मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम

काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम
जिसमें न होती ईष्र्या, न जलन, न द्वेष।
काश! मुझमें होता इतना साहस / कि
मैं तत्पर रहता/ तुम पर बलिदान हो जाने के लिए
काश! मैं प्यार करता / तुम्हारे अवगुणों को भी
मान कर चलता / तुम हो साक्षात सत्य की प्रतिमा /
विश्वास की प्रतीक।
तुम्हारे घात भी मुझे प्रिय होते /
तुम्हारी वफा की तरह।
काश! मैं तोड़कर अपना दंभ / पुरुष का अहम / परंपरा का अंधविश्वास
घुल मिल जाता तुमसे जैसे नीर और क्षीर।
तब और यकीनन तब ही / मैं हो पाता /
तुम्हारे प्रेम का अधिकारी / प्रेम प्रपासु।
कहना आसान है कि मैं हूं तुम्हारा प्रेमी
पर सब करते हैं ढोंग।
क्योंकि पुरुष नहीं कर सकता / कभी भी / स्त्री से प्रेम।
वह तो प्रेम करता है अपने दंभ से / अहम से /
और खुद की बनाई लीक से।
प्रेम की राह नहीं है आसान
तलवार की धार पर चलना है प्रेम / या आग के दरिया में
मोम के घोड़े पर बैठकर जाने जैसा है प्रेम।
प्रेम नहीं चाहता है कुछ पाना
वह तो है सब कुछ लुटाकर खत्म हो जाने का दूसरा नाम।
प्रेम करने के लिए मिटाना होगा / अपने दंभ को / अहम को
और पुरुष पुरातन विश्वास को
तब ही कर पाएगा कोई पुरुष प्रेम / जब खुद ही जी लेगा पुरुष
स्त्री का दिल, दिमाग और देह।
प्रेम नहीं है शब्दानुशासन /
नहीं बांध सकते उसे किसी मीटर में
प्रेम तो है एक ऐसी अकविता
जो भले न हो छंदबद्घ, लयबद्घ
पर इसमें रिदम है।
प्रेम है सतत प्रवाह / नदी की तरह
प्रेम की चाह यानी
फूट पडऩा उसके किनारों की तरह।
ध्वस्त कर देना सबकुछ।
अपना अहम, दंभ और विश्वास की परंपरा।
स्त्री में विलीन होकर, स्त्री बनकर ही
जिया जा सकता है स्त्री को
प्रेम करना / प्रेम पाना संभव है तभी
जब जीता है पुरुष
स्त्री की आत्मा और देह के साथ।
    कानपुर १/०८/०४
 

2 टिप्‍पणियां:

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  2. एक हस्ताक्षर, जो महत्वपूर्ण समय का पथिक और साक्षी रहा है, का अनुभव, मंथन से निकले विचार निसंदेह आज के समय में धरोहर की तरह हैं. इस ब्लॉग का शीर्षक भी सार्थक लगा- टुकड़ा-टुकड़ा जिन्दगी, क्योंकि इसमें अलग-अलग आयामों की झांकिया देखने में आ रही हैं. बधाई इस स्तंभ और सामग्री के लिये.

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