पत्रकारिता की घिसी हुयी सीढियां!
शम्भूनाथ शुक्ल
(जब से अखबार से रिटायर हुआ हूं लोग समझते हैं कि मैं तो निठल्ला बैठा ही
हूं इसलिए जिसे देखो आग्रह किए जा रहा है कि आप अपने पत्रकारिता के संस्मरण
लिखिए। जैसे पत्रकार को अपनी कोई राजनीतिक विचारधारा रखने का हक ही नहीं
है। क्योंकि जैसे ही मैं कोई राजनीतिक पोस्ट डालता हूं असंख्य लोग कोसना
शुरू कर देते हैं। चलिए अब अपने राजनीतिक
विचार अपने मन में ही रखता हूं और पत्रकारिता के अपने अनुभव ही साझा कर रहा
हूं। लेकिन धैर्य बरतिएगा क्योंकि ये संस्मरण केवल एक ही पोस्ट के जरिए तो
लिखे नहीं जा सकते।)
"जब से विजुअल मीडिया का दौर आया है पत्रकारिता
एक ग्लैमरस प्रोफेशन बन गया है। पर हमारे समय में दिनमान ही पत्रकारिता का
आदर्श हुआ करता था और रघुवीर सहाय हमारे रोल माडल। लेकिन उनकी दिक्कत यह थी
कि वे साहित्यकार थे और पत्रकारिता उनके लिए दूसरे दरजे की विधा थी। पर
दिनमान वे पूरी पत्रकारीय ईमानदारी से निकालते थे। हमारे घर दिनमान तब से आ
रहा था जब उसके संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे। लेकिन जब
मैने उसे पढऩा शुरू किया तो संपादक रघुवीर सहाय हो गए थे। दिनमान हम पढ़ते
जरूर थे। उसके तीखे तेवर, हर विषय पर सामयिक टिप्पणी और उसके शीर्षक। सदस
(सर्वेश्वरदयाल सक्सेना) का नियमित कालम तथा श्याम लाल शर्मा, शुक्ला
रुद्र, सुषमा पाराशर, त्रिलोक दीप और जवाहर लाल कौल के लेख और रपटें। पर
बनवारी जी ने जब इस पत्रिका में कदम रखा तो इसके तेवर ही बदल गए और यह एक
विशुद्ध रूप से सामयिक पत्रिका बन गई। बनवारी जी के लिखने की स्टाइल ही
अलग थी। चाहे वह नेपाल के चुनाव की रपटें हों या दिल्ली में कुतुब मीनार की
सीढिय़ों से फिसल कर ४२ बच्चों की मौत की रपट। अब तो शायद लोगों को पता भी
नहीं होगा कि आज से ३२ साल पहले तक कुतुब मीनार पर चढ़ा भी जा सकता था।
लेकिन १९८२ में एक भयानक दुर्घटना घटी। कुतुब मीनार देखने आई छात्राओं की
एक भीड़ भरभराती हुई तीसरी मंजिल से नीचे आ गिरी, उसमें ४२ छात्राएं मरीं।
बनवारी की इस रपट की हेडिंग थी घिसी हुई सीढिय़ों पर मौत। मुझे यह शीर्षक
इतना आकर्षक और रपट इतनी कारुणिक लगी कि मैं सिर्फ बनवारी जी से मिलने के
लिए साढ़े चार सौ किमी की यात्रा तय कर कानपुर से दिल्ली आ गया। चूंकि मैं
हावड़ा-दिल्ली (इलेवन अप) एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली आया था और वह ट्रेन सुबह
पांच बजे ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आ जाया करती थी इसलिए पूरे तीन
घंटे तो प्लेटफार्म पर ही वाक कर काटे और आठ बजे के आसपास वहां से पैदल ही
दिनमान के दफ्तर के लिए निकल पड़ा। ठीक नौ बजे १० दरियागंज स्थित टाइम्स
