मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

एक तर्क यह भी

जबर का दस्त
आज रात NDTV के Prime Time में Ravish Kumar के साथ था। मुजफ्फर नगर और शामली के राहत शिविरों में रह रहे डरे सहमे लोगों की संवेदनाओं पर जो राजनीति खेली जा रही है यह बहस का मुद्दा था। कमाल फारुखी, भुक्कल नवाब और पीएल पूनिया भी इस बहस में थे। भुक्कल और पूनिया तो खैर अपनी पार्टी लाइन पर ही बोले। मैने एक सवाल उठाया कि इस राजनीति के पीछे वे आर्थिक हालात दबा दिए गए हैं जिन पर बहस बहुत जरूरी है। जैसे न तो राहुल गांधी और न ही मुलायम सिंह उन हालात को पकड़ पा रहे हैं जो इस दंगे ने पैदा कर दिए हैं। यहां तक कि मानवाधिकार कार्यकर्ता भी उस चीज को पकडऩे में नाकाम हैं। और इसकी वजह है कि या तो हम पीडि़त पक्ष के प्रति सांप्रदायिक नजरिए से संवेदनशील हो जाते हैं अथवा वोट की लालच में क्रूरता की हद तक संवेदनशून्य। यहां भी यही हुआ है। ध्यान रखिए कि यह वह इलाका है जहां गांवों के स्तर पर हिंदू मुस्लिम बटवारा नहीं वरन् जातीय बटवारा है। लोग या तो जाट हैं अथवा त्यागी या ठाकुर। अलबत्ता पेशेवर जातियां अधिकतर मुसलमान हैं जो मेरठ या मुजफ्फर नगर शहर में बसी हैं। यानी गांव के स्तर पर दोनों ही किसान हैं। अब देखिए गन्ना यहां की राजनीति और अर्थनीति का एक प्रमुख हिस्सा है। एक बिरादरी जिसका मजहब इस्लाम है वह अगर गांव से भाग कर राहत शिविर में रह रही है और गांव आने पर उन्हें डराया-धमकाया जाता है तो उसकी वजह सांप्रदायिक नहीं विशुद्ध रूप से आर्थिक है। गांव से भाग गए लोगों के गन्ने की फसल की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? खड़ी फसल काट ली जाएगी और बटाई की खेती लेकर किसानी करने वाले मुसलमान तो साबित भी नहीं कर पाएंगे कि उनकी कितनी फसल बेकार गई? क्योंकि वे तो जिस भूमि मालिक की कृषि भूमि बटाई पर जोतते रहे वह ऐन कटाई के समय मालिक ने हथिया ली। इसमें प्रशासन भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकता। फसल कट गई तो कौन गवाही देगा? यह एक बड़ी वजह है कि गांव में लोग अब अपने ही बटाईदार और छोटी मोटी किसानी करने वाले गैर मजहबी लोगों को घुसने नहीं दे रहे। यह मुद्दा अनछुआ है क्योंकि शहरी लोग गांव के इस अर्थतंत्र को नहीं समझ पा रहे। अगर इस तरह का लालच लोगों के दिलों में आ गया तो आने वाले समय में इस खाई को पाट पाना मुश्किल होगा। और यह एक निरंतर प्रक्रिया नहीं बन जाएगी इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें