सोमवार, 10 दिसंबर 2012

आपत्तिकाले मर्यादानास्ति


शंभूनाथ शुक्ल

पिछले दिनों एक जरूरी काम से मुझे फैजाबाद जाना पड़ा। काम तो वहां पहुंचने के कुछ ही समय बाद पूरा हो गया पर मेरी वापसी की ट्रेन टिकट अगले रोज शाम की थी। करीब-करीब पूरे दो दिन मेरे पास थे और फैजाबाद में दो दिन बिताना बड़ा ही बोरिंग था। छोटा सा शहर ऊपर से वहां के होटल भी माशाअल्लाह बस दड़बे जैसे। फैजाबाद चूंकि पुरानी कमिश्नरी है इसलिए यहां का सर्किट हाउस बहुत सुंदर बना हुआ है। लेकिन अयोध्या फैसले के आसन्न संकट के कारण राज्य के गृह विभाग का पूरा अमला फैजाबाद में डटा हुआ था इसलिए सर्किट हाउस में सारे सूट भरे हुए थे। अब दो ही रास्ते थे या तो मैं सड़क मार्ग से लखनऊ जाकर वहां से दिल्ली के लिए कोई अन्य ट्रेन पकड़ूं या पास के कस्बे अयोध्या में दो दिन गुजारूं। मुझे अयोध्या जाना ही रुचिकर लगा। मेरी धर्म-कर्म में कोई आस्था नहीं है, ईश्वर मुझे अज्ञान का पर्यायलगता है। पर अयोध्या जाने, घूमने और उसे समझने की मेरी प्रबल इच्छा रही है। मेरी निजी तौर पर देशों की सभ्यता, संस्कृति और उनके उत्सवों को जानने में बड़ी दिलचस्पी रहती है। ऐसे शहर जहां लाखों की संख्या में लोग बिना किसी लाभ के जुटते हों वहां के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक है। फिर अयोध्या तो देश की सबसे प्राचीन पुरियों में से एक  है। ईसा पूर्व दो सहस्त्राब्दियों तक इसका इतिहास मिलता है। वैदिक, जैन और बौद्घ आदि सभी पंथों की पुरानी किताबों में इसका वर्णन है। अयोध्या जिसे अवधपुरी और साकेत के नाम से भी जाना जाता है, में देश की नागर सभ्यता सबसे पहले फैली। यही वह शहर है जहां से विभिन्न गणों या कबीलों के टॉटमों के बीच एकता की पहल शुरू हुई। देखा जाए तो खुद फैजाबाद शहर भी अयोध्या का विस्तार ही है। १८वीं सदी की शुरुआत में नवाब सफदरजंग ने जब फैजाबाद को नए अवध सुल्तानेट की राजधानी बनाई तो उसके दिमाग में प्राचीन नगर अयोध्या के समीप बसने की इच्छा रही थी या नहीं, यह तो मैं कह सकता लेकिन इतना जरूर तय है कि अवध सुल्तानेट का अयोध्या से पक्का जुड़ाव है। अवध गंगा-जमना के मैदान का सबसे उपजाऊ भूभाग है। इस पूरे इलाके में बंजर जमीन कहीं भी नहीं मिलती। गर्मी हो या सर्दी अथवा बरसात यहां जमीन का चप्पा-चप्पा हरा-भरा रहता है। परंपरागत तीनों फसलें, गन्ना, दलहन व तिलहन की खेती यहां खूब होती है। दस फीट की गहराई पर पानी का मिल जाना यहां बहुत आम है। अनगिनत छोटी बड़ी नदियों ने इस पूरे क्षेत्र को शस्य श्यामला बना दिया है। लेकिन हिमालय की तलहटी के समीप आबाद इस अवध में जमीन जितनी ही उपजाऊ है वहां के बाशिंदे उतने ही गरीब और लाचार। अवध के इस इलाके के गांवों में लंबे चौड़े और खूब स्वस्थ लोग नहीं मिलते। यहां मर्दों की औसत लंबाई साढ़े पांच फुट तथा औरतों की पौने पांच फुट से ज्यादा नहीं है। 
मुझे पहले ही बता दिया गया था कि अयोध्या में होटल नहीं हैं अलबत्ता धर्मशालाएं हर गली व नुक्कड़ में हैं। इसके अलावा विभिन्न मठों के आश्रम और धर्मादा संस्थाओं के भवन भी खूब हैं। यहां की धर्मशालाओं में एसी रूम भी उपलब्ध हैं तथा आश्रम व भवनों के सूट तो किसी भी स्टार होटल के लक्जरी कमरों को मात देते हैं। कानपुर, वाराणसी, गोरखपुर आदि शहरों के व्यवसायियों द्वारा बनवाए गए ये भवन सारी आधुनिक सुख सुविधाओं से लैस हैं। हर सूट में दो बेडरूम, सुसज्जित ड्राइंगरूम और किचेन भी है। एक-एक फुट तक धंस जाने वाले लेदर के सोफे, आला दरजे के बेड तथा कांच की टॉप वाली उम्दा डाइनिंग टेबल, दीवालों पर लगे एलसीडी टीवी, इंटरकाम तथा हर कमरे में एसी फिट हैं। दरअसल अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद की दखल के बाद व्यवसायियों ने यहां खूब इनवेस्ट किया लेकिन बेचारे पैसा लगाकर फंस गए क्योंकि रिटर्न कुछ नहीं मिला। अब यही व्यवसायी हर साल सावन के महीने में सपरिवार यहां आकर रहते हैं। इसीलिए इन भवनों में घर जैसा माहौल जरूर मिलने लगा है। ऐसे ही एक भवन में मेरा इंतजाम हो गया। जरूरत मुझे बस एक कमरे की थी पर यहां तो जो सूट मिला उसमें तीन कमरे अटैच्ड थे। मैने बाकी के कमरे खुलवाए तक नहीं सिर्फ एक बेडरूम में कुछ देर आराम किया और फिर अयोध्या घूमने का प्रोग्राम बनाया।
अयोध्या बहुत ही छोटा कस्बा है मुश्किल से दो किमी की लंबाई चौड़ाई में बसा। मंदिरों, मठों और धर्मशालाओं के अतिरिक्त यहां कुछ है भी नहीं। सकरी और ऊँची-नीची गलियां और दोनों तरफ बने मकान जो लखौरी ईटों से बने हुए हैं। मंदिर, मठ और मकान कोई भी इमारत मुझे वहां सौ-सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं दिखी। मंदिरों और मठों का अगवाड़ा तो खूब रंगा पुता दिखा लेकिन पिछवाड़े की दीवालों पर बुरी तरह काई लगी हुई थी। गलियों में कतार से मिठाई की दूकानें जरूर दिखती हैं जिनमें बस बेसन के लड्डू, जलेबी, समोसे और चाय ही मिलती है। इक्का-दुक्का दूकानों में अंकल चिप्स, बिस्किट व नमकीन के पैकेट भी बिकते दिखे। पूरे कस्बे में सिर्फ एक दूकान पर मेडिकल स्टोर लिखा था जहां आयुर्वेद, एलोपैथी और होम्योपैथी की दवाएं एक साथ मिलती थीं। अयोध्या में पैदल चलना ही बेहतर रहता है क्योंकि रिक्शे यहां हैं नहीं और गाड़ी को इन गलियों से गुजारते हुए ले जाना किसी नट के करतब जैसा लगता है। हालांकि अयोध्या में भीड़ कहीं भी नहीं दिखी। ज्यादातर मंदिरों में सन्नाटा था। सिवाय पुलिस और अर्धसैनिक बलों की आवाजाही के और कहीं कोई चहल पहल नहीं। मंदिरों में पुजारी मशीनी तरीके से प्रसाद को मूर्तियों के ऊपर फेंकते रहते हैं। उनकी उदासीन मुद्रा देखकर लगता ही नहीं कि यहां किसी को मंदिरों को बनाए रखने में दिलचस्पी है। मठों के बाहर बैरागी साधुओं के जत्थे माथे पर वैष्णवी तिलक लगाए सुमिरिनी फिराते रहते हैं। दुबले पतले इन बैरागियों को देखकर लगता है कि जैसे ये घर से भगा दिए गए हों और बाकी की उमर काटने के लिए इन्होंने अयोध्या की पनाह ली हुई है। हर आदमी का कद छोटा और पीठ पर कूबड़ निकला हुआ। मुझे इन कुबड़े पुजारियों, बैरागी साधुओं और लोकल लोगों को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। कई लोगों से इसकी वजह जानने की कोशिश भी की लेकिन कोई भी ठीक से जवाब नहीं दे पाया। कुछ ने बताया कि यहां का पानी खराब है तो कुछ के मुताबिक अयोध्या के लोगों को सीताजी ने श्राप दिया था कि जैसे यहां के लोगों ने उन्हें कष्ट दिया है वैसे ही यहां के लोग भी कभी खुश नहीं रह पाएंगे। लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि यहां के लोगों की कम लंबाई और कूबड़े होने की वजह यहां के पानी का खारा होना तथा यहां के खानपान में खट्टी चीजों का प्राधान्य है। आम और इमली का सेवन यहां के लोग सुबह शाम के भोजन में जरूर करते हैं। इमली आयुर्वेद में त्वचा और हड्डियों के लिए बहुत नुकसानदेह बताई गई है।
अयोध्या के उस विवादित परिसर में भी मैं गया जहां छह दिसंबर १९९२ को विश्व हिंदू परिषद के कारसेवकों ने वहां बनी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था। कहा जाता है कि १५२८ में इस मस्जिद को बाबर के सेनापति मीर बाकी ने वहां बने राम जन्मस्थान मंदिर को गिरवाकर बनवाया था। पर बाबरी मस्जिद के साथ बाबर का नाम क्यों जोड़ा गया, इसके सबूत नहीं मिलते। १५२६ में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के तत्कालीन शासक सिकंदर लोदी को हराया था। इसके बाद वह आगरा की तरफ चला गया। बाबर के अवध जाने या अवध की किसी लड़ाई में उसके शरीक होने का भी जिक्र कहीं नहीं मिलती। हिंदुस्तान मेें उसने आखिरी लड़ाई कन्नौज में अफगानों से लड़ी थी। बाबरनामा में अयोध्या में राम जन्मस्थान मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाने का जिक्र नहीं है जबकि चंदेरी में मंदिर तोड़े जाने का उल्लेख है। मस्जिद बनने के करीब साढ़े तीन सौ साल बाद एक विवाद शुरू हुआ कि  यह मस्जिद, जिसे तब मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहा जाता था, उसी जगह बनी है जहां भगवान राम का जन्म हुआ था और मस्जिद यहां बने राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। मजे की बात कि किसी भी ङ्क्षहदू धर्मगंथ में ऐसे किसी मंदिर का जिक्र नहीं है। वाल्मीकि रामायण तक तो खैर उत्तर भारत में किसी भी तरह के मंदिर बने होने का उल्लेख ही हिंदू ग्रंथों में नहीं मिलता। तुलसी ने भी अयोध्या में ऐसे किसी मंदिर के होने का जिक्रनहीं किया है।
मस्जिद-ए-जन्मस्थान की खासियत यह थी कि इस मस्जिद में इस्लामी स्थापत्य की बजाय देसी स्थापत्य ज्यादा दिखाई देता था। यूं भी हिंदुस्तान में तब तक दो तरह की मस्जिदें थीं। एक  जिनका स्थापत्य एकदम देसी थी यानी उनका गुंबद शिवाले की शक्ल का होता था तब इन मस्जिदों में मीनारें नहीं होती थीं। ऐसी मस्जिदें जौनपुर के शर्की साम्राज्य ने बनवाई थीं दूसरी तरह की वे मस्जिदें जिनमें गुबद के अतिरिक्त मीनारें भी होती थीं। दिल्ली की जामा मस्जिद, आगरा का ताज महल आदि ऐसी ही इमारतों में से हैं। देसी स्थापत्य के आधार पर बनी यह मस्जिद इतनी भव्य और विशाल थी कि पूरे अवध में इससे बड़ी कोई मस्जिद नहीं रही थी। लेकिन इस मस्जिद को लेकर मुस्लिम समाज में कोई आस्था नहीं थी। इसमें नमाज अता करने या नियमित तौर पर यहां किसी इमाम के रहने के भी सबूत नहीं मिले हैं। मस्जिद के विशाल प्रांगण में एक कुआं था जिसका पानी पूरी अयोध्या में सबसे मीठा था। हिंदू इसे रामजी का प्रसाद बोलते तो मुसलमान आब-ए-खुदा। दोनों ही समुदाय के लोग इसका पानी इस्तेमाल करते थे। यहां हर साल एक मेला लगता था जिसमें हिंदू मुसलमान दोनों ही आते थे। इस मस्जिद पर हिंदू दावेदारी अवध के नवाब वाजिदअली शाह के वक्त में १८५३ में शुरू हुई जब निर्मोही अखाड़े ने इस मस्जिद में पूजा अर्चना करने की अनुमति मांगी। इसके बाद १८८३ में बाबा राघोदास ने फैजाबाद के सब जज के यहां अपील दायर की कि यह मस्जिद भगवान राम के जन्म स्थान के मंदिर को तोड़कर बनवाई गई है इसलिए इसे वापस कर दिया जाए। इसी तरह बाबरी मस्जिद भी कोई उल्लेखनीय इमारत नहीं थी। अयोध्या में तो खैर मुस्लिम आबादी न के बराबर है लेकिन फैजाबाद में जब नवाबों का शासन था तब भी इस मस्जिद की ऐतिहासिकता अथवा इसके वजूद को लेकर कभी मुस्लिम समाज ने गर्व किया हो या नमाज अता की हो ऐसा कोई उल्लेख भी नहीं है। लेकिन इसका विवाद इतना भयानक चला कि  पहले अंग्रेज सरकार इसे तूल देती रही और आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार ने भी इसे हरा बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। १९४९ में यहां भगवान राम के प्राकट्य का एक ड्रामा खूब चला और फैजाबाद के तत्कालीन जिला मजिस्टे्रट आरके नैयर तथा सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर सुखदेव सिंह ने उस अफीमची हेड कांस्टेबल की कहानी को सच माना जिसने आधी रात को यहंा भगवान राम को जन्मते देखा था। जिला मजिस्ट्रेट ने मस्जिद में ताला लगवा दिया। १९८५ में केंद्र की राजीव गांधी सरकार के वक्त यहां का ताला खुला। इसके बाद तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक ङ्क्षसघल तथा भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने इस विवाद को इस कदर बढ़ा दिया कि इसी के सहारे भारतीय जनता पार्टी ने पहले उत्तर प्रदेश में और फिर केंद्र में अपनी सरकार बना ली। बाबरी मस्जिद ढहा दी गई लेकिन इससे न तो अयोध्या का भला हुआ न ही अयोध्या के ईष्ट भगवान राम का। बाबरी मस्जिद के स्थान पर अब एक टेंट लगाकर रामलला की मूर्तियां स्थापित की गई हैं और इस टेंट की सुरक्षा के लिए केंद और राज्य सरकार हर महीने करोड़ों रुपया खर्च करती है। सीआरपी, पीएसी और उत्तर प्रदेश पुलिस के हजारों जवान यहां तैनात हैं। पर इनमें से किसी को भी रामलला की इन मूर्तियों से न तो लगाव है न ही उन पर तनिक भी आस्था। जिस किसी जवान की ड्यूटी अयोध्या में लगाई जाती है उसकी पूरी कोशिश यहां से कहीं और तबादला कराने की रहती है। ऐसा नहीं कि यहां बहुत खतरा है या यहां का मौसम उन्हें सूट नहीं करता बल्कि इसलिए कि यहां किसी तरह की कोई भी ऊपरी आमदनी नहीं है। पुलिस में आदमी किसी रामलला या बाल कृष्ण की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए तो भरती होता नहीं उसे तो पोस्टिंग ऐसी जगह चाहिए होती है जहां ऊपरी आमदनी का जरिया हो। अलबत्ता उसे किसी नेता की सुरक्षा में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि नेता सत्ता में आया तो उसकी सुरक्षा में लगे जवानों को भी सत्ता की थोड़ी बहुत मलाई तो मिल ही जाती है। इसलिए जितने भी पुलिस वाले यहां दिखे वे सब बेहद चिड़चिड़े, शक्की तथा खब्ती हैं। हर आने जाने वाले को ऐसी चुभती निगाह से देखते हैं मानो वह तीर्थयात्री नहीं कोई आतंकवादी हो। मोबाइल, पेन, पर्स, बेल्ट सब परिसर के बाहर छोड़कर आओ तब इस परिसर में प्रवेश मिलेगा। अब बेचारा यात्री अपनी ये कीमती चीजें कहां छोड़े और किसके भरोसे छोड़े इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। पर यहां एक चीज मुझे अच्छी लगी वह थी परिसर में जूते पहनकर जाने की आजादी। मुझे नंगे पांव चलने में दिक्कत होती है इसलिए आमतौर पर मंदिरों में मैं या तो जाता नहीं या फिर बहुत मोटे सूत के मोजे पहनकर ही। 
