारी पार्टी के फैसलों से प्रसन्न लोग हजारों की तादाद में रोज राजधानी आ रहे थे और ये सब संसद के बाहर पार्कों में डेरा डाले थे। सब कह रहे थे कि यह सरकार गिरी तो वे ईंट से ईंट बजा देंगे। सब कुछ तहस नहस कर देंगे। राष्ट्रपति का पद समाप्त हो जाने के कारण सारी नौकरशाही और पुलिस सीधे प्रधानमंत्री के नियंत्रण में आ गई। यहां तक कि राज्यों की अफसरशाही भी। इसलिए कैबिनेट सेक्रेट्री भले अंदर से ऐसा ही चाहते रहे हों लेकिन खुलकर वे कुछ नहीं बोल रहे थे।
हमारी पार्टी के अखबार ने पाठकों से सवाल किया कि एक गरीब मुल्क में संसद के दो सदनों की जरूरत क्या है? आखिर राज्यसभा में कौन जीतकर आता है? या तो धन्ना सेठ अथवा वे  राजनेता जिनका कोई जनाधार नहीं है और वे सिवाय तिकड़म के कुछ भी नहीं जानते। अत: यह हाउस खत्म कर दिया जाना चाहिए? इसका बड़ा रिस्पांस मिला। हमने आखिरकार तय किया कि हम राज्यसभा भंग कर देंगे। लोकसभा में सारे सांसदों ने इस प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगा दी। राज्यसभा समाप्त और इसी के साथ २७२ लोग अपनी सांसदी गंवा बैठे। हमने इसी अभियान के तहत सांसदों को सांसद न रहने के बाद दिए जाने वाले हितलाभ भी बंद कर दिए। अब सांसदों को भविष्य में कोई पेंशन वगैरह भी नहीं दी जाएगी अलबत्ता अगर मानवीय आधार पर किसी सांसद को जरूरत होगी तो सरकार उसका खर्च उठाएगी। 
राजनैतिक दलों ने अब राष्ट्रीय राजधानी की बजाय प्रांतों की राजधानी से हम पर हमले शुरू किए। यूं मेरी सरकार के लिए राज्य सरकारों को गिराने में कोई अड़चन नहीं थी लेकिन हमारी सरकार ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती थी जिस पर सीधे जनता से मुहर न लगवाई गई हो। यूं भी कुछ बड़ी विधान सभाओं का कार्यकाल जल्द ही समाप्त होने वाला था। इसलिए तय किया गया कि विधान सभाओं का चुनाव नियत समय पर ही कराया जाए। उधर चुनाव आयोग की रिपोर्ट आई कि लोकहित पार्टी के अलावा किसी भी अन्य पार्टी को पूरे देश में चार प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले हैं। इसलिए उनकी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता अपने आप खत्म हो गई। मैने प्रधानमंत्री से कहा कि आवास मंंत्री को चाहिए कि वे सभी दलों के राजधानी स्थित दफ्तर और उनके नेताओं को मिले मकान खाली करा लें। उन्हें राजधानी में दफ्तर खोलने हों तो बाजार दर पर जहां भी जगह मिले खोलें जाकर। इसी तरह उनके नेता भी अपने आवास तत्काल खाली कर दें। इसी के साथ हमने यह भी फैसला किया कि हम किसी भी राजनैतिक दल के नेता को सिक्योरिटी कवर नहीं देंगे। क्योंकि हमारी पार्टी का मानना है कि राजनेता जनता की सेवा करने आते हैं न कि उन पर बोझ बनने। किसी नेता को सुरक्षा देने का मतलब है कि उसे जनता पर अपना भरोसा नहीं है। एक्स, वाई, जेड और जेड प्लस जैसी सुरक्षा लेकर घूमने वाले राजनेताओं की सिट्टी पिट्टी गुम। कुछ ने कहा कि यह हमें खत्म कर देने की साजिश है तो कुछ प्रधानमंत्री के समक्ष गिड़गिड़ाने लगे। लेकिन हमने इस मसले पर बड़ा ही निर्मम रुख अख्तयार कर लिया। पूर्व प्रधानमंत्रियों, उनकी विधवाओं और रिश्तेदारों की सुरक्षा में लगी फोर्स भी हटा ली गई साथ उनसे बंगले लेकर उन्हें बुजुर्ग राजनेताओं के पुनर्वास हेतु बनवाए गए वन बेडरूम फ्लैट की पेशकश की गई अथवा एक विकल्प था कि वे बाजार मूल्य पर राजधानी के सरकारी आवास क्षेत्र के बाहर अपने लिए आवास का प्रबंध कर लें। हमने अपनी पार्टी के लिए भी यही पैमाना तय किया। हमारी पार्टी का मुख्यालय सरकारी क्षेत्र के बाहर राजधानी के एक बेहद भीड़भाड़ भरे इलाके में था। हमारी पार्टी की तरफ से न मैने और न ही किसी अन्य पदाधिकारी ने किसी तरह की सरकारी सुविधा की मांग की थी। हमारी पार्टी राष्ट्रीय लोकहित पार्टी ने आमसभा बुलाकर इसका नाम बदलने का फैसला किया। मुझे इस नाम में जनवाद की कम राष्ट्रवाद की बू आती थी इसलिए हमने तय किया कि इसका नाम जनवादी लोकतांत्रिक पार्टी होगा। हमारी पार्टी के मुख्य सिद्घांतों में देश में एक  जातिविरोधी, धर्मविरोधी, समानतावादी तथा लिंगभेद रहित समाज बनाना था।
कुछ चतुर राजनेताओं ने अदालतों का सहारा लिया लेकिन अदालतें भी बहुत संभलकर कदम रख रही थीं। सरकार के नए फैसलों और उन्हें मिलते जन समर्थन से वे भयभीत थीं। उन्हें डर सता रहा था कि कहीं सरकार उन्हें मिलने वाली सुविधाओं में कटौती करने का प्रस्ताव न ला दे। इसलिए या तो उन्होंने राजनैतिक दलों की ऐसी याचिकाएं स्वीकार नहीं की या फिर पहली ही सुनवाई में उन्हें खारिज कर दिया। लेकिन इससे अदालतों की शरण लेने वाले लोगों की संख्या कम नहीं हुई। स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों के मालिकों की असंख्य याचिकाएं अदालतों के पास थीं। मीडिया ऐसे लोगों के पीछे था इसलिए ऐसी खबरों को खूब चटखारे लेकर छापा जाता। हमारे प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया कि मीडिया के लिए एक गाइडलाइन तय की जाए। मुझे उनकी बात तो जंची लेकिन मेरा सोचना था कि पहले विधानसभाओं के चुनाव हो जाने दो तब हमें हमारी स्ट्रेंथ और नीतियों की सफलता का पता चलेगा। भले मीडिया हमारे खिलाफ खबरें छापता हो लेकिन जनता के बीच उसका असर उलटा होता था। अस्पतालों, स्कूलों के सरकारीकरण से लोगों में बड़ी खुशी हुई थी। अभी वहां कार्यरत टीचर और डाक्टर डरे हुए थे इसलिए उनके कामकाज मेंं कोई कोताही नहीं थी और पैसों का दबाव खत्म हो जाने से वे मन लगा कर काम भी कर रहे थे। इससे कम से कम आम लोगों को तो राहत ही मिल रही थी। पर अगर मीडिया के लिए गाइडलाइन जारी कर दीं तो यह रास्ता भी बंद हो जाएगा।
नौकरशाही थोड़ा सहमी जरूर थी लेकिन मुझे कई बार लगता कि मीडिया को खबरें लीक करने या उसके जरिए हमारी सरकार की छवि खराब करने के लिए वह वही पुराने हथकंडे अपना रही जो पिछली कई दफेवे सरकार के अंतर्विरोधों को उजागर करने के लिए अपनाती आई थी। दूसरी तरफ राज्यों की सरकारें भी हमारे विरुद्घ अन्य राजनैतिक दलों के लिए मजबूत आधार बनी हुई थीं। जिन राजनेताओं की सुरक्षा हमने वापस ले ली थी उन्हें अलग-अलग राज्य सरकारों से सुरक्षा मिल गई। लेकिन राज्य सरकारों को खतरा था कि अगर चुनाव हुए तो वे यकीनन हार जाएंगी इसलिए पहली दफे राज्यों में सत्ताधारी और विपक्ष में मजेदार एकजुटता दिखी। विधानसभा चुनावों में किसी भी राज्य सरकार ने अथवा विपक्षी दल ने केंद्रीय बल की मांग नहीं की। लगभग हर राज्य से सत्तारूढ़ दल के सुर में सुर मिलाकर विपक्ष कह रहा था कि  नहीं हमें केंद्रीय बल नहीं चाहिए हमारी पुलिस पर्याप्त है लेकिन हमारी पार्टी की प्रांतीय इकाइयां इसकी मांग कर रही थीं। विधानसभा चुनावों में राजनैतिक दलों ने हर तरह की गड़बड़ी फैलाने का पूरा इंतजाम कर रखा था अब इससे बचने का एकमात्र उपाय केंद्रीय बलों को वहां भेजना था।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

