मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

बुद्धदेब भट्टाचार्य की सादगी

सादगी का यह एक उदाहरण!
जब वह कलकत्ता था तब मैं वहां अलीपुर में रहता था। इंडियन एक्सप्रेस समूह में तब संपादक के लिए सुसज्जित आवास का इंतजाम कंपनी ही करती थी। पर कुछ संकट की वजह से मुझे रहने के लिए आरएनजी (दिवंगत श्री रामनाथ गोयनका) का कलकत्ता में अलीपुर स्थित आवास दे दिया गया था। हालांकि आरएनजी की मृत्यु के बाद उसे गेस्ट हाउस ही बना दिया गया था। करीब ढाई एकड़ में फैले उस विशालकाय बंगले में मेरी हैसियत उस झींगुर जैसी ही थी जो स्वर्णाभूषणों के किसी डिब्बे में बैठ गया हो। वहां पड़ोस में सिंघानिया, खेतान. विमल जालान, साहू जैन जैसे मारवाड़ी सेठ लोग रहते थे। किसी से पड़ोस में अभिवादन तक करने की औकात आर्थिक रूप से कंगले इस संपादक में नहीं थी। पर एसी एम्बेसडर कार जरूर दी गई थी, ड्राईवर भी। बंगले में कुक समेत हर तरह की सेवा को हाज़िर नौकर थे। वहां महराज यानी कुक (मारवाड़ी अपने कुक को "महराज" के संबोधन से बुलाते हैं। शायद इसलिए कि ये कुक ब्राह्मण ही रखे जाते हैं। मेरा कुक ओडिया ब्राह्मण था और एकदम चीकट जनेऊ पहने रहता था। बेहद गरीब लेकिन गज़ब का वफादार और हद दर्जे का मेहनती।) मेरे लिए तो अच्छी क्वालिटी का "अरवा" चावल बनाता लेकिन अपने और अन्य नौकरों के लिए "उसना"। एक दिन यह पता चलने पर मैंने उससे कहा कि यह अन्नाय है, तो वह बोला- "बाबू यही चलता आया है"। बाद में मैंने अपने कारपोरेट एडिटर श्री Om Thanvi से कहकर अपने लिए दूसरे आवास का प्रबंध करा लिया। मेरा यह आवास साल्ट लेक में था। मैं वहां शिफ्ट हो गया। साल्टलेक में मुख्यमंत्री ज्योति वसु भी रहते थे। उनके बंगले के ठीक सामने सेंट्रल पार्क था। जहाँ सुबह आठ बजे तक एंट्री फ्री थी और उसके बाद 5 रुपये फी आदमी। अब मैं ठहरा अख़बार का आदमी, सो कर ही 8 बजे उठता और रोजाना 5 रुपये देना खलता। एक दिन मैंने देखा कि ज्योति बाबू अपने लॉन में एक कुर्सी डाले बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। मैं लपक कर उनके पास गया और अपनी गलत-सलत अंग्रेजी में अपनी व्यथा कह डाली। अब ज्योति बाबू ने जैसा भी समझा हो पर यह जरूर कर दिया कि मेरी एंट्री वहां 8 के बाद भी फ्री कर दी गई। और जब वह कोलकाता हो गया तब मुख्यमंत्री हुए बुद्धदेब भट्टाचार्य। उनसे मेरी एक बार नन्दन में दोस्ती हो गयी थी। तब भी वह वेस्ट बंगाल के गृह मंत्री थे तथा धोती-कुरता और चप्पल पहने वे रोजाना नन्दन में दिख जाया करते। वे तब दो कमरे के एक सरकारी फ्लैट में रहते थे और उनकी पत्नी शायद किसी कालेज में लायब्रेरियन थीं। मैं नन्दन में एक बार उनसे मिला। अपना परिचय देते हुए जैसे ही मैंने उन्हें बताया कि "सर आई फ्रॉम कानपुर", वे फ़ौरन बोले- "ओह द सिटी ऑफ़ कामरेड रामासरे", मैंने कहा "जी"। उसके बाद तो ऐसे सम्बन्ध बने कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद पहला इंटरव्यू मुझे ही दिया। और उसे इंडियन एक्सप्रेस ने भी हिंदी से अंग्रेजी में उल्था कर छापा। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बुद्धदेब बाबू उसी फ्लैट में रहे और उनकी पत्नी पहले की तरह ही बस से ही आती-जाती रहीं और उनकी बेटी भी अपने कालेज बस या ट्राम से ही जाती। वहां कितनी बार ऐसा हुआ कि मुख्यमंत्री राइटर्स बिल्डिंग स्थित अपने कक्ष में मेरा इंतजार करते। ऐसी सादगी और विनम्रता दिखा पाएंगे "आप" के लोग?

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