बुधवार, 11 दिसंबर 2013

Kanpur, a dying city

इज कानपुर अ डाइंग सिटी?
शंभूनाथ शुक्ल
मैं मूलरूप से कानपुर का रहने वाला हूं। यहीं पैदा हुआ, पढ़ाई लिखाई की और सीपीआई (एमएल) का सपोर्र्टर रहा उनकी हर गतिविधि में साथ रहा। बहुत से लोगों को करीब से देखा। हर राजनेता को, पत्रकार को और व्यापारियों को भी। जब यहां रहा तो जीविका चलाने के लिए हर तरह के काम किए। साइकिल में हवा भरने और पंक्चर ठीक करने से लेकर, बैटरी सर्विस का काम और अंतत: काफी उम्र के बाद पत्रकारिता में घुसा और शिखर पर न सही मंझोली हैसियत तो बना ही ली। पत्नी भी मूलत: कानपुर की हैं पर उनका आग्रह रहा कि चाहे जो कुछ हो कानपुर छोड़ दो। मैं दिल्ली चला गया पर कानपुर का मोह नहीं त्याग पाया और हर हफ्ते फिर हर महीने या दो महीने कानपुर आना सुखकर लगता। हमारे मित्र राजीव शुक्ला भी शुरू से इसी प्रवृत्ति के थे पर बाद में वे दिल्ली के ऐसे हुए कि शिखर तक पहुंच गए और इसमें कोई शक नहीं कि यह उनकी यात्रा का हिस्सा है उनका गंतव्य नहीं।
फिर एक दौर वह भी आया कि दुर्भाय वश मैं इसी कानपुर में अमर उजाला का संपादक बनकर आ गया। इसके बाद तो जीवन यात्रा में ब्र्रेक लग गया। अमर उजाला के नवोन्मेषक स्वर्गीय अतुल माहेश्वरी ने मेरा चयन किया था। चूंकि उस समय जनसत्ता के कलकत्ता संस्करण में मुझे सारी सुविधाएं मिलाकर करीब ६० हजार रुपये मासिक मिलता था इसलिए उन्होंने मुझे यही वेतन दिया। दस ग्यारह साल पहले कानपुर में यह वेतन काफी नहीं तो भी मजे का था। लेकिन इस शहर में रो-रोकर मांगने वाले इतने ज्यादा हैं कि मैं पसीज जाता और हर उस आदमी की मदद कर देता जो मेरे ही पैसे से मेरे ही सामने शराब पीता, ऐश करता और मैं चुपचाप देखता रहता। रोज घर पर ऐसे लोगों का तांता लगा ही रहता। यहां के लोग यजमानी वृत्ति पर जीते हैं यानी किसी की भी आँख में धूल झोंककर पैसा निकाल लेने की कला में माहिर हैं। खासकर यहां का यूपीआईट और उनमें भी ब्राह्मण। यहां आकर बसे अन्य समुदाय यथा- पंजाबी, खत्री और मारवाड़ी समुदाय अपनी मेहनत पर और अपने पेशेगत ईमानदारी पर जीना जानता है। लेकिन ठेठ कनपुरिये या तो रंगदारी वसूलते हैं अथवा डग्गामारी कर पैसे कमाकर सारी की सारी कमाई दारूबाजी व दारूखोरी में उड़ाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।
मैने जब अतुलजी को कहा कि भाई साहब आप मुझे कानपुर मत भेजिए क्योंकि वह मेरा शहर है और वहां हर आदमी मेरे पास कोई न कोई सिफारिश लेकर चला आएगा तो अतुल जी बोले- शुक्ला जी यही तो आपकी परीक्षा है और आपको कानपुर की हर तरह की जानकारी भी तो होगी। मुझे खुशी है कि मैं उनकी इस परीक्षा में खरा उतरा। मैने १९ जुलाई २००२ को अमर उजाला ज्वाइन किया और सिर्फ छह महीने के भीतर मैने अखबार का प्रसार सिटी में एक लाख तक पहुंचा दिया। अतुल जी ने मुझे प्रशस्ति पत्र भेजा और कहा कि अखबार संपादक का होता है और सिर्फ वही किसी अखबार को अपने पाठकों के बीच लोकप्रिय बना सकता है।
