गुरुवार, 5 मई 2016

यूपी से क्यों उतरा पानी!



यूपी से क्यों उतरा पानी!
यूपी में पानी है और नहीं भी है। प्रदेश सरकार का कहना है कि यूपी में पानी भरपूर है और केंद्र का कहना है कि यूपी में कमी तो पानी की है। केंद्र का पानी धरा का धरा है पर यूपी पानी ले नहीं रहा। कई न्यूज चैनल इस पर बहस करा रहे हैं। और ढेर सारे नेता-प्रवक्ता तथा पत्रकार पानी उतारे जा रहे हैं। लेकिन मैं यूपी में पानी का अपना एक निजी अनुभव लिखता हूं।
च्च्कुछ वर्ष पूर्व की बात है मुझे एक शादी में जाना था। उस शादी में जिसका न तो दूल्हा मेरा परिचित था न दूल्हे का बाप न लड़की वाले। दूल्हे का बड़ा भाई मेरा ड्राइवर था और वह पीछे पड़ा था कि सर आप चलेंगे तो शोभा रह जाएगी। मैं भी खाली था सो कह दिया कि चलो। उसने कहा कि बारात औरय्या के पास जानी है। इसलिए आप तो सीधे कानपुर आ जाओ वहां से हम ले लेंगे। बारात कानपुर देहात के गौरा नामक गांव से चलनी थी जो वहां की एक बड़ी तहसील पुखरायां के करीब ठाकुरों का बड़ा गांव है। मेरा वह ड्राइवर पहले किसी जिला पंचायत अध्यक्ष की गाड़ी चलाता था इसलिए उसके पास एक बंदूक थी जिसे वह गाड़ी चलाते समय भी साथ रखता था। एक तो ठाकुर ऊपर से बंदूक वाला ठाकुर तो उसका जलबा आप सब समझ ही सकते हैं। जब वह गाड़ी चलाता था तब क्या मजाल कि कोई उसकी पुलिस वाला गाड़ी रोक ले। मुझे उसने कहा था कि सर आप कानपुर आ जाओ हम आपको ले लेंगे। इसलिए उसने मेरे शताब्दी से उतरते ही अपने साथ ले लिया। उसके पास एक जीप थी और वह मेरे लिए रिजर्ब कर दी। शाम को सात बजे के आसपास बारात निकली। औरय्या पहुंच कर रात वहीं विश्राम हुआ यानी रात गुजारने का आग्रह हुआ। अब रात कहां गुजारी जाए इसके लिए कोई होटल तो था नहीं। सारे बाराती वहीं बस अड्डे के पास लेट लिए। गर्मी, मच्छर और दुर्गन्ध के बीच रात कैसे गुजरी बस पूछिए मत। सुबह सब वहां से फारिग होकर चले। पहला स्टाप था अजीतमल। वहीं पर सबको समोसे खिलाए गए और चाय पिलाई गई। फिर बारात चली और पहुंची महेवा, बकेवर होती हुई लखना। वहां पर आते-आते दोपहर हो गई और रोडवेज बस की सेवा भी वहां से समाप्त हो गई जो हम बारातियों को लेकर आई थी। अब भोजन के वास्ते दूल्हा समेत सब चले एक हलवाई की दूकान पर जहां पूरियां बिक रही थीं। पांच रुपये की चार की दर से। साथ में आलू की सूखी तथा कद्दू की सब्जी साथ में आम का अचार व एक गिलास मठ्ठा। अब आगे की यात्रा का पता करना था। दूल्हा भी साथ चल रहा था जो पूरी यात्रा में पीले रंग का एक जामा पहने रहा था। मैने दूल्हे के बड़े भाई और अपने ड्राइवर श्री रामलखन सिंह पाठक से पूछा कि भैया ठाकुर साहब बारात जानी कहां है?ज्ज्
च्च्ड्राइवर के जवाब से होश उड़ गए। उसने कहा कि सर लड़की वालों ने कहा था कि लखना आ जाना वहां से हम ले लेंगे। अब यह भी नहीं पता था कि बारात का गंतव्य कहां है। साथ में बंदूकें थीं, बहू के चढ़ावे के लिए ले जाए जाने वाले जेवरों और कपड़ों से भरा एक बक्सा था और नकद रुपया भी था पर गंतव्य का पता नहीं तो इस बीहड़ और बागियों के इलाके में सुरक्षा की गारंटी क्या है इसका कोई भरोसा नहीं। लड़की वालों का कोई मोबाइल या फोन नंबर भी किसी के पास नहीं था। बस गांव का नाम पता था बुर्तोली। लखना में जिससे पूछो वह इस गांव के नाम से ही मुंह बिचकाता और फिर सिर हिलाने लगता। एक बजाज की दूकान का पता जरूर दर्ज था जिससे जाकर पूछा जा सकता था। उस दूकान में जाकर पूछा गया तो बजाज ने बताया कि लड़की वाले भोले सिंह हमारी दुकान पर आए थे। आप ऐसा करो कि लखना से आगे जाकर चकर नगर से पता कर लो। वहां से करीब ही है। और हां जीप यहीं पर छोड़ दो क्योंकि आगे जीप जा नहीं पाएगी। वहां पर लड़की वाले मिल जाएंगे कुछ ऊँट लेकर वह अपने साथ आए होंगे। अब जामा पहले वह दूल्हा, उसके भाई तथा अन्य बिरादरी वाले और मैं सब चल पड़े पैदल। दूल्हे के एक चाचा ने वह बक्सा सिर पर उठा रखा था जिसमें कपड़े व जेवर थे। जीप वहीं बजाज की दूकान पर छोड़ दी गई। करीब चार किमी पैदल चलने के बाद हमने जमना पार की तब वहां पर किसी को भी अपना इंतजार करते नहीं पाया। मीलों तक बस बीहड़ और धूसर कगार थे। बीच-बीच में करील और बबूल की झाडिय़ाँ। मध्यान्ह का सूर्य तप रहा था और किसी के पास पानी तक का इंतजाम नहीं था। सो वापस लौटकर चकर नगर से एक मटका खरीदा गया और बम्बे के पानी से उसे भरा गया जिसे एक बाराती ने अपने सिर पर रखा। वहां से बुर्तोली का रास्ता पूछा गया जिसके बारे में बताया गया जो पता चला कि यहां से चार-पांच कोस होगा। और रास्ता पूरा बीहड़ होगा। हां अगर ऊँट मिल गए तो सुभीते से पहुंच जाएंगे।च्च्
च्च्मरते क्या न करते पैदल ही चल पड़े इस आस में कि शायद आगे कोई सवारी मिल जाए। पर एक कोस हो गया और दो कोस की दूरी तय कर ली मगर ऊँटों का पता नहीं। और शाम ऊपर से ढल आई तथा बीहड़ में सन्नाटा डराने लगा। कहीं कोई कुआं न पानी न बंबा। हम चलते रहे और शाम रात में बदल गई। यह भी नहीं पता था कि सही चल रहे हैं या गलत। बस चले जाओ। रास्ते में एक जगह रुक कर सतुआ खाये गए और मटके का पानी पिया गया। रात में हम पगडंडी के भरोसे आगे बढ़ रहे थे अचानक थोड़ी रोशनी दिखी। हम और तेज चले और एक घर के पास पहुंच गए। छप्पर की एक झोपड़ी थी जिसमें एक अधेड़ और उसकी बीवी बैठे थे। हमने अपने गंतव्य गांव का नाम बताया तो बोला यही गांव है। थोड़ा सा और आगे चले जाओ घर मिल जाएगा। हमारा पानी खत्म हो चुका था इसलिए हमने पानी मांगा तो रूखा-सा जवाब मिला कि लड़की वालों के घर पहुंच जाओ वहीं पी लेना। पर उसके घर के बाद से ही गांव खत्म हो गया। मानों एक ही घर का गांव था। हम और आगे बढ़े तो कुछ पशुओं की आवाज से हम उत्साहित हुए और लगा कि किसी गांव के करीब हैं। आधे घंटे बाद एक गांव मिल गया और वहां की गलियों में घूमते हुए हम लड़की वाले यानी ब्रजभान सिंह उर्फ भोले सिंह के घर पर पहुंच ही गए।च्च्
च्च्बारात के वहां पहुंचने पर चहल-पहल शुरू हुई। एक बाल्टी और लोटा रख दिया गया और कहा गया कि पानी स्वयं खींच कर भर लें। हमारे दो जवान पानी भरने के लिए कुआं पर चढ़े मगर उसमें पानी कहां है, यह पता नहीं चल रहा था। और रस्सी भी इतनी लंबी कि लग रहा था मानों रस्सी न हुई सीधे पाताल लोक तक पहुंचाने की सीढ़ी हो गई। कुएं में बाल्टी गिराई गई और सारी रस्सी खत्म। उसके बाद उसकी खिंचाई शुरू हुई तो उन दोनों ही पहलवानों के सारे पुठ्ठे निकल आए और वे लगभग हाँफने लगे। करीब बीस मिनट बाद जब वे एक बाल्टी पानी खींच कर आए तो आते ही लेट गए और बोले इतनी थकावट तो यात्रा में नहीं हुई। उस रात थके-मांदे हम लोगों ने किसी तरह पूरियां और कद्दू का साग निगला और सुबह का इंतजार करने लगे। अगले रोज सुबह से कुएं के पास से अजीब-सी आवाजें आने लगीं तो हम लोग उठकर देखने गए तो पाया कि दो लड़कियां कुएं के पास से शोर मचाती हुई कूदती और बैलों की जोड़ी की तरह रस्सी लेकर भागतीं तब वह बाल्टी ऊपर आ पाती। तब हमें पता चला कि यहां पानी क्यों इतना कीमती है कि एक लोकगीत ही है कि च्मटकी न फूटे खसम मर जायज्। उन्हीं लड़कियों ने दो बाल्टी पानी हम बरातियों के लिए भी रख दीं और कहा कि अगर नहाना है तो पास में चंबल नदी है वहां चले जाओ। एक ऐसे प्रदेश में जहां पानी इतना कम उपलब्ध हो वहां पर पानी की राजनीति किस-किस का पानी उतारेगी।"

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