रामलला के दर्शन के बाद मुझे बताया गया कि यहां कनक भवन और हनुमान गढ़ी के मंदिर भी देखने चाहिए। कनक भवन के बारे में मान्यता है कि सीताजी जब ब्याह कर ससुराल आईं तो उनको मँुहदिखाई के रूप में राजा दशरथ ने उन्हें यह महल भेंट किया था। अब इसकी कितनी ऐतिहासिकता है यह तो किसी को नहीं मालूम लेकिन मौजूदा कनक भवन ओरछा नरेश मधुकर शाह देव का बनाया हुआ है और इसके पैट्रन बॉडी में उनके वारिसों का नाम आज भी दर्ज है। कनक भवन काफी भव्य और विशाल है। कई सीढिय़ों को चढऩे के बाद एक  विशाल दरवाजे से इस भवन में आप प्रवेश करते हैं। दरवाजे से घुसते ही एक खूब बड़े आंगन को पार करना पड़ता है। इसके ठीक सामने गर्भगृह परिसर है जिसमें सीता और उनकी शेष तीन बहनों, जो उनकी देवरानियां भी थीं की मूर्तियां हैं। इस मंदिर में चहल-पहल दिख रही थी। जब मैं वहां पहुंचा तब मूर्तियों के सामने के दरवाजे पर परदा पड़ा था। पता चला कि  अभी सीताजी को भोग लगाया जा रहा था। करीब पौने घंटे के अंतराल के बाद यह परदा खुलने वाला था। मंदिर के भीतर पौन घंटे का इंतजार कम नहीं होता। पर कहीं और जाकर दोबारा यहां आने से बेहतर लगा कि मैं किसी तरह यहीं पर समय बिताऊं। मेरे साथ गए थानेदार ने गर्भगृह में व्यास गद्दी के पास मेरे बैठने की व्यवस्था करा दी। गर्भग्रह में जहां मूर्तियां स्थापित थी, के दरवाजे के ठीक बाहर करीब २५ फुट लंबा एक गलियारा था। इस गलियारे के बीच में पांच फुट की समानांतर दूरी में दो रेलिंग लगा दी गई थीं। यह बीच का रास्ता पुजारी के गर्भग्रह आने जाने का था। बायीं तरफ की रेलिंग के बाहर महिलाएं तथा दायीं तरफ की रेलिंग के पार पुरुषों के बैठने की थी। गलियारे में छाया भी थी और सीलिंग फैन भी  लगे हुए थे। धनीमानी और वीआईपी यात्रियों को इसी गलियारे में बिठा दिया जाता है बाकी के सामान्य यात्रियों को आंगन में खड़े रहना पड़ता है। यहां का माहौल एकदम शांत और भक्तिप्रधान दिख रहा था पर मुझे यह व्यवस्था बड़ी बनावटी व भेदभावपूर्ण प्रतीत हो रही थी इसलिए वहां आए भक्तों के चहरे ताकने के मेरे अंदर कोई भक्तिभावना जाग्रत नहीं हो रही थी। पुजारी भक्तों द्वारा लाए जा रहे लड्डुओं को भोग के वास्ते परदा हटाकर मूर्तियों के पास जाता और बाहर आता। उसकी यह आवाजाही मुझे चिढ़ा रही थी। 
- पुजारी जी जब सीताजी का अंदर भोग लग रहा है तो बीच में आप बार-बार उन्हें जाकर क्यों डिस्टर्ब करते हो? मैने पुजारी को टोका।
पुजारी चतुर था उसे पता था कि खुद थानेदार मेरी खातिर तवज्जो कर रहा है इसलिए भले ही मैं ज्यादा चढ़ावा न चढ़ाऊं लेकिन मैं सामान्य यात्री नहीं हूं इसलिए मुस्करा कर बेचारगी केे भाव में बोला- अब मैं क्या करूं लोग तो इसी बख्त लड्डू लेकर आ जाते हैं।