once upon a time

कोलकाता से कानपुर आने पर लिखी गई कविताएं
काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम
जिसमें न होती ईष्र्या, न जलन, न द्वेष।
काश! मुझमें होता इतना साहस / कि
मैं तत्पर रहता/ तुम पर बलिदान हो जाने के लिए
काश! मैं प्यार करता / तुम्हारे अवगुणों को भी
मान कर चलता / तुम हो साक्षात सत्य की प्रतिमा /
विश्वास की प्रतीक।
तुम्हारे घात भी मुझे प्रिय होते /
तुम्हारी वफा की तरह।
काश! मैं तोड़कर अपना दंभ / पुरुष का अहम / परंपरा का अंधविश्वास
घुल मिल जाता तुमसे जैसे नीर और क्षीर।
तब और यकीनन तब ही / मैं हो पाता /
तुम्हारे प्रेम का अधिकारी /
कहना आसान है कि मैं हूं तुम्हारा प्रेमी
पर सब करते हैं ढोंग।
क्योंकि पुरुष नहीं कर सकता / कभी भी / स्त्री से प्रेम।
वह तो प्रेम करता है अपने दंभ से / अहम से /
और खुद की बनाई लीक से।
प्रेम की राह नहीं है आसान
तलवार की धार पर चलना है प्रेम / या आग के दरिया में
मोम के घोड़े पर बैठकर जाने जैसा है प्रेम।
प्रेम नहीं चाहता है कुछ पाना
वह तो है सब कुछ लुटाकर खत्म हो जाने का दूसरा नाम।
प्रेम करने के लिए मिटाना होगा / अपने दंभ को / अहम को
और पुरुष पुरातन विश्वास को
तब ही कर पाएगा कोई पुरुष प्रेम / जब खुद ही जी लेगा पुरुष
स्त्री का दिल, दिमाग और देह।
प्रेम नहीं है शब्दानुशासन /
नहीं बांध सकते उसे किसी मीटर में
प्रेम तो है एक ऐसी अकविता
जो भले न हो छंदबद्घ, लयबद्घ
पर इसमें रिदम है।
प्रेम है सतत प्रवाह / नदी की तरह
प्रेम की चाह यानी
फूट पडऩा उसके किनारों की तरह।
ध्वस्त कर देना सबकुछ।
अपना अहम, दंभ और विश्वास की परंपरा।
स्त्री में विलीन होकर, स्त्री बनकर ही
जिया जा सकता है स्त्री को
प्रेम करना / प्रेम पाना संभव है तभी
जब जीता है पुरुष
स्त्री की आत्मा और देह के साथ।
                कानपुर १/०८/०४

पिताजी की कविताएं

ये कविताएं पिता स्वर्गीय श्री राम किशोर शुक्ल द्वारा १९५७ से १९८७ के बीच लिखी गईं। इनका संकलन उनकी मृत्यु के बाद हो पाया।       

