मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

पिता की स्मृतियां

पिता तुम्हारी बहुत याद आती है।
मैं दूसरों का मजाक भले उड़ाता था/ पर हकीकत यह है कि मैं ही हूं पिताजी का बच्चा।
मुझे हर दो-तीन महीने में लगता है/ घर हो आऊं।
पर कौन से घर में पिताजी?
साकेत नगर कानपुर डब्लू वन ब्लाक के १५० नंबर वाले घर में।
वहां जहां अब नहीं सुनाई पड़ती तुम्हारी पदचाप।
वह मकान अब भांय-भांय करता है।
तुम्हारी गैरहाजिरी में वहां किराएदार ने फैला लिया है/ अपना कारोबार
भले उस तारा निलय के गेट पर काले पत्थर पर अभी भी लिखा हो-
राम किशोर शुक्ल, शंभूनाथ शुक्ल।
पर लगता नहीं कि वह वही घर है जहां रहते थे तुम।
दोपहर को जब लाइट चली जाती/ तुम सामने वाले पार्क के कोने पर
बरगद के पेड़ के नीचे डाल लेते कुर्सी/ बैठकर पढ़ते विनय पत्रिका या कोई बासी अखबार /
और हर आने जाने वाले को टोकते।
पेड़ तो अब भी खड़ा है लेकिन सूना है उसका कोना।
लगता है वहां जाकर क्या करूंॅ?
पर मेरी दिक्कत है कि/
मैं नहीं रह सकता कहीं पर बंधकर और किसी से भी।
तुम्हीं ने तो सिखाया था पिता कि नए रास्तों की तलाश करते रहना चाहिए
मुझे याद है तुम्हारी वह कविता-
नए देश की नई सड़क पर नई जाति के नौजवां जा रहे हैं/
और तुमने ही तो समझाया था
मैं नए-नए का मीत गए का दुश्मन, मैं सपनों के विपरीत भोर का गुंजन।
मैं उगते हुए सूर्य की अरुण किरण हूं, मैं बढ़ते हुए अनुज की सजग चरण हूं।
मैं धारा के अनुकूल न बह पाऊंगा तुम तट पर मेरा इंतजार न करना।
लेकिन पिता मेरी नियति भी तो देखिए/ मैं कोई नई दिशा तक नहीं तय कर पाया
अच्छा और बुरा बनने के फ्रस्ट्रेशन में जरूर घिरा रहा।
बस उसी तरह जीता रहा घुटकर/ जैसे कि जिए थे तुम।
मैं आपके परम प्रिय कामरेड सुदर्शन चक्र के पुत्र गोर्की जैसा भी नहीं बन पाया
जो देता तुम्हें, तुम्हारा देय।
अपनी जिंदगी का रास्ता बदलकर।
लेकिन मैं नहीं पूरे कर पाया/ तुम्हारे सपनों को।
मैं तुम्हारा अपराधी, तुम्हारा पुत्र
ठीक अश्वस्थामा की तरह/ एक अनिर्वचनीय आग में झुलसता रहा
१९७१ में मैने पहली दफे तुम्हें छोड़ा था/ एक नई राह के लिए।
भटकता रहा और लौट-लौट कर फिर उसी घर में आता रहा।
मैं मुक्त होना चाहता था सिद्घार्थ की तरह
लेकिन पिता मोह के बंधन मुझे फंसाते रहे।
यही तुम्हारी नियति रही और मेरी भी।
मुझे अच्छी तरह मालूम है पिता कि
तुमको अच्छा लगा होगा
जब मैं फंसा ठीक उसी जाल में/ जिसमें तुम फंसे थे।
और जब मैं हो गया गुलाम तो तुम ठहाका लगाते रहे।
तुम मुझे तौलते रहे बहुतों के साथ/ पर हर बार मुझे हल्का पाते।
तब तुम निराश होते और बोलते-
एक लरिकवा तौनौ न्यून।
सही बात तो यह है कि पिताजी जब तुम यह कहते थेे तो मुझे संतोष होता था।
क्योंकि तराजू में यूं मुझे कभी इस बाट के साथ तो कभी उस बाट के साथ तौला जाना
बड़ा ही अखरता था।
पर मैं कभी तुम्हारा विरोध नहीं कर पाया इसीलिए
मैं भागता रहा तुम्हारे पास से/ पर फिर भी पिताजी न मेरे बिना तुम रह सकते थे और
न तुम्हारे बिन मैं।
तुम मुझसे कभी खुश नहीं रहे/ मेरे इकलौते होने के कारण/
मेरी कुंडली में भातृहंता के दोष केकारण।
और शायद मेरे अनीश्वरवादी और परंपरावादी न होने के कारण भी।
एक और वजह थी जिसके कारण तुम मुझसे निराश हुए/
छठी क्लास की मेरी टीचर सुरजीत कौर ने मेरी रिपोर्ट कार्ड में मुझे लापरवाह बताया था। 
पिता तुमने खूब सुनाईं मुझे रामायण और महाभारत की गाथाएं/ सतगुरु नानक के प्राकट्य की बातें/ आर्य समाज के आदर्श/ और मुहम्मद साहेब की सादगी के किस्से/ ईशु मसीह की करुणा/ इसी के साथ मुझे बताया बोलशेविक क्रांति के बारे में भी।
पूरी निष्ठा के साथ कार्ल माक्र्स और लेनिन की जीवनियां पढ़ाईं। राहुल सांकृत्यायन की किताबों का पारायण भी कराया।
लेकिन हर चीज की व्याख्या तुमने बड़े ही आस्थावान तरीके से की।
गांधी के सत्य के प्रयोग/ नेहरू की हिंदुस्तान की खोज/ या लोहिया का इतिहास चक्र।
मैं समझ नहीं पाया पिता कि तुम्हारी आस्था किधर थी?
एक  सीमांत किसान फिर बंधुआ मजूर और इसके बाद शहर में आकर
आपने की स्वदेशी काटन मिल में मजदूरी।
इन सबसे पिता तुम्हारी चेतना का स्तर भी बदलता गया। 
लेकिन सब गड्ड मड्ड होने लगता जब तुम रो-रोकर पढ़ते
विनय पत्रिका या राम चरित मानस।
तुम मुझे नहीं बना पाए आस्थावादी/ क्योंकि तुम्हारी
ये सारी बातें मुझे सिरे से बेतुकी लगतीं।
धर्मग्रंथ मुझे बांध नहीं पाए न ही मुझे डरा पाए। 
मैं भरोसा नहीं कर सका पिता/
तुम्हारा पंडिताऊ अहम मुझे ढकोसला लगता।
एक तरफ तो तुम बहुत उदार थे/ लेकिन कभी लगता पिता तुम ब्राह्मïण पहले थे।
मन्ना चमार और पराग नाना तुम्हारे सबसे चहेते मित्रों में से थे/ तुमने इनके साथ ककहरा सीखा, घूमेे, बतियाए/ लेकिन कभी भी उनको पांत में नहीं बैठाया।
मन्ना थे दयनीय लेकिन पराग नहीं/ वे कुर्मी थे और गांव की शासक जाति से थे।
उन पराग नाना ने ही मुझे बताया तीसा आंदोलन और त्रिवेणी संघ के बारे में/ तथा सुनाए किस्से बाबा रामचंदर के तथा ब्राह्मïणों के लालच के भी।
इसी वजह से पिता मैं नहीं चल पाया उस लीक पर जो तुम्हें सुहाती।
यह भी एक कारण था तुम्हारा मुझसे दुखी रहने का।
पर  शायद कुछ और भी हों।
मसलन तुम अपनी बहू से नाराज रहते थे/ क्योंकि उसने सबसे पहले तोड़ा तुम्हारा अनुशासन
उसने नहीं माना कि बाप और बाघ बराबर होता है।
तुम उसे अफलातून कहते रहे।
तुम मुझे जोरू का गुलाम कहते थे।
पर मेरी दिक्कत यह थी कि मैं हरदम दुविधा में रहा/
ठीक से कभी न उसके पाले में रहा/ और न आपके पाले मे।
इसीलिए मुझे लगता है कि पिता तुम अपनी चेतना से तो रेडिकल थे/
लेकिन चूंकि ब्राह्मïण थे इसलिए ढकोसलावादी भी थे।
इन सबके बावजूद मैं आपको ही अपना आदर्श मानता था/ यहीं से शुरू हुआ झगड़ा।
दोपहर को चुपचाप गेट खोलकर तुम्हारा बाहर निकल जाना/
पड़ोस के घर पर चाय पीना/
या फिर गुप्ता हलवाई के यहां जाकर डेढ़ रुपए का समोसा खाना।
गेट के सामने कुर्सी डालकर बैठना।
लू के ताप को मिटाने के लिए बरगद की छांव पिता तुम्हें बहुत पसंद थी।
तुम्हारे संगी संगाथी तो बहुत पहले निपट लिए थे/
बचे थे तो नौ ब्लाक वाले मौसिया और रामआसरे चाचा की चाची।
भले तुम्हें सौ डग चलना भी हो मुश्किल/ लेकिन इनके घरों में जाने और हालचाल लेने का  क्रम तुमने नहीं छोड़ा 
मौसिया आते लेकिन मेरी नजरों से बचते हुए/ और तुम्हारे कमरे में घुस जाते/
यह सब मुझे बहुत खराब लगता था।
मुझे नहीं पसंद था तुम्हारा घर की महरी से बतियाना।
लेकिन पिता यह सब अब सिर्फ स्मृतियों में है।
मुझे अब भी लगता है कि मैं जब कानपुर पहुंचूंगा/
तो तुम पहले की तरह बैठे मिलोगे सोडियम लाइट के पोल के नीचे कुर्सी डाले/ जो ठीक अपने घर के गेट पर लगी है/ और शिकायत करोगे कि
नगर निगम वाले इसकी देखरेख नहीं करते।
पैर छूते ही पूछोगे कीर्ति नहीं आई?
सबसे पहले तुम्हें कीर्ति से मिलना पसंद होगा/ और उसके पैर छूना भी।
कानपुर से चलते वक्त तुम तब तक गेट के बाहर खड़े रहते जब तक कार
आंखों से ओझल न हो जाती।
पर अब नहीं मिलेगा वहां कोई भी।
मुझे भी सब की तरह मानना पड़ेगा/ कि चौबीस जुलाई २००८ को नहीं रहे पिता मेरे
खत्म हो गया रामकिशोर शुक्ल पंछी और राम का वजूद
पंछी से राम तक आने की तुम्हारी पीड़ा को पिता मैने खूब महसूस किया था
उडऩे की तमन्ना को दिल में समेटे तुम नहीं तोड़ पाए अपने पिता की लीक
बस कुछ कदम आगे बढ़कर फिर लौट गए।
पर तुम्हारी छटपटाहट का मैं साक्षी हूं क्योंकि मैं तुम्हारा पुत्र/
हर पल तुम्हारे साथ रहा।
जन्म से मृत्यु तक मैं आठवें वसु की तरह तुम्हारी आत्मा से जुड़ा रहा।
तुम्हारी चिता को आग देते / कपाल क्रिया करते मैं बस यंत्रवत रहा
अपने ही पिता को आग की लपटों से घिरा देखता रहा।
- शंभूनाथ शुक्ल
११/०५/०९

 

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