सोमवार, 10 दिसंबर 2012

त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे

शंभूनाथ शुक्ल
तबियत अब ऊबने लगी थी। सुबह जब हम गंगोत्री से गोमुख के लिए निकले थे तब हलकी बारिश हो रही थी लेकिन यह सोचकर कि बारिश ज्यादा देर तक नहीं होगी हमने ढेर सारे गरम कपड़े पहने निकल लिए गोमुख के बीहड़ रास्ते पर। तीन घंटे हो चुके थे चलते-चलते लेकिन बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। चीड़बासा आकर हम रुक गए। पेड़ों पर टकराती बूंदें हमें अब चिढ़ा रही थीं। जिस बारिश के लिए हम दिल्ली में तरस रहे थे वह अब इस अविरल गति से टप-टप कर रही थी कि हम आजिज आ चुके थे। शाम घिरने से पहले ही हमने हार मान ली और वापस गंगोत्री आ गए। हालांकि बारिश और बर्फवारी में गंगोत्री भी कोई सुरिक्षत स्थल नहीं था क्योंकि यहां भी खाने-पीने की सारी चीजें सौ किमी नीचे उत्तरकाशी से आती हैं और बारिश में क्या ठिकाना कि कब रास्ता ठप हो जाए। इसलिए एहतियातन हम अपने साथ गैस सिलेंडर, चूल्हा और आटा, दाल, चावल व मसाले आदि लेकर गए थे। जितेंद्र सैमवाल गंगोत्री धाम के रावल हैं उन्होंने हमें ठहरने के लिए कानोडिया निवास दे दिया था। 
गंगोत्री उत्तराखंड के चार धामों में से एक है। कहने को तो ऋषिकेश से गंगोत्री तक राजमार्ग बना हुआ है और एनएच-१०८ गंगोत्री पहुंच कर ही खत्म होता है। लेकिन यह बस नाममात्र का राजमार्ग है। कई जगह इतना संकरा कि गाड़ी पास करने के लिए आगे पीछे करनी पड़ती और कहीं कहीं एकदम कच्चा कि अगर गाड़ी फोर व्हील न होना तो कीचड़ में ही फंसकर रह जाए। ऋषिकेश से ही पहाड़ी यात्रा शुरू हो जाती है और २७२ किमी की यात्रा पूरी करने के बाद गंगोत्री पहुंचा जा सकता है। उत्तरकाशी से गंगोत्री का रास्ता इतना खतरनाक है कि जरा सा भी चूके तो गए हजारों फीट गहरी खाई में। खासकर अगर बारिश के मौसम में आपने गंगोत्री जाने की ठानी है तो आपको खाने पीने के सामान से लेकर रसोई गैस और चूल्हा तक लेकर जाने पड़ेगा क्योंकि पता नहीं कब पहाड़ों पर बारिश शुरू हो जाए और गंगोत्री तक के सारे रास्ते कट जाएं। हम छह सितंबर को दिल्ली से चले थे और रात दस बजे उत्तरकाशी पहुंचे थे। उत्तरकाशी में गढ़वाल विकास निगम का होटल भी है और तमाम सारे छोटे मोटे लाज भी। हम वहां कोटबंगला स्थित वन विभाग के एक गेस्टहाउस में रुके। यह डाकबंगला शहर से दूर और काफी ऊंचाई पर है और वहां से पहाड़ों के बीच बहती आ रही भागीरथी की कल कल धारा बड़ी आकर्षक दीखती है। भागीरथी के तीव्र प्रवाह की कल-कल आवाज भी वहां अनवरत गूंजती रहती है। 
उत्तरकाशी तक का रास्ता बड़े मजे से कटा था। रास्ते भर अच्छी धूप मिली और जरा भी अंदेशा नहीं था कि बारिश भी हो सकती है। लेकिन हमारे साथी सुभाष बंसल गंगोत्री के दुर्गम रास्ते से वाकिफ थे इसलिए उन्होंने चंबा से ही टमाटर व गोभी खरीद कर रखवा लिए तथा बाकी की सब्जियों का इंतजाम उत्तरकाशी पहुंचकर पूरा कर लिया था। अगले रोज सुबह खूब धूप खिली हुई थी इसलिए हमें पूरा विश्वास था कि हम गोमुख तक की यात्रा निर्विघ्र पूरी कर लेंगे। लेकिन शाम साढ़े चार  बजे के आसपास हम जैसे ही गंगोत्री पहुंचे कि अचानक बारिश शुरू हो गईं। शाम की गंगा आरती बारिश में ही पूरी की। कानोडिया निवास ठीक भागीरथी की धारा के किनारे ही स्थित है इसलिए अनवरत कल-कल की आवाज गूंजती रहती और उसके ऊपर टप-टप की चिढ़ा देने वाली आवाज हमें परेशान कर रही थी। हमारे पास नेलांग जाने का भी पास था लेकिन बारिश ने हमारी सारी योजनाओं पर पानी फेर रखा था। हम चारों लोगों ने पितरों का श्राद्घकर्म कर लिया था। इसलिए हमें वहां अब बोरियत हो रही थी लगे कि या तो हम गोमुख अथवा नेलांग जाएं वर्ना वापस लौटें। पर हर दो घंटे बाद इतनी भयावह सूचनाएं आतीं कि हम सिहर जाते। मसलन कोई बताता कि सुक्खी बैंड पर चट्टानें गिर गई हैं, हर्षिल के आगे सड़क पर पहाड़ धसक गया है। गंगनानी में दोनों तरफ मीलों तक जाम लगा है। सारे यात्री फंसे हैं न वहां खाने को कुछ है न पानी ही।
बारिश तीन दिन से लगातार हो रही थी और किस क्षण वहां बर्फ गिरने लगेगी कुछ कहा नहीं जा सकता था। नौ सितंबर को दोपहर बाद खबर आई कि गोमुख जाने वाले यात्री लापता हैं और बर्फ कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर गिर रही है। उसी क्षण हमने वहां से लौटने की  ठानी। मेरे अलावा बाकी तीनों यानी शर्माजी, बंसलजी और बिष्टजी ऐसे मौसम में वहां से तत्काल लौटने को इच्छुक नहीं थे। रावलजी का भी कहना था कि अभी आप रुक जाएं लेकिन मैं अड़ा हुआ था। हम फौरन वहां से चल पड़े। गंगोत्री से कालभैरव तक के सारे रास्ते में हमें न कोई मनुष्य आता-जाता दिखा न ही पशु पक्षी। अब हमें भी इस बात का अंदेशा सताने लगा कि ऐसा न हो कि कहीं कोई बड़ी चट्टान सड़क  को रोके पड़ी हो। तीन चार जगह तो हमें सड़क पर चट्टानें सड़क पर पड़ी मिलीं जिन्हें रास्ते से हटाकर हमने गाड़ी के निकलने लायक रास्ता बनाया। कालभैरव के बैरियर पर भी सन्नाटा था। हम बड़े गौर से पहाड़ों को निहारते हुए आगे बढ़ रहे थे क्योंकि सौ ग्राम का पत्थर भी अगर पहाड़ से लुढ़का तो हमारी गाड़ी के परखचे उड़ा सकता था। हर्षिल से थोड़ा पहले एक बड़ी मोटी धार सैकड़ों फिट ऊंचे पहाड़ से गिर रही थी वह इतनी चौड़ी थी कि हम चाहे जितना दाएं बाएं होना चाहें उस धार के नीचे आने से नहीं बच सकते थे। खतरा था कि कहीं गाड़ी संतुलन न खो बैठे। धीरे से हम उस धार के नीचे से गुजरे ऐसा लगा जैसे बादल फटकर हमारी गाड़ी के ऊपर ही बरस पड़ा हो। हर्षिल के बाद सुक्खी बैंड की चढ़ाई शुरू होती थी। वहां सेबों के बाग बहुतायत में थे लेकिन सड़क कच्ची और ऊबड़ खाबड़। जगह-जगह यहां रपटे थे जिनमें ऊंचे झरनों से आया पानी अत्यंत तीव्र गति से बह रहा था। एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ भागीरथी का अथाह पानी जो हजारों फिट नीचे बह रहा था। 
ये सारी बाधाएं पार कर हम गंगनानी के करीब थे कि अचानक एक पेड़ टूटा और अपने साथ कई चट्टानों को समेटे हुए एनएच-१०८ पर आ गिरा। करीब पचास मीटर का रास्ता ठप हो गया। अब कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि हम हर्षिल लौट जाएं। हम लौटते तभी एक और चट्टान हमारी गाड़ी के ठीक पीछे आकर गिरी और रास्ता बंद। साथी लोग बुरी तरह घबड़ा गए। सिर्फ बंसल जी ने कहा कि उन्हें गंगा मैया पर पूरा भरोसा है कुछ नहीं होगा आप लोग च़ुपचाप गाड़ी में बैठ जाएं कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा ही। अब मुझे अपनी हड़बड़ी पर गुस्सा आने लगा मेरे कारण चार और लोग मुसीबत में फंस गए। १५ मिनट भी नहीं बीते होंगे कि अचानक गंगनानी की तरफ से एक मिलिट्री कॉनवाय आकर रुकी। वह कॉनवाय गढ़वाल रेजीमेंट का था। उनका अफसर आगे जीप में था और उनके पीछे आठ नौ ट्रकों पर लदे जवान। सारे ट्रक वहीं खड़े हो गए और उनके जवान उतरे तथा देखते ही देखते उन्होंने रास्ता साफ कर दिया। हम वहां से तो निकल गए लेकिन गंगनानी पार करने के बाद हम कोई दो किमी ही आगे बढ़े थे कि एक बड़ी सी चट्टान लुढ़कती हुई हमारे रास्ते पर आ गिरी। पहाड़ पर गाड़ी चलाने में सिर्फ बिष्टजी ही पारंगत थे इसलिए उन्होंने फौरन वहां जाकर जायजा लिया और बोले आप सब लोग पैदल चलकर इस चट्टान के आगे निकल जाइए मैं कोशिश करता हूं कि चट्टान के बगल से गाड़ी निकाल लाऊं। कुल पांच फीट का रास्ता था और वाकई बिष्टजी सारी बाधाओं को पार करके गाड़ी निकाल लाए। भटवारी से रास्ता पक्का था और मनेरी डैम से एकदम साफ। आखिरकार हम साढ़े सात बजे उत्तरकाशी पहुंच गए। अब हमारी जान में जान आई क्योंकि अब हम एक ऐसे सेफ जोन में थे जहां फंसते भी तो सब कुछ उपलब्ध था।

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