            ॥ १॥

आसौं भेऊ माघी मां भागे ना बचे हमरे परान,
पंडितऊ संघे हमहूं का तब जांय परा गंगा नहान।
हम उठेन भुकभुके चौदस का औ काटी दुइ पूरा कटिया,
सतुआ सहित अधारी मां हम डारी डोर अउर लुटिया।
कंाधे मां झ्वारा लटकावा औ नारायन का नाम लीन,
जग्गू पंडित के संघे तब हम कंपू का प्रस्थान कीन।
डब्बा मां भारी भीड़ रहाय सब भुरकुस भईं हड्डी पसुरी,
दुसरे दिना दुपहरी के हम पाईं गंगा परमेसुरी।
घाटेन मां जमघट जमा सब झुके रहांय जमनापारी,
कोऊ नदीगांव, कोऊ उरई, कोऊ बांदा औ कोऊ चरखारी।
हम ताका लुटिया का झंडा औ गयेन सनेही के घाटे,
कित्तेव हुन पहिले से डटे रहांय हम साथी हुन चंदन डाटे।
सिवदास मिसिर, बबुआ पांड़े, लूसन बापू औ पंडितजी,
भगवान दीन, मुखिया भैया, मुंशीजी औ मैकू दरजी।
भै राम-रमव्वल पालागन फिर छिड़ी चुनाये की चरचा,
हमहूं कुरता के खीसा मां ढूंढेन लागेन आपन परचा।
परचा तो भेऊ मिला नहीं पै हाथ निकरगा दुसरी लंग,
पन स्वाचा गंगौ के तीरे अब होन लाग हैं ईं लच्छन।
तहि लग पंडा चिल्लाय उठे सब जेब गांठ ते होसियार,
हम कहा कि सब तो दइ डारा अब केहि पर होई खबरदार।
तीन रुपय्या छह आना के भेऊ तो हमरे माथे गै,
फरसाकट बांदा की थैली औ नई सरौती साथैं गै।
याकैं बोले खद्दरधारी का घरै दाम रहि आये हैं,
या परिगे दुसरी थैली मा जो अबै ढूंढ़ नहिं पाये हैं।
हमका तो अइसा जान परै तुम झूठमूठ झुठलावत हौ,
घरई ते पइसा लइ न चलेव हम सब का वोट बनावत हौ।
सो लाग जरे मा नून अइस, हम देखत यहै बुढ़ाय गएन,
का अबकी नओ अनोखो है हम कित्तेव दांय नहाय गएन।
पै भेऊ यो राज कांगरेस का अब जउन ना होय तउन थोरा,
ईं रामराज के मारे ही बढ़ेन लाग चोरी चोरा।
नंगा बाढ़े, गुंडा बाढ़े अब भलेमंस का ठौर नहीं,
लुच्चा तो मजा उड़ाय रहै पै भूखेन के मुंह कौर नहीं।
जिनके घर तवा ना तात होत जे चलत रहंय ठेले ठेले,
ओई अब अइसा समय देख बन बइठ आज हैं एमेले।
तेहि ते तुम आपन काम करौ औ हमरे मुंहै लागौ ना,
नहिं साफै साफ सुनाइब हम ज्यादा मुंह खुलवाबौ ना।
पंडा बोले जजमान सुनौ बछिया तो याक पुजाय देव,
हम कहा कि सब तो दइ डारा अब बचा कोट उतराय लेव।
बस येही तलां झल्लाहट मा भेऊ हम असनान कीन,
औ टिकटौ के पइसा बचे नहीं तब पैदर गांव पयान कीन॥

            ॥  २ ॥

यहि मा ना मिली लैला मजनूं ना शीरीं और फरहाद मिली,
जो युग से आए हैं पिसते उनहिन की थोड़ी याद मिली।
मिलती ना रात की बात यहां ना सूरज चांद सितारे हैं,
ईं बातैं हैं उन पंचन की जो धरती मां को प्यारे हैं।
मिली न सुरा साकी हमको न पायल की झनकार सुनी,
हम तो हल के पीछे चलते उस हलधर की ललकार सुनी।
है चमक ना बेंदी की यहि मा ना दम दम दमक नगीना की,
है ठनक हथौड़े की ठन ठन औ बदबू बदन पसीना की।
हिन चूरिन केर खनक पहिऔ जब कटनी काट रहीं तिरियां,
औ बिछुअन केर झनक पहिओ जब लौट रहीं संझा बिरियां।
दुधमुंहे पिलौंधे बच्चन का र्ईं मेडऩ बीच सुअवती हैं,
फिर कटनी अउर निरउनी मा ईं मंद सुरन कुछ गवती हैं।
ईं बनदेबिन के बालक हैं वनदेव इन्हैं मल्हराय रहे,
खुल जाय न इनकै नींद कहूं पंछीगन लोरी गाय रहे।
ढल रहे बीजना पवनदेव वनदेव इन्हें मल्हराय रहे,
खुल जाय न इनकै नींद कहूं पंछीगन लोरी गाय रहे।
ईं परे घाम मा सूख रहै औ मुंह मा अउंठा हैं डारे,
इनका तुम छोटा ना जानेव ईं असल पउनियां हैं कारे।
येई धरती का साधे हैं औ टेके आसमान सारा,
इनहिन की लोहू का लागा ईं पापी महलन मा गारा।
पर फिर इनने करवट बदली रहि रहि के ईं जमुहाय रहे,
ओ तख्त नशीनों सावधान हम सोवत शेर जगाय रहे।
हम जगा रहे उन शेरन को जो बल अपने को हैं भूले,
उनका उईं का जाने पहिहैं जो मिथ्यागौरव मा हैं फूले।
मनई मनई का भेद जहां वो भेद भेद हम पार जाब,
मरि जाब अगर ईं रस्ता मा हम सातों पीढ़ी तार जाब।

            ॥ ३॥

या पटिया हमरे बाबा कै,
यहि की माटी के कन-कन मा है बाबा का पुरुषार्थ छिपा,
यहि की धूरी के अणु-अणु मा है बाबा का परमार्थ छिपा।
भारत मां के कोने-कोने मा उईं चारों धाम घूमि आए,
येही की होनी के बूते किरखी नाम खूब पाए।
फिर ऊंचे कुल के कनवजिया अपने घर मा बुलवाय लिहिन,
अपनी बिटियन के बियाहे मा मनमाना दाइज दइ डारेन।
ईं मय्या की ही किरपा ते करजा के कागद फारेगे,
हर सालै बाबा के घर मा बंभनन के पांव पखारेगे।
येही की दाया माया ते घर दूध पूत ते भरा रहै,
बरसन खात पुरान रहे औ नवा नाज कुल धरा रहै।
है सुघर सलोनी तन्वंगी म्याड़ै हैं मानों तीर बनी,
फिर कास कुसी को कौन कहै जारी का डटुला एक नहीं।
जब भीर परी बाबा ऊपर हारे पापी सब दावा कै,
या पटिया हमरे बाबा कै, या पटिया हमरे बाबा कै।
जब ओढ़ चुनरिया सरसों की फागुन मा देवी झूम उठै,
तब हमरे बाबा के मन मा खुशियन कै सुंदर धूम मचै।
सावन मा रानी सी दरसै भादौं मा महरानी समान,
औ क्वार महीना संन्यासिन जब कट कै आवैंं घरै धान।
बाबा हमरे की चिर संगिनि सुख-दुख मा आवै सदा काम,
हे अन्नपूर्णा चरनन मा सेवक करता शत-शत प्रणाम।
है लज्जा की तो बात बहुत सेवा मा दास नहिं रहि पावै,
इन टूटे-फूटे शबदन मा निज भाव व्यक्त नहिं कर पावै।
बाबा की परम धरोहर तुम कुलदेवी हमरी हौ मय्या,
हम भले बुरे जो कुछ भी हैं आखिर तो हैं तुम्हरे छैया।
या समुझि सदा हम पंचन कै अपराध छमा करियो देवी,
हम उनहिन के लरिका नाती जो रहे तुम्हारे पदसेवी।
कीरत तो गावा बहुत चही पै भाव व्यक्त नहिं पावा कै,
या पटिया हमरे बाबा कै, या पटिया हमरै बाबा कै।