गलियारे में भी व्यास गद्दी के पास भीड़ काफी थी। रेलिंग के पास से मूर्ति का दर्शन ज्यादा सुविधा से हो सकता था इसलिए लोग रेलिंग पर ही चढ़े जा रहे थे। मेरे ठीक आगे एक अधेड़  मारवाड़ी आधी बांह का मलमल का कुरता और धोती पहने बैठा था। मोबाइल की स्क्रीन देख-देख कर वह काफी तेज आवाज के साथ हनुमान चालीसा बांच रहा था, मेरे टोकने से चिढ़ गया। बोला- लोग प्रसाद लाए हैं तो चढ़ाया ही जाएगा। जवाब में मेरे यह कहने पर कि आप सामने देखिए परदा खुलने ही वाला है, वह और खीझ गया एवं और ऊँचे स्वर में हनुमान  चालीसा बांचने लगा। मेरे पीछे एक खूब मोटा सिंधी बैठा था जो जब भी सांस लेता कच्चे लहशुन की बू चारों तरफ भर जाती दोनों के बीच मैं उकड़ूं बैठा था। मैं बार-बार गर्भगृह के सामने लगी घड़ी को देख रहा था कि कब समय बीते और पट खुलें। गर्भगृह के दरवाजे के दायीं तरफ व्यास चौकी थी इसके सामने वाले पाये एक छिपकली चिपकी थी जो फर्श पर बैठी मक्खी को दत्तचित्त होकर निहार रही थी। करीब आधे मिनट की साधना के बाद वह छिपकली उछली और सीधी मक्खी के समीप आकर गिरी उसने अपनी जीभ निकाली और उस मक्खी को पलक झपकते लील गई। और किसी ने तो नहीं देखा लेकिन मैने यह दृश्य देखा और पाया कि छिपकली की नजर अब ठीक मेरी टांग के नीचे बैठी मक्खी पर है। मुझे लगा कि अगर यह छिपकली अबकी उछली तो सीधे मेरी टांग के नीचे आकर गिरेगी। छिपकली के लिजलिजे स्पर्श के अंदेशे से मैं घबड़ा गया और भड़भड़ा कर उठ खड़ा हुआ। मेरे इस तरह अचानक उठ खड़े होने से आगे वाले मारवाड़ी का मोबाइल हाथ से छिटक कर दूर जा गिरा। और पीछे बैठे सिंधी का बैलेंस बिगड़ गया जिसके कारण वह सीधा प्रसाद के थाल के ऊपर जा गिरा। गीली बूंदियां और बेसन के लड्डुओं का चूरा उस थाल में रखा था। सिंधी के चेहरे पर वह चूरा चिपक गया जिससे वह बड़ा वीभत्स दिखने लगा। दोनों भक्तों ने मुझे इतनी गालियां दीं कि मुझे पहली बार लगा कि खड़ी बोली गालियों के मामले में काफी कमजोर है। गालियों के मामले में हमारी देसी बोलियां बहुत समृद्घ हैं। अच्छा रहा कि थानेदार साहब मंदिर के बाहर खड़े होकर मेरा इंतजार कर रहे थे और वहां कोई मुझे जानने-पहचानने वाला नहीं था। मैने तत्काल वहां से खिसक लेना ज्यादा ठीक समझा। लेकिन तभी मूर्तियों के भोग का समय पूरा हो गया और गर्भगृह का परदा खुल गया तथा आरती शुरू हो गई। घंटे, घडिय़ाल की आवाज के बीच मारवाड़ी और सिंधी की आवाजें दब गईं।
कनक भवन के बाद अब मुझे हनुमान गढ़ी जाना था। माना जाता है कि हनुमान गढ़ी अयोध्या की चौकी है। पूरी अयोध्या में ये मंदिर सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। ५० के करीब सीढिय़ां चढ़कर हनुमान गढ़ी मंदिर में जाना पड़ता है। अयोध्या की सुरक्षा की जिम्मेदारी हनुमान जी ने संभाली थी और वे इस सबसे ऊंची चौकी मे बैठकर अयोध्या की निगरानी करते हैं। हनुमान जी को अमर माना गया है इसलिए मान्यता है कि वे आज भी यहीं बिराजते हैं। इसी मान्यता के चलते हनुमान गढ़ी के मुख्य महंत कभी भी हनुमान गढ़ी से बाहर नहीं जाते। मृत्यु के बाद उनकी लाश ही इस गढ़ी से बाहर निकलती है। यहां तक कि अगर हनुमान गढ़ी के महंत के विरुद्घ अदालत में कोई मुकदमा भी हो तो अदालत को ही इस गढ़ी में आना पड़ता है। पर मैने महंत जी से पूछा कि ऐसा क्यों है तो उनका जवाब था कि चूंकि हनुमान जी को भगवान राम ने कभी भी गढ़ी न छोडऩे का वचन लिया था इसलिए वे भी इसी बचन में बंधे हैं।
- लेकिन महंत जी भगवान राम के सरयू नदी में अंतध्र्यान होने के काफी समय बाद द्वापर युग में तो हनुमान जी ने गढ़ी छोड़ी थी। मैने शंका की।
- कैसे? महंत जी थोड़ा विचलित लग रहे थे।
मैने उन्हें बताया कि द्वापर में पांडव जब १३ साल के बनवास पर थे और अर्जुन धनुर्विद्या सीखने किरात के पास जाते हैं तब लंबी अवधि तक अर्जुन के बाहर रहने के कारण चिंतित युधिष्ठिïर के आदेश पर भीम उन्हें तलाशने हिमालय के दुर्गम जंगलों में गए वहां एक अत्यंत बूढ़े वानर से उनकी भेंट हुई जो ठीक मार्ग के बीच में बैठा था। भीम उसकी ढिठाई से चिढ़ गए और डांट कर बोले- रास्ता छोड़ वानर।
वानर ने कहा कि बच्चा मैं तो बूढ़ा हो गया हूं तुम ही मेरी पूँछ हटाकर रास्ता बना लो। भीम, जिनमें दस हजार हाथियों का बल था उस वानर की पूँछ नहीं खिसका पाए। तब वे उसके पैरों पर पड़ गए। बोले- महात्मन आप कौन हैं? मैं आपको पहचान नहीं सका।
हनुमानजी ने उन्हें अपना विशाल स्वरूप दिखाया और बताया कि मैं हनुमान हूं। इसके बाद भीम को उन्होंने वायदा किया कि कुरुक्षेत्र में जब महासंग्राम होगा तब मैं तुम्हारी मदद के लिए रहूंगा। हनुमानजी ने अपना वायदा निभाया और कुरुक्षेत्र के महायुद्घ के दौरान वे पूरे १८ दिनों तक अर्जुन के रथ के ऊपर बैठे रहे। यह उन्हीं का प्रताप था कि कुरुक्षेत्र में बड़े बड़े महारथी अर्जुन के रथ को जरा भी नहीं खिसका पाए।
मेरी बात सुनकर महंत जी का चेहरा लाल पड़ गया और वे कुछ भुनभुनाते हुए बोले- हनुमान जी देवता हैं उनकी महिमा को हम कहां जान सकते हैं। यह मुझे चुप रहने का संकेत था। बहरहाल थानेदार के साथ जाने का एक फायदा तो हुआ ही कि मुझे बगैर कुछ चढ़ावा चढ़ाए ही करीब सेर भर बेसन के लड्डू प्रसाद में दिए गए।
अयोध्या शोध संस्थान पिछले करीब सात साल से अपने आडिटोरियम में रोजाना शाम छह से नौ बजे तक रामलीला का आयोजन करता है। हर पंद्रह दिन में रामलीला करने वाली मंडली बदल जाती है। मैं जब वहां गया तो रामलीला का २२९२वां दिन था। इस रामलीला को मुलायम सिंह ने तब शुरू किया था जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस दिन वहां लंका दहन का कार्यक्रम था। वृंदावन की कोई मंडली कर रही थी। रामलीला की समस्या यह है कि वहां आज भी स्त्री की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते हैं। इसलिए लीला में स्वाभाविकता नहीं आ पाती है। फिर भी मैं तीन घंटे तक रामलीला देखता रहा। अयोध्या एक धार्मिक स्थल है इसलिए यहां शराब और मांसाहार वर्जित है। लेकिन मेरे साथ गए थानेदार और वहां के विधायक के चेले चपाटियों ने मेरे लिए उस मारवाड़ी निवास में ही शराब और मांसाहार की व्यवस्था कर रखी थी। लेकिन जब मैने कहा कि मैं तो शराब पीता नहीं और हंड्रेड परसेंट शाकाहारी हूं तो वे बेचारे बहुत देर तक मेरे चेहरे को निहारते रहे फिर जैसे उन्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ लेकिन क्या करते। बोले- आपत्तिकाले मर्यादानास्ति। और इसी के साथ उन लोगों ने शराब की पूरी बोतल तथा चिकेन साफ कर डाला।

 

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