बिल्डिंग में पहुंच गया। पता लगा कि बनवारी जी तो दस के बाद आएंगे। लेकिन
वहां मौजूद सक्सेना नामके चपरासी ने चाय पिलाई और समोसे लाकर खिलाए। मैं
उसकी सज्जनता से गदगद था। उसने बताया कि टाइम्स से उसे १२ सौ रुपये महीने
पगार मिलती है जो मेरी पगार से ड्यौढ़ी थी जबकि मैं कानपुर में दैनिक जागरण
में उप संपादक था। खैर करीब सवा दस बजे बनवारी जी आए। मैं उनसे जाकर मिला।
वे हल्की लाइनों वाला कुरता तथा एकदम झकाझक सफेद पायजामा धारण किए हुए एक
बेहद सौम्य और उत्साही पत्रकार लगे। पर यह भी महसूस हुआ कि शायद पत्रिकाओं
के संपादक कुछ हौवा टाइप के हुआ करते थे। क्योंकि बनवारी जी मुझसे बात करते
समय कुछ सहमे से लगे और बार-बार संपादक रघुवीर सहाय के केबिन की तरफ देख
लिया करते थे। ऐसा लग रहा था कि अभी एक दरवाजा खुलेगा और एक डरावना सा
अधबूढ़ा संपादक निकलेगा। जो महान कवि होगा और महान चिंतक भी। लेकिन ऐसा कुछ
नहीं हुआ और केबिन खुला तो खाकी रंग की एक जींस नुमा पैंट पहने एक व्यक्ति
निकला और लंबे-लंबे संगीतकार जैसे बालों वाले सदस की टेबल तक गया फिर उसने
हाल पर नजर डाली मुझे भी देखा और लौट गया। बनवारी जी ने बताया कि वे
रघुवीर जी थे। मेरी मिलने की बहुत इच्छा हुई लेकिन न तो बनवारी जी ने मेरी
उनसे मुलाकात के लिए बहुत उत्कंठा जताई और न ही वे सज्जन हाल में ज्यादा
देर तक रुके थे। इसलिए मन मारकर चला आया। दिल्ली में तब तक किसी को जानता
नहीं था इसलिए नई दिल्ली स्टेशन गया। पता लगा कि गोमती जाने को तैयार है।
टिकट लिया कुल बीस रुपये अस्सी पैसे का। और ट्रेन में जाकर बैठ गया। तब
गोमती एक्सप्रेस नई-नई चली थी। और दिल्ली के बाद सीधे कानपुर आ कर ही रुकती
थी। सामने वाली बर्थ पर जो मोहतरमा थीं वे कोई लखनऊ के नवाब परिवार से
ताल्लुकात रखती थीं। जब भी वे अपना पानदान खोलतीं तो पूरा कोच उसकी गमकती
खुशबू से भर जाता।"
(बाकी के संस्मरण पढऩे के लिए अब कल का इंतजार करिए।)
पत्रकारिता के संस्मरण- दो (कल से आगे के संस्मरण)
यहां कुछ भी दाएं या बाएं नहीं है।
शंभूनाथ शुक्ल
पत्रकारिता में कुछ भी दाएं-बाएं नहीं होता। यहां पर तो जो कुछ है वह सपाट
है, स्ट्रेट है और यथास्थितिवादी है। बस उसके अर्थ अलग-अलग निकाले जाते
हैं। राइट अपने हिसाब से मायने निकालता है और लेफ्ट अपने लिहाज से। इसीलिए
देखिए कि चाहे वे वामचिंतक हों या दाम चिंतक सहारा एक ही रिपोर्ट का लेते
हैं और परस्पर उसी के भरोसे युद्ध चलाते
हैं। जब दिनमान सूर्य की भांति अपनी चमक बिखेर रहा था तभी धूमकेतु की भांति
उदय हुआ रविवार। धर्मयुग के दो पुराने सहयोगी सुरेंद्र प्रताप सिंह और
उदयन शर्मा की जोड़ी ने इस साप्ताहिक पत्र को कलकत्ता से निकाला। बंगला के
मशहूर अखबार आनंदबाजार पत्रिका समूह की तरफ से निकाले गए इस साप्ताहिक ने
बाजार में आते ही पत्रकारिता के सारे रंग-ढंग बदल डाले। यह दिनमान की भांति
धीर-गंभीर नहीं बल्कि चंद्रमा की तरह चंचल और सुर्ख था। जनता पार्टी के
शासन काल में यह व्यवस्था विरोध के नाम पर निकाला गया और पहली बार लगा कि
पत्रकारिता से सरकारें डरने लगी हैं, राजनेता भय खाने लगे हैं। और पत्रकार
की हैसियत उनके बीच एक मध्यस्थ की बन गई है।
पहली बार रविवार ने उन क्षेत्रों और उन प्रतीकों पर लेख लिखवाए जो तब तक की शालीन और मर्यादित पत्रकारिता के लिए वर्जित था।
अप्रैल १९७८ में रविवार में मेरी एक स्टोरी छपी 'अर्जक संघ उत्तर प्रदेश
का डीएमके'। इसके बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह से चिट्ठियों के जरिए संवाद का
सिलसिला शुरू हुआ। तभी वहां कुछ नई भरतियां शुरू हुईं मैने भी आवेदन किया
और कानपुर से तीन लोगों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। एक मैं, दूसरे
संतोष तिवारी और तीसरे बलराम। साथ ही यह भी बताया गया कि आने-जाने का
किराया दिया जाएगा। यह दूसरी बात ज्यादा उत्साहित कर रही थी। इंटरव्यू में
पास हो या फेल किराया मिलेगा। हम तीनों तूफान मेल पकड़ कर अगले रोज शाम को
पहुंच गए हावड़ा। वहीं हावड़ा होटल में सामान रखकर चल दिए कलकत्ता। अति
उत्साह में इंटरव्यू के एक दिन पहले ही आनंदबाजार पत्रिका के दफ्तर में
पहुंच गए। रिशेप्सन में एक आदमी जोर-जोर से अंग्रेजी में हल्ला कर रहा था।
और रिशेप्शन पर बैठा आदमी सहमा हुआ सा उसे बांग्ला में समझा रहा था। पता
चला कि हल्ला करने वाला शख्स रघु राय हैं। मशहूर फोटोग्राफर। हमने नमस्ते
किया तो उन्होंने कोई जवाब तक नहीं दिया। अंदर जिस केबिन में रविवार का
दफ्तर था वह मुश्किल से आठ बाई दस का एक कमरा था जिसके एक कोने में
सुरेंद्र प्रताप सिंह बैठे थे। उनकी टेबल के सामने का हिस्सा कुछ उठा हुआ
था शायद स्पांडलाइटिस से बचने के वास्ते यह व्यवस्था हुई होगी। उनके सामने
साइड में अनिल ठाकुर और कुछ ही दिनों पहले 'भगवान' के घर चार दिन बिताकर
लौटे राजकिशोर बैठे थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलकर अच्छा लगा और महसूस
हुआ कि यह आदमी तो हम लोगों जैसा ही है। अगले रोज इंटरव्यू में सारे सवाल
तो ठीक पाए गए लेकिन जब स्नातक की डिग्री दिखाने को कहा गया तो सिवाय बलराम
के हम और संतोष तिवारी सिफर निकले। संतोष की पढ़ाई जारी थी और मैने बी
एससी पार्ट वन करके पढ़ाई छोड़ दी थी और घर से भागकर पहले कलकत्ता फिर पटना
और अंत में वाराणसी सारनाथ आ गया था जहां से पिताजी मुझे पकड़ कर लाए थे।
लेकिन इन तीन सालों की भागादौड़ी में मैने सारनाथ रहकर पाली सीख ली थी। बाद
में इमरजेंसी के कुछ पहले एक साप्ताहिक अखबार निकाला और इमरजेंसी में छापा
पड़ा तो गांव चला गया जहां बाबा ने शादी करवा दी। बाद में फिर पढ़ाई
अवरुद्ध होती ही चली गई। सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि आनंद बाजार
पत्रिका समूह के नियमों के मुताबिक ग्रेजुएट होना जरूरी है। पर हमें कोई
मलाल नहीं था। कलकत्ता घूमना हो ही गया। संतोष तिवारी तो वापस चले गए लेकिन
मैं और बलराम वहीं कुछ और दिनों तक के लिए रुक गए। पर तभी १९७८ की भयानक
बारिश के चलते ट्रेनें ठप हो गईं और बड़ा बाजार में नावें चलने लगीं। पैसा
जो लाए थे वह भी खत्म होने लगा इसलिए हमने बड़ा बाजार गुरुद्वारे में जाकर
शरण ली। सुबह शाम लंगर छकते और बाकी समय वहीं कोठरियों में रात काटते। एक
दिन ऊबकर हम फिर सुरेंद्र प्रताप सिंह के पास गए और उनसे अपना दुखड़ा रोया
कि हमारे पास पैसे खत्म हो गए हैं। जो आपके यहां से किराये के पैसे मिले थे
वे भी और ट्रेनें बंद पड़ी हैं हम जाएं तो कैसे जाएं। सुरेंद्र जी में गजब
की आत्मीयता थी। उन्होंने तत्काल आनंद बाजार प्रबंधन से कह कर हमारे जाने
के लिए लखनऊ तक का हवाई टिकट मंगवा दिया और सौ-सौ रुपये भी दिए यह कहकर कि
भविष्य में जरा जल्दी ही लेख भेज देना उसी में काट लिया जाएगा। हमारी खुशी
का पार नहीं था। तब हवाई यात्रा के तो हम हवाई किले ही बनाया करते थे और
ऊपर से सौ-सौ रुपये। खैर हम वाया लखनऊ वापस आ गए। बिना उन सौ रुपयों में से
एक पैसा खरचे। अमौसी हवाई अड्डे पर उतरते ही हमने पहला काम तो यह किया कि
अमौसी रेलवे स्टेशन तक पैदल गए और वहां से भारतीय रेल सेवा की फ्री सेवा
ली। जब हम कानपुर सेंट्रल से पैदल चलकर घर पहुंचे तो सौ रुपये यथावत थे।
अब यह अलग बात है कि हम तीनों में से किसी का भी रविवार में चयन नहीं हुआ।
हमने कहा कि हो जाता तो भी हम नहीं जाते। एक तो रविवार के कमरे में बैठने
की जगह तक नहीं है दूसरे कलकत्ता की बारिश और बाढ़ का क्या ठिकाना!
(बाकी के संस्मरण अब कल पढि़एगा।)
पत्रकारिता के संस्मरण पार्ट- तीन (गतांक से आगे)
सिर्फ शहरों के बूते नहीं पनपते अखबार
शंभूनाथ शुक्ल
रविवार ही नहीं बगैर ग्रेजुएशन कंपलीट किए सांस्थानिक मीडिया हाउसों में
नौकरी मिलने से रही और कालेज जाकर पढ़ाई करने का मन नहीं करता था। वहां जो
प्रोफेसर थे वे कभी मेरे साथ पढ़ चुके थे। उम्र करीब २५ साल हो आई थी और
पुत्री का पिता भी बन चुका था। फ्रीलांसिंग में पैसा तो था पर स्थायित्व
नहीं। इसलिए नौकरी कर लेने की ठानी। मैने
एक कहानी लिखी वंश हत्या, जो दैनिक जागरण के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी।
यथार्थवादी समानांतर कहानी का युग था। उसके छपते ही हंगामा मच गया और दैनिक
जागरण के समाचार संपादक हरिनारायण निगम ने मुझसे पूछा कि नौकरी करोगे?
मैने कहा जी तो बोले कि ठीक कल आ जाना। अगले दिन उन्होंने मुझे दैनिक जागरण
के मालिक संपादक नरेंद्र मोहन जी से मिलवाया। जिन्हें वहां सब मोहन बाबू
कहते थे। वहां एक और सज्जन, जो भी शायद कोई शुक्ला ही थे वे टोपी तो नहीं
लगाए थे लेकिन अपने कुरते की आधी बाजू समेटे हुए थे, को भी इंटरव्यू के लिए
बुलाया गया था। वे श्रीमान शुक्ल जी हाई स्कूल से लेकर एमए हिंदी तक प्रथम
श्रेणी में थे तथा पी एचडी कर रहे थे। मोहन बाबू ने मेरे सामने ही उनसे
पूछा कि एक निजी कार और टैक्सी में क्या फर्क है? वे बोले- टैक्सी
काली-पीली होती है। मोहन बाबू उनके जवाब से खुश नहीं हुए और यही सवाल मुझसे
दोहरा दिया। जाहिर है एक जवाब मुझे मिल ही चुका था। और अब उसे दोहराने का
कोई मतलब नहीं था इसलिए मैने कहा कि टैक्सी की नंबर प्लेट सफेद पर उसकी
लिखावट काली होती है और प्राइवेट कार की नंबर प्लेट काली पर नंबर सफेद से
लिखे जाते हैं। मालूम हो तब तक ऐसा ही होता था। अब तो निजी कार की नंबर
प्लेट सफेद और नंबर काले होते हैं। मोहन बाबू खुश और चयन तय। न उन्होंने
पूछा कि ग्रेजुएट हो या नहीं न मैने बताया। और यह बात मैने हरिनारायण निगम
साहेब को भी नहीं बताई थी। मेरा चयन हो गया पर कार्मिक विभाग ने जब मेरी
पढ़ाई लिखाई का ब्यौरा मांगा तो मैने अपने को स्नातक बता दिया। लेकिन
डिग्री या माक्र्सशीट कहां से लाऊँ? अंत में मैने वहां पर तब मैगजीन एडिटर
विजय किशोर मानव से सलाह ली और न्यूज एडिटर हरिनारायण निगम को सारा किस्सा
बता दिया। मोहन बाबू ने कहा कि ठीक है नौकरी चलती रहेगी लेकिन होगी ठेके
पर। जब तक स्नातक नहीं कर लेते ग्रेड नहीं मिलेगा। साढ़े चार सौ रुपये
महीने की पगार तय हुई। लेकिन यह ठेके की नौकरी मेरे लिए मुफीद हो गई। इसमें
न तो कोई हाजिरी का झंझट था न समय का और खूब लिखने-पढऩे तथा फ्रीलांसिंग
की पूरी आजादी। यहां तक कि जो कुछ मेरा दैनिक जागरण में भी छपता उसका भी
पैसा मिलता। तब मोहन बाबू हर सोमवार को संपादकीय विभाग की एक बैठक करते और
कुछ सवाल पूछते जो उसे बता देता उसकी जय-जय। कुछ ऐसा हुआ कि पहली ही बैठक
में मोहन बाबू ने पूछा कि बताओ फाकलैंड कहां है? उन दिनों फाकलैंड पर कब्जे
को लेकर अर्जेंटीना और ग्रेट ब्रिटेन में युद्ध चल रहा था। मैं चूंकि फ्री
लांसिंग के चक्कर में इंडियन एक्सप्रेस घर पर मंगाया करता था इसलिए इस
सवाल का जवाब दे दिया। बाकी के सब मुँह ताकते रहे। मोहन बाबू बड़े खुश हