सोमवार, 6 अप्रैल 2015

सत्तावनी विद्रोह भाग- एक

मैने महसूस किया है कि मेरी राजनीतिक पोस्ट से या तो लोग दुखी हो जाते हैं या अति प्रसन्न। यह दोनों ही अतियां हैं और इससे सिवाय निंदा या प्रशंसा से कुछ नहीं हासिल होता। मेरी अपनी रुचि व पारंगता राजनीति से अधिक समाज शास्त्रीय विषयों और इतिहास व घुमक्कड़ी में है इसलिए मैने तय किया है कि अब मैं इन्हीं विषयों पर लिखूंगा। आज से दस मई तक मैं रोजाना एक पोस्ट 1857 के हालात और अंग्रेज कलेक्टरों, पोलेटिकल एजंटों और गवर्नरों पर लिखूंगा। यह विषय हमें किसान समस्या और औपनिवेशिक भारत की हकीकत जाने के लिए मददगार होगा। तो आज से पहली किस्त शुरू-
1857 के विद्रोह को देखने के तीन नजरिये हैं। पहला अंग्रेज हुक्मरानों खासकर ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों का, उन्होंने इसे सिपाही गदर बताया है और लिखा है कि यह गदर में शामिल सभी लोग लुंपेन और लफंगे थे। देश भक्ति इसमें नहीं थी बल्कि उनकी अपनी स्वार्थपरता थी। इसीलिए इस गदर को न तो सक्षम नेतृत्व मिला न जनता का समर्थन। दूसरी ओर दक्षिणपंथियों ने इसे स्वतंत्रता का पहला एकजुट संग्राम कहा है। उनके अनुसार फिरंगियों के विरुद्घ यह पहला संगठित विद्रोह था। तीसरा वामपंथियों का जिन्होंने इसे इतिहास की धारा को मोडऩे वाला प्रतिक्रियावादी आंदोलन करार दिया है।
पर ये तीनों मत अपूर्ण और एक आंदोलन का सरलीकरण हैं। अगर ब्रिटिश मत मान लिया जाए तो क्या ब्रिटिश लेखकों बता सके कि अगर यह मात्र सिपाही विद्रोह था तो आखिर दस दिनों के भीतर ही पूरे अवध से कंपनी का राज धूल के कणों की भांति कैसे उड़ गया। खुद एक ब्रिटिश लेखक थामस लोव लिखता है- शिशुहंता राजपूत, धर्मान्ध ब्राह्मण, कट्टर मुसलमान, विलासी-स्थूलकाय-महत्वाकांक्षी मराठा आदि सब समान प्रयोजन से साथ आ गए थे। गो हत्यारे और गो पूजक, सुअर से नफरत करने वालों और सुअर खाने वालों, एक अल्लाह और उसके पैगंबर मोहम्मद की रट लगाने वालों और ब्रह्म के रहस्यों का गुणगान करने वालों ने मिलजुल कर विद्रोह किया। अगर यह मान भी लिया जाए कि यह महज एक सिपाही विद्रोह था तो क्यों महज चंद दिनों में ही सर्वशक्तिमान ब्रिटिशर्स की हुकूमत भारत में जाते-जाते बची। मगर यह कह देने से ही यह विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भी नहीं बन जाता। अगर यह सच है तो इतना संगठित व सशस्त्र विद्रोह मुठ्ठी भर योरोपियन सिपाहियों ने कुचल कैसे दिया? जाहिर है कि यह व्रिदोह तयशुदा नहीं था और जनता की भागीदारी उतनी नहीं थी जितनी कि अपेक्षा थी। विद्रोह के पूर्व किसी नियम-कायदे व कानून की संरचना नहीं की गई थी। कुछ तो गड़बड़ जरूर थी। आप भले मंगल पांडे को पूजो या रानी लक्ष्मी बाई को अथवा नाना धूधूपंत पेशवा को पर विद्रोह एक सामंती भभका भर था।


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