            ॥ ४॥

जन ने बनाया बंधु तुमको जनार्दन है,
सोच यह उसको बनाना कभी दास ना।
शिव के समान  उर लाना भाव समता का,
ममता सभी में किंतु लाना नहीं वासना।
यद्यपि यती बने होगा न गुजारा राम,
जनता हित जुल्मी को मिटाना और फांसना।
सज्जन, सनेही, दीन, दुखिया, दरिद्र, छोड़
कायर, कुचाली, क्रूर, कपटी को फांसना

        ॥  ५॥

तुम्हें खुशी के गीत मुबारक हमें मसीहे गाने।
तुम सब समझदार हो साथी हम मूरख मस्ताने॥
शुभ्र, श्वेत, परिधान तुम्हारे सिर पर सुंदर टोपी।
और हमारे कटि प्रदेश में लपटी फटी लंगोटी॥
सभा भवन की शोभा तुम हो नित्य बुलावा आते।
कार, यान, तूफानमेल से नित्य कहीं तुम जाते॥
अलका सदा सशंकित रहती देख आपकी सत्ता।
वेतन से भी बढ़ जाता है मित्र आपका भत्ता॥
रितु अनुकूल कूल के ऊपर भवन बना है सुंदर।
देख जिसे ईष्र्या से जलते होते अगर पुरंदर॥
और हमारी पर्णकुटी भी है सौ छिद्रों वाली।
वर्षा रितु में रात-रात भर रोती है घरवाली॥
क्या वर्षा, क्या ग्रीष्म, शीत क्या हमें सभी में गम है।
अर्थ अभावों के चक्कर में मेरी नाकों दम है॥
तीन दिनों से चक्की चुप है चूल्हा नहीं जला है।
देशप्रेम के बदले हमको यह बरदान मिला है॥
मेरी तेरी क्या बराबरी कहां भोज कहां तेली।
जनता ने जयमाल गले में मित्र आपके मेली॥

            ॥  ६ ॥

शारदा सब के सदन भरो, हंसि चढि़ हिय में उतरि परो।
हमारे मन मानस को चीर गीत बन निकलें युग की पीर।
धीर उनको जो हुए अधीर, वीर को बने प्रेम शमशीर।
तोड़कर रुढि़वाद के फंद, मनु सुत हों सारे स्वछंद
चंद के गूंजें फिर से छंद, न पैदा हो अब से जयचंद।
दनुजता को मां वेगि हरो, शारदा सब के सदन भरो
श्रमिक को मिले समय से काम, सभी को हो आराम हराम।
बेवशी विवश पड़ी हो धाम, सुबह से भी सुंदर हो शाम।
देश के दुख दारिद्र हरो, शारदा सब के सदन भरो।
धरा में उतरे स्वर्ग महान, लगाकर कर्मठता सोपान।
न हो पापों का किंचित ज्ञान, हमारे कर्म बनें भगवान।
मातु बस इतनी कृपा करो, शारदा सबके सदन भरो।

            ॥  ६॥

मेरी उनसे अदावत है।
मनुज होकर मनुज का खून जो दिन रात पीते हैं,
से सदा दुखियों अनाथों के लिए जिनके भंडार रीते हैं,
कहें क्या उनको हम ज्यादा पशू से गए बीते हैं।

मेरी उनसे बगावत है।
बदी का काम नित करते मगर चंदन लगाते हैं,
सताते प्रभु के बंदों को मगर वंदन लगाते हैं।
सभी में नूर है उसका, यह हम सब को सिखाते हैं,
हरी का नाम तो लेते मगर हरिजन को सताते हैं।

मुझे बस उनसे नफरत है।
महकते फूल को जो पैर से नीचे कुचलते हैं,
किसी के द्वार पर जिनकेबुरे अरमां मचलते हैं।
खुशी से नन्हें मुन्नों को पिन्हाकर ब्याह की बेड़ी,
बड़े अंदाज से महफिल में जो घंटों उछलते हैं॥

मुझे उनसे शिकायत है।
भंवर में लाके किश्ती से पहिले कूद जाते हैं,
सहारा लेके जो बैठे वे सारे डूब जाते हैं।
किया वादा जो साहिल से वो तो भूल जाते हैं,
वतन पर आती जब अफत सनम हो दूर जाते हैं।

मेरी उनसे मुहब्बत है।
खिज़ां आती चमन में देखकर जो डर नहीं जाते,
बहारे बाग लाने में किसी के घर नहीं जाते।
सहारा पाके जिनकी बांह का वो बांह सोते हैं,
जो हरदम बेकसों के दर्द में हमदर्द होते हैं।

            ॥  ७॥

दशम जनवरी सोम दिन सन छांछठ की रात।
बना अमंगल देश हित मंगल का परभात॥
भारत मां की गोद का वेशकीमती लाल।
इक बत्तिस पर उड़ गया लाल बहादुर लाल।
ताशकंद की तुला में निज जीवन धन तोल।
विश्व हार में छा गया कोहनूर अनमोल॥
चकित जौहरी जगत के देख लाल की आब।
कीमत आंकी न गई रहे अंगुरिया दाब॥
हुआ नहीं है भी नहीं देखा सकल जहान।
विश्व वाटिका में खिला शास्त्री सुमन महान॥
यमुने तेरे तीर पर खोया मेरा वीर।
निश्छल तुलसी पत्र सम सागर सम गंभीर॥
            ॥  ८॥   

नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं।
नयी रोशनी है नए के उरों में, उमंगें नयी हैं नए अंकुरों में।
नयी प्रेरणा औ नए भाव लेकर, नयी रागिनी है सृजन के स्वरों में।
नयी जिंदगी में नए काम करने, खंडहरों में होकर मकां जा रहे हैं॥
नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥
              
        नयी पौध को अब मिलेगा सहारा, अधर्मी का होगा न अब से गुजारा।
        समय अभी है चेत जा रे मुसाफिर, समझदार को है काफी इशारा।
        नयी गांठ में है नए दाम इनके, नयी चीज लेने दुकां जा रहे हैं।
        नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥

नयी बात इनके अधर से निकलती, नयी चाल इनके पगों पर मचलती।
नयी क्रांति करने नए ढंग से फिर, नयी ज्वाल इनके हृदय से निकलती।
अभी भूल में जो पड़े हैं अचेतन, वही पास का धन गंवा जा रहे हैं।
नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥

        नए खून की है रगों में रवानी, नहीं देखते हैं नए आग पानी।
        नए के नयन भी नया स्वप्न लाने, नए लोक जाने की दिल में है ठानी॥
        किसी दिन धरा में धरा होगा चंदा, इसी की यह करने रवां जा रहे हैं।
        नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥

            ॥ ९ ॥   

चेहरा हत्यारों सा लगता गालों में गलमुच्चा,
बेटा यह जनरल अय्यूब है पाकिस्तानी लुच्चा।
इसने अपनी मां बहनों की इज्जत को है लूटा,
काश्मीर की मसजिद पर इस पापी का बम फूटा।
गिरिजाघर, गुरुद्वारे कहते इसकी क्रूर कहानी,
अस्पताल की गिरी दिवारें बतलाती शैतानी।
पाक रसूल इल अल्लाह हुक्म को काफिर ने न माना,
बेकस और अजीमों पर किए जुल्म मनमाना।
हरी भरी खेती को रौंदा खुद होकर भिखमंगा,
उमंग जेती की करे जो खुद भूखा नंगा॥
जिस धरती पर जन्म लिया जिस पर खेला खाया,
उसकी ही छाती पर छुपकर इसने छुरा चलाया।
जिसका पानी पीकर जिन्दा उसका लहू बहाने,
मजहब की ले आड़ हिन्द में शैतानी फैलाने।
पंजाबी शेरों के आगे दे-दे ताल बजावे,
बर्रे की छत्त पर मूरख ईंट पर ईंट चलावे।
जिस पुरु के पौरुष के आगे झुका महान सिकंदर,
उसको आंख दिखाने आया यह मजहबी कलंदर।

            ॥ १० ॥
तिलक का तेज औ गोखले का गौरव पाय,
गांधी की गरिमा से पूजी गई रानी है।
मालवीय मानस में बिराजी बनी बानी तुल्य,
नेहरू के नाहर की जीवत निशानी है॥
त्याग और अहिंसा की साक्षात मूर्ति बनी,
सेवा में विश्व बीच दूसरा न सानी है।
ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है।

        मोती सा मानिक यहां लूटा हाय मुफ्त गया,
        शेरे पंजाब तेरी कदऱ नहीं जानी है।
        भारत का भाल भालों से बेधा गया
        गालों पर रेंगाई भई उठती जवानी है।
        बाल, पाल, लाल कुल काल के अधीन पुर,
        बोस-घोष ने खाक घर-घर की छानी है।
        ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
        जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है।

सावरकर सरीखे मातु पैदा किए,
सिंधु का अथाह नीर जानता कहानी है।
होके नाशाद सब बिस्मिल आजाद गए,
किंतु आया नहीं आंख एक बूंद पानी है।
होते प्रकाश क्यों अंधेरा रहा भारत में,
रामचंद्र दानी और बिनोबा से ज्ञानी हैं।
ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है।

        पाकर देशरत्न किए देश ने अनेकों यत्न,
        काटी गयी बेड़ी पड़ी बरसों पुरानी है।
        धर नर देह यहीं आते हैं नरेंद्र देव,
        कीरत पताका विश्व बीच फहरानी है।
        धन्य धन्य भूमि है भारत की स्वर्णमयी,
        शायर सपूत सिंह शावक बियानी है,
        ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
        जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है॥


रविवार, 31 मार्च 2013


A PROTRAIT OF PRABHA KHAITAN

प्रभा खेतान ने गढ़ी थीं अपनी मान्यताएं
                शंभूनाथ शुक्ल
मैं जब जनसत्ता का स्थानीय संपादक होकर कोलकाता पहुंचा तो मुझे वहां प्रभाजी से मिलने की बड़ी तमन्ना थी। प्रभाजी यानी प्रभा खेतान। मारवाड़ी समाज में प्रभाजी की हैसियत पैसे के लिहाज से तो कोई बहुत ऊंची नहीं थी पर उन्होंने कलक त्ता के परंपरागत मारवाड़ी समाज केपुरुषवादी सोच को हिलाकर रख दिया था। एक ऐसी महिला से मिलने की प्रबल इच्छा होनी स्वाभाविक है। प्रभाजी से मिलकर उन तमाम मारवाडिय़ों के संपर्क में आ सका जिन्होंने इस समाज केभीतर रहकर उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन किए। संदीप भूतोडिय़ा, बसंत रूंगटा आदि। प्रभा खेतान एक साहित्यकार के रूप में भी कोई बहुत पढ़ी जाने वाली हस्ती नहीं थीं लेकिन साहित्यकार उनके  अर्दब में जरूर रहते थे। इसकी एक वजह तो यह थी कई साहित्यिक पत्रिकाओं को वह नियमित सहायता करती रहती थीं। कई बड़े लेखकों की साहित्यिक पुस्तकें  खरीद कर वह बंटवाती भी थीं। वे दर्शन की विद्वान थीं। सैमुअल हटिंग्टन की मशहूर पुस्तक क्लैश आफ सिविलीजेशन पर उनकी व्याख्या अद्भुत थी। वे एक सफल उद्यमी भी थीं। लेदर एक्सपोर्ट के अपने व्यापार में प्रभाजी मारवाड़ी समाज के अच्छे खासे उद्योगपतियों को पीछे छोड़ चुकी थीं। पर उन्हें इन सब के ऊपर जो चीज बैठाती थी वह थी मारवाड़ी समाज के अंतर्विरोधों से निरंतर उनका संघर्ष।
अपने समाज से बाहर निकलकर उससे लडऩा आसान है पर अपने समाज के अंदर रहकर उसकी विद्रूपताओं से लडऩा उतना ही मुश्किल। प्रभाजी ने मारवाड़ी समाज के  अंदर रह कर यह लड़ाई लड़ी। अन्या से अनन्या उनकी आत्मकथा है। इसमें अपने समाज और उससे भिडऩे की अपनी इच्छा के हर पहलू का विश्लेषण उन्होंने बड़ी बेबाकी से किया है। मारवाड़ी समाज में स्त्री की स्थिति दादी सती की उस कथा से पता चलती है जहां हर बेटी को उसकी मां पालने से ही सिखाना ही शुरू करती है कि बेटी तू अपने पति की हर स्थिति में सेवा करना और उसकेप्रति जीवन भर एकनिष्ठ बने रहना, भले तेरा पति कैसा भी हो। किसी पराए मर्द की तरफ आंख उठाकर देखना भी मारवाड़ी समाज में स्त्री के  च्युत हो जाने का प्रमाण माना जाता है। ऐसे समाज में प्रभाजी ने अपनी स्त्री अस्मिता को प्रमुखता दी। उन्होंने स्त्री के लिए वर्जित माने जाने वाले हर क्षेत्र में प्रवेश किया चाहे वह चमड़े का कारोबार हो या लेखन अथवा बगैर शादी कि ए किसी पुरुष केसाथ रहना और उससे पत्नित्व का हक मांगना, ये सारी बातें स्त्री के परंपरावादी स्वरूप से मेल नहीं खातीं। इसलिए मारवाड़ी समाज में वे अलग-थलग पड़ गईं। कोलकाता का मारवाड़ी समाज वहां अल्पसंख्यक मानसिकता से ग्रस्त है। बड़ा बाजार से आगे बस अलीपुर पहुंचना ही उसका मकसद रहता है। वहां के बंगाली समाज केसाथ कदम से कदम मिलाकर बढऩे की वह सोच भी नहीं पाता। हर अल्पसंख्यक समाज की तरह वहां का मारवाड़ी समाज में भी नैतिकता का अर्थ घर की बेटियों को घर की चारदीवारी नहीं लांघने देना है। पर प्रभा खेतान ने इस चारदीवारी को लांघने की जुर्रत की। मझोले मारवाड़ी समाज की बेटी कोलकाता के प्रतिष्ठिïत प्रेसीडेंसी कालेज में पढऩे की आज भी सोच नहीं सकती लेकिन प्रभा खेतान ने साठ केदशक में दर्शन शास्त्र से एमए वहीं से किया। उनके पहले उस कालेज में सिर्फ एक और मारवाड़ी महिला ने पढ़ाई की थी वे थीं निर्मला जालान, जो कि रिजर्ब बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालान की बहन थीं। लेकिन निर्मला जालान जहां संपन्न मारवाड़ी समाज से आती थीं वहींं प्रभाजी उनकी तुलना में साधारण हैसियत के परिवार की बेटी थीं।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

tiger conservation


घुमक्कड़ी और टूरिज्म
शंभूनाथ शुक्ल
घुमक्कड़ी और टूरिज्म में फर्क है। घुमक्कड़ी एक लगन है, एक जुनून और इसके लिए पैसों की जरूरत नहीं होती। लेकिन टूरिजम एक व्यवसाय है। एक घुमक्कड़ दुनिया घूमता है कुछ नया जानने के लिए और कुछ नया समझने के लिए। वह शांति पूर्वक, धैर्य के साथ कहीं भी किसी भी जगह रह लेगा और बसर कर लेगा। लेकिन एक पर्यटक बिना शोर शराबे के नहीं रह सकता। वह जहां जाएगा सबको बता देगा कि वह कुछ खास है। इस इलाके को उपकृत करने के मकसद से आया है। इसीलिए आप पाएंगे कि पर्यटन ने सारे संसार का नक्शा बिगाड़ दिया है। उसे भांति-भांति की शराब चाहिए, औरतें चाहिए और हर तरह के व्यंजन। बैंकाक हो, मकाऊ हो, मनीला हो या दुबई आज इसीलिए बदनाम हैं। लेकिन वहां की सरकारें इसे अच्छा समझती हैं।
यही हाल अपने देश में होता जा रहा है। पर राज्य सरकारें पैसों के लालच में पर्यटकों को लुभाने के लिए वह सब करती हैं जिनसे वहां की जलवायु प्रभावित होती है और संस्कृति का ढंाचा बिगड़ता है। आज अगर जगह-जगह परदेसियों को बाहर करने की मांग उठ रही है उसकेपीछे यही मानसिकता है। पर्यटक दक्षिण भारत में जाकर मटर पनीर अथवा दाल मखानी या तंदूरी चिकन की मांग करेगा और उत्तर में आकर डोसा, वड़ा एवं इडली मांगेगा। उसे  समझ में नहींं आता कि  अपनी इस तरह की हरकत से वो बायो डायवर्सिटी को चौपट कर रहा है।
हमारे देश में बाघों को बचाने के लिए टाइगर प्रोजेक्ट की स्थापना उस समय की प्रधानमंत्री   इंदिरा गांधी ने १९७१ में कपूरथला के महाराजा ब्रजेंद्र सिंह की अगुआई में की थी। उसे राज्य सरकारों ने पैसों के लालच में चौपट कर डाला है। जिम कार्बेट जैसे अभयारण्य इन्हीं पर्यटकों की बेशुमार आवाजाही से खत्म होता जा रहा है। यदि जिम कार्बेट को बचाना है तो केंद्र सरकार इसे अपने हाथों में ले लेे और इसे अफसरों की बीवियों और धनाढ्य पर्यटकों केलिए सैरगाह न बनाए। यहां वही आ सकें जिनकी वाइल्ड लाइफ में दिलचस्पी हो वर्ना उन्हें गेट से ही बाहर कर दिया जाए। इसके लिए जिम कार्बेट के हर प्रवेश द्वार पर सुशिक्षित और प्रशिक्षित लोग रहें जो पर्यटकों को अंदर प्रवेश की अनुमति तभी दें जब वे खुद उनके संयम से संतुष्ट हो जाएं। दुख है कि उत्तराखंड की सरकार जिम कार्बेट का व्यवसायीकरण करे डाल रही है। इस पर अंकुश बहुत जरूरी है।
अभी पिछली २५ दिसंबर को मेरा सपरिवार जिम कार्बेट जाने का कार्यक्रम बना। जिम कार्बेट के बारे में पहले मैने अपने परिवार को पूरी जानकारी दी। हिमालय की तराई में शिवालिक पहाडिय़ों के आसपास का सारा जंगल रामगंगा के दोनों तरफ लंबी-लंबी घास के जंगलों से घिरा है। इन्हीं घास के जंगलों में बाघ रहता है। सूर्य की रोशनी उसके शरीर में लंबी घास के बीच में से आती है। इसीलिए बाघ के शरीर में चारों तरफ लाइनें होती हैं। जबकि तेंदुआ सागौन के पेड़ों के ऊपर रहता है इसीलिए पत्तों के बीच से छनकर आई रोशनी उसे मिलती है। उसके बदन पर चित्तियां होती हैं। जंगल के कुछ कायदे-कानून होते हैं उन्हें हमें फालो करना चाहिए। किसी भी अभयारण्य में हथियार लेकर अथवा कोई मादक पदार्थ लेकर नहीं जा सकते। अभयारण्य का मतलब ही है कि हम वाइल्ड लाइफ के बीच जा रहे हैं। यह उनका घर है इसलिए हमें उनकी सुविधा असुविधा का ख्याल रखना चाहिए। हम वहां जंगल में गेस्ट हाउस के बाहर कुछ खाएं पिएंगे नहीं। कोई पोलीथीन नहीं इस्तेमाल करेेंगे और कोई चीज फेकेंगे नहीं न ही हम वहां शोर शराबा अथवा मोबाइल इस्तेमाल करेंगे।
हम तो खैर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के अमानगढ़ के फारेस्ट रेस्ट हाउस में रुके। अमानगढ़ को अब एटीआर यानी अमानगढ़ टाइगर रिजर्व का दरजा मिल गया है। हम तड़के वहां से जंगल की ट्रैकिंग को निकले। मेरे परिवार ने सारे कानून कायदों का पालन किया। लेकिन मैने पाया कि बगल के जिम कार्बेट अभयारण्य में गाडिय़ों की आवाजाही, पर्यटकों का धूम धड़ाका इतना अधिक था कि वहां कोई भी जानवर रह ही नहंी सकता। पर उत्तराखंड की सरकार ने आज तक किसी पर्यटक को नहीं रोका।                              
यहीं हाल लगभग हर रिजर्ब फारेस्ट या अभयारण्य का है। उन्हें बस धनीमानी लोगों के उपभोग का अड्डा बना दिया गया है। यहां तक कि शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान में तो अब एक भी जंगली जानवर नहीं बचा है। वहां की झील के मगरों का शिकार होता है। राजाजी नेशनल पार्क को हाथी तस्करों और सागौन माफियाओं ने खत्म कर दिया है।

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

लालडोरे से घिरी जातीय पंचायतें

शंभूनाथ शुक्ल
मेरी पत्नी और मैं दोनों भारद्वाज गोत्र के हैं। हमारी शादी को ३६ साल बीत चुके हैं पर अब तक सामान्य बातों को छोड़ दिया जाए तो न तो कभी परस्पर कोई झगड़ा हुआ न ही समगोत्री होने के कारण हमारे बच्चों को किसी तरह की जेनेटिक बीमारियों से जूझना पड़ा। शादी हमारे परिवारों की मर्जी से हुई थी तब किसी ने न तो कुंडली मिलवाई थी न ही हमारा परिवार किसी तरह के ज्योतिषीय विकारों के चक्कर में पड़ा था। उस वक्त तक साधारण मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की जन्म कुंडली बनवाने का भी चलन नहीं हुआ करता था सो मेरी पत्नी की भी कोई जन्म कुंडली नहीं बनी थी। शादी से पहले पत्नी से मेरी कोई जान पहचान भी नहीं थी। समानता सिर्फ इतनी थी कि हमारा कालेज एक ही था। वे कानपुर के वीएसएसडी कालेज में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थीं और मैं वहां की छात्र राजनीत से जुड़ा था। शादी के लिए मेरे दादा का जोर था क्योंकि  उनके मुताबिक मैं कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करके पथभ्रष्ट होता जा रहा था।
ऐसा नहीं कि उस समय गोत्र, जाति और ग्रह नक्षत्र मिलाने का चलन नहीं था लेकिन उस पर इतना जोर नहीं हुआ करता था कि अच्छी खासी हो रही शादी ही तोड़ दी जाए। आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कितनी ही शादियां महज इसलिए नहीं हो पा रही हैं क्योंकि लड़का लड़की दोनों ही समगोत्री हैं। परंपरागत विश्वास साइंस नहीं है। संभव है भारत के खेतिहर समाज में लड़की को गांव के बाहर भेजने की सोच ने इस परंपरा को जन्म दिया हो। एक लंबे समय तक  भारत गांवों पर आश्रित रहा है। अब अगर लड़का लड़की एक ही गांव में शादी कर लेंगे तो सामाजिक दायरा सिमटता चला जाएगा इसलिए गोत्र यानी गांव के बाहर शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ होगा। वैदिक कालीन समाज में एक ही आश्रम में रहने वाले लोग एक ही गोत्र के कहलाते थे। यानी एक तरह से पूरा गांव एक आश्रम ही होता था। इसीलिए गोत्र से बाहर शादी करने की परंपरा शुरू हुई। लेकिन जैसे जैसे समाज का स्वरूप बदलता गया यह आग्रह टूटता गया। आज एक एक गोत्र के लोगों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि समगोत्री लोगों में किसी भी तरह की पुरानी पारिवारिकता को ढूंढऩा बेमानी है।
गांवों में दो तरह की पंचायतें होती हैं। एक गांव पंचायत जो विधि सम्मत है और जिसके पदाधिकारी चुने जाते हैं। दूसरी जातीय पंचायतें जो अभी तक पुराने सामाजिक चौधरियों के बूते चल रही हैं। जातीय पंचायतें देश के किसी भी विधि विधान के दायरे में नहीं हैं, वे सामाजिक विश्वासों के बूते चल रही हैं। उनके फैसले पुराने कबीलाई समाज के फैसलों की तरह होते हैं। मानवीय गरिमा से ज्यादा महत्व उनके लिए कबीले के परंपरागत विश्वास और अलिखित कानून हैं। मसलन किसी का सामाजिक बहिष्कार या किसी का सिर मुंड़वा देना अथवा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के दोषी व्यक्ति को पीडि़ता से शादी कर लेने का हुक्म देकर बरी कर देना जैसे फैसले ये पंचायतें देती रहती हैं। इसमें सजा की नरमाई अथवा कड़ाई व्यक्ति के अपराध से नहींं उसकी हैसियत से तय होती है। आज के समय में इन पंचायतों का कोई मतलब रह भी नहीं गया है।
जातीय पंचायतें एक जाति अथवा समुदाय की लड़ाई लड़ती हैं जबकि हमारा संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कटिबद्घ है। कोई किससे शादी करे अथवा कौन सा व्यवसाय चुने या किस दल को वोट दे, ईश्वर पर विश्वास करे या न करे, ईश्वरवादी हो तो किस धर्म में जाए यह उस व्यक्ति के अपने विवेक और सुविधा से तय होगा न कि समाज केे बंधन से। कोई पंचायत या जातियों के मुखिया उसे इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते कि जो हमारा आदेश है वही मानो। मजे की बात तो एक तरफ तो हमारा समाज इतना उदार है कि वह खुद आगे बढ़कर घोषणा करता है कि पुरानी लीक को तोडऩा ही बेहतर है क्योंकि नया काम वही करते हैं जो लीक को तोड़ते हैं दूसरी तरफ ये जातीय पंचायतें पुराने ढर्रे पर चलती हुई लीक को पीटती रहती हैं।
इन पंचायतों का पुराने समय में क्या स्वरूप था इसे लेकर प्रेमचंद और रेणु ने दो अलग-अलग कहानियां लिखी हैं। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर में गांव की एक ऐसी पंचायत का जिक्र है जिसमें बैठते ही जुम्मन शेख अलगू चौधरी के साथ अपनी वर्षों की दुश्मनी को भूल जाते हैं और अपने दुश्मन चौधरी के हक में फैसला देते हैं। वहीं फणीश्वर नाथ रेणु की पंच लाइट में कुर्मियों की एक पंचायत किसी तरह पैसा उगाह कर एक पेट्रोमैक्स खरीदती है। पेट्रोमैक्स कुर्मी पंचायत की जरूरत से ज्यादा उसके जातीय गुरूर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस पेट्रोमैक्स को लाने के बाद इसको जलाने के पहले उसकी पूजा की जाती है और छड़ीदार को सख्त हिदायत है कि पेट्रोमैक्स को बहुत आहिस्ता से लया ले जाया जाए। एक तरह से यह जातीय अस्मिता के झूठे और थोथे अभिमान की कहानी है। एक पेट्रोमैक्स को प्रतीक बनाकर रेणु ने लिखा है कि कैसे जातीय पंचायतें अपनी तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए फिजूल की ड्रामेबाजी करती हैं। आज जब प्रेम के ऊपर जाति के पहरेदार बिठा दिए गए हैं तो रेणु की कहानी एकदम से समीचीन हो उठती है।
लोकतंत्र में गांव की पंचायतों की जरूरत तो हो सकती है लेकिन जातीय पंचायतें अब गैर जरूरी हो गई हैं। अंग्रेजों ने शहरों के विस्तार के लिए तमाम गांवों का औपनिवेशीकरण कर डाला था। उन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से शहरों को फैलाया और गांवों को उनकी खोल में ही रहने दिया। लाल डोरा की अवधारणा अंग्रेजों ने इसी हिसाब से बनाई थी। दिल्ली को राजधानी चुनते वक्त अंग्रेजों के समक्ष सबसे बड़ी परेशानी दिल्ली के विस्तार की थी। दिल्ली के गंावों को चिन्हित कर अंग्रजों ने सबसे पहले नक्शे में गांवों को एक लाल रंग से घेर दिया और उनकी सारी खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण कर लिया। अंग्रजों के पूरे मास्टर प्लान से दिल्ली के गांव गायब रहे। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली शहर तो फैला लेकिन इसके गांव जस के तस बने रहे। दिल्ली में लाल डोरा आज भी हैं। आजादी के बाद आई सरकारों ने भी विकास के लिए वही अंग्रेजों वाला औपनिवेशिक ढांचा अपना लिया। इसी का नतीजा है कि शहर तो फैल रहे हैं लेकिन न गांव बदल  रहे हैं न वहां के लोगों के सोचने का नजरिया। ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि जाति का दंभ पाले ये पंचायतें नए विचारों के अनुरूप अपने को ढाल पाएंगी।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम

काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम
जिसमें न होती ईष्र्या, न जलन, न द्वेष।
काश! मुझमें होता इतना साहस / कि
मैं तत्पर रहता/ तुम पर बलिदान हो जाने के लिए
काश! मैं प्यार करता / तुम्हारे अवगुणों को भी
मान कर चलता / तुम हो साक्षात सत्य की प्रतिमा /
विश्वास की प्रतीक।
तुम्हारे घात भी मुझे प्रिय होते /
तुम्हारी वफा की तरह।
काश! मैं तोड़कर अपना दंभ / पुरुष का अहम / परंपरा का अंधविश्वास
घुल मिल जाता तुमसे जैसे नीर और क्षीर।
तब और यकीनन तब ही / मैं हो पाता /
तुम्हारे प्रेम का अधिकारी / प्रेम प्रपासु।
कहना आसान है कि मैं हूं तुम्हारा प्रेमी
पर सब करते हैं ढोंग।
क्योंकि पुरुष नहीं कर सकता / कभी भी / स्त्री से प्रेम।
वह तो प्रेम करता है अपने दंभ से / अहम से /
और खुद की बनाई लीक से।
प्रेम की राह नहीं है आसान
तलवार की धार पर चलना है प्रेम / या आग के दरिया में
मोम के घोड़े पर बैठकर जाने जैसा है प्रेम।
प्रेम नहीं चाहता है कुछ पाना
वह तो है सब कुछ लुटाकर खत्म हो जाने का दूसरा नाम।
प्रेम करने के लिए मिटाना होगा / अपने दंभ को / अहम को
और पुरुष पुरातन विश्वास को
तब ही कर पाएगा कोई पुरुष प्रेम / जब खुद ही जी लेगा पुरुष
स्त्री का दिल, दिमाग और देह।
प्रेम नहीं है शब्दानुशासन /
नहीं बांध सकते उसे किसी मीटर में
प्रेम तो है एक ऐसी अकविता
जो भले न हो छंदबद्घ, लयबद्घ
पर इसमें रिदम है।
प्रेम है सतत प्रवाह / नदी की तरह
प्रेम की चाह यानी
फूट पडऩा उसके किनारों की तरह।
ध्वस्त कर देना सबकुछ।
अपना अहम, दंभ और विश्वास की परंपरा।
स्त्री में विलीन होकर, स्त्री बनकर ही
जिया जा सकता है स्त्री को
प्रेम करना / प्रेम पाना संभव है तभी
जब जीता है पुरुष
स्त्री की आत्मा और देह के साथ।
    कानपुर १/०८/०४