लेकिन मेरा निजी जीवन चौपट हो गया। पैसे तो लोग लूटते ही रहे मेरा सुख चैन भी छीन लिया। मुझसे मिलने शहर की हर बड़ी शख्सियत आती। चाहे वे राजनेता हों अथवा नौकरशाह या उद्यमी। कई बार ये लोग मेरे न चाहते हुए भी मेरे घर आ जाते। चूंकि मेरा परिवार काफी दरिद्र परिवार था इसलिए मेरे हर रिश्तेदार चाहते कि मैं उनकी सिफारिश करवा कर कोई ठेका दिलवा दूं किसी की नौकरी लगवा दूं अथवा किसी को कोई भूखंड दिलवा दूं। इससे ऊपर बेचारे सोच भी नहीं सकते थे। मैं यह सब काम नहीं करता और न इन्हें प्रोत्साहित करता हूं। मैने जीवन में मुफ्त का कुछ नहीं लिया उलटे अपनी सैलरी का २५ प्रतिशत हिस्सा जकात यानी दान में ही खर्च किया है। सो मैं कहता कि अगर किसी को कोई तकलीफ है तो मुझसे ले लो मैं किसी की सिफारिश नहीं करूंगा। नतीजा यह निकला कि अधिकांश मिलने वाले मेरे विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करने लगे। हर कोई मेरा चाल, चरित्र और चेहरे पर टिप्पणी करने लगा कि एक मैं घमंडी हंू, दूसरा कान का कच्चा हूं और तीसरा जो हर सफल आदमी पर आरोप लगता है कि मेरा चरित्र ठीक नहीं है। मैं बंदरघुड़कियों से नहीं डरा और जो मुझे उचित लगा वही किया। अखबार के अंदर प्रबंधन मेरे विरुद्ध हो गया और कारपोरेट आफिस तक ऐसी-ऐसी अफवाहें फैलाई गईं मानों मैं कोई खलनायक हूं। वह तो शुक्र था कि अतुल जी मुझे पसंद करते थे और समूह संपादक शशि शेखर भी जो पहले तो नापसंद करते थे पर जब मिले तो उनको लगा कि मेरे बारे में अफवाहें ही फैलाई गई हैं।
कानपुर से जाने के बाद भी हर महीने मेरा कानपुर आना-जाना लगा रहा। एक तो पिताजी अकेले रहते थे और दूसरे मेरी दोनों छोटी बहनें भी। यहां तक कि एक बेटी का विवाह भी यहीं हुआ था। परिवार के लोगों से मिलने की इच्छा हर एक को होती है मैं कोई अपवाद तो हंू नहीं। इसलिए आता-जाता रहा। अखबारी जीवन से मुक्त होने के बाद कानपुर प्रवास कुछ ज्यादा दिनों तक का होने लगा। अभी आठ दिनों से कानपुर में हूं। इस बार मैने पाया कि कानपुर में जीवन में स्पंदन नहीं है। यह एक मरता हुआ शहर है और यहां के लोग हरदम निराशा में घिरे रहते हैं। कानपुर किसी के जीवन में उत्साह क्यों नहीं पैदा कर पाता? हर व्यक्ति चिड़चिड़ा, दंभी और हठी भी है। नौकरियां यहां हैं नहीं, व्यापार मंदा है लेकिन लोग जी रहे हैं तो आत्मविश्वास खोकर या कुछ लोग ऐसे हैं जो परले दरजे के बेईमान और धूर्त हैं अलबत्ता वे मजे में हैं। जो जितना बड़ा बेईमान उतना ही सफल वह है। लेकिन यह तो सही है कि कानपुर में लाइफ नहीं है, स्पंदनहीन है यह शहर और यहां जीने के लिए सिवाय बेईमानी, धूर्तता और मक्कारी के और कोई रास्ता नहीं बचा।
पर फिर भी कानपुर में अभी कुछ लोग हैं जिन पर इस शहर को गर्व हो सकता है। जो इस शहर में बैठकर तमाम सारे क्रिएटिव कामों में लगे हैं। कोई साहित्य रच रहा है तो कोई चुपचाप मूर्तियां गढ़ रहा है। कोई बच्चों की जिंदगी संवारने में लगा है तो कोई कोई बुजुर्गों को नया जीवन दे रहा है। एक मरते हुए शहर की यह कला भी उसे अन्य तमाम शहरों से अलग करता है और लगता है कि कुछ तो डिफरेंट हैं कानपुर में।

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