पार्टी बड़ी होती है परिवार नहीं!
कांग्रेस को एक बार पुनर्विचार तो करना ही चाहिए कि कांग्रेस आखिर लगातार हारती क्यों जा रही है। उसके पास से पहले केंद्र गया, फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान और आंध्र गया। अब असम और केरल भी गया। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या यह सिर्फ नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस मुक्त भारत के आहवान का असर है या कुछ और इस पर गहन विचार होना चाहिए। केंद्र के समक्ष कोई सक्षम विपक्ष इस समय नहीं है और इसी का नतीजा है कि केंद्र सरकार मनमानी पर उतारू है। केंद्र में एक ऐसी नाकारा किन्तु भाग्यशाली सरकार है जो पिछले दो वर्षों में अंडा पाकर भी पास हो जाती है। कांग्रेस के पास आज क्या है? उसके वे नेता जो रोज करप्शन में फंसे दिखाई पड़ते हैं। वह परिवार जो गले-गले तक भाई-भतीजावाद और दामादवाद में डूबा है और ऐसे कूपमंडूक बौद्घिक जन जो उसे और भी गुमराह करते हैं। उसके पास आज कोई तेजस्वी वक्ता नहीं है। कांग्रेस के नाम पर जनता को अपने पाले में लाने वाला कोई चमत्कारी व्यक्तित्व नहीं। बूढ़े-बूढ़े कांग्रेसी जिस राहुल गांधी के नाम पर वोट मांग रहे हैं उन्हें देखकर तरस आता है। वे मोदी राग का आलाप कर मोदी को और ताकतवर बनाते जा रहे हैं। वे हिंदू समाज की हर परंपरा और हर रीति-नीति के खिलाफ जाते दिखाई पड़ रहे हैं। इसका लाभ भाजपा को मिलता है। हिंदू समझता है उसकी खैरख्वाह मात्र एक पार्टी भाजपा ही बची है। ऊपर से उसने जो चुनावी गठबंधन किए उसने उसे और लपेट दिया। प बंगाल में अपनी स्वाभाविक संगिनी ममता बनर्जी को छोड़कर उसने अपने चिर शत्रु वाममोर्चे से मेल-मिलाप किया और क्या मिला? तमिलनाडु में 92 साल के बूढ़े धृतराष्ट्र नुमा नेता करुणानिधि से मेलजोल बढ़ाया और दोनों ही डूबे। और ये बुढ़ऊ न सिर्फ बाल-बच्चों के मोह में डूबे हैं बल्कि नेत्रों से भी हीन होते जा रहे हैं। ओमन चांडी को झेलते रहे और हारे। अब कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड बचा है। उसमें भी सिद्घरामैया आरोपों से घिरे हैं। वीरभद्र के विरुद्घ सीबीआई की जांच चल रही है और हरीश रावत अपनी पार्टी को एकजुट नहीं कर पा रहे। इसलिए कांग्रेस के लोग अगर मिल बैठकर विचार करें और फैसला लें कि बस बहुत हो चुका परिवार अब उसके दायरे से बाहर आएं तब ही शायद देश को आज एक सक्षम विपक्ष मिलेगा और भविष्य का विकल्प भी।
कांग्रेस को एक बार पुनर्विचार तो करना ही चाहिए कि कांग्रेस आखिर लगातार हारती क्यों जा रही है। उसके पास से पहले केंद्र गया, फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान और आंध्र गया। अब असम और केरल भी गया। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या यह सिर्फ नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस मुक्त भारत के आहवान का असर है या कुछ और इस पर गहन विचार होना चाहिए। केंद्र के समक्ष कोई सक्षम विपक्ष इस समय नहीं है और इसी का नतीजा है कि केंद्र सरकार मनमानी पर उतारू है। केंद्र में एक ऐसी नाकारा किन्तु भाग्यशाली सरकार है जो पिछले दो वर्षों में अंडा पाकर भी पास हो जाती है। कांग्रेस के पास आज क्या है? उसके वे नेता जो रोज करप्शन में फंसे दिखाई पड़ते हैं। वह परिवार जो गले-गले तक भाई-भतीजावाद और दामादवाद में डूबा है और ऐसे कूपमंडूक बौद्घिक जन जो उसे और भी गुमराह करते हैं। उसके पास आज कोई तेजस्वी वक्ता नहीं है। कांग्रेस के नाम पर जनता को अपने पाले में लाने वाला कोई चमत्कारी व्यक्तित्व नहीं। बूढ़े-बूढ़े कांग्रेसी जिस राहुल गांधी के नाम पर वोट मांग रहे हैं उन्हें देखकर तरस आता है। वे मोदी राग का आलाप कर मोदी को और ताकतवर बनाते जा रहे हैं। वे हिंदू समाज की हर परंपरा और हर रीति-नीति के खिलाफ जाते दिखाई पड़ रहे हैं। इसका लाभ भाजपा को मिलता है। हिंदू समझता है उसकी खैरख्वाह मात्र एक पार्टी भाजपा ही बची है। ऊपर से उसने जो चुनावी गठबंधन किए उसने उसे और लपेट दिया। प बंगाल में अपनी स्वाभाविक संगिनी ममता बनर्जी को छोड़कर उसने अपने चिर शत्रु वाममोर्चे से मेल-मिलाप किया और क्या मिला? तमिलनाडु में 92 साल के बूढ़े धृतराष्ट्र नुमा नेता करुणानिधि से मेलजोल बढ़ाया और दोनों ही डूबे। और ये बुढ़ऊ न सिर्फ बाल-बच्चों के मोह में डूबे हैं बल्कि नेत्रों से भी हीन होते जा रहे हैं। ओमन चांडी को झेलते रहे और हारे। अब कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड बचा है। उसमें भी सिद्घरामैया आरोपों से घिरे हैं। वीरभद्र के विरुद्घ सीबीआई की जांच चल रही है और हरीश रावत अपनी पार्टी को एकजुट नहीं कर पा रहे। इसलिए कांग्रेस के लोग अगर मिल बैठकर विचार करें और फैसला लें कि बस बहुत हो चुका परिवार अब उसके दायरे से बाहर आएं तब ही शायद देश को आज एक सक्षम विपक्ष मिलेगा और भविष्य का विकल्प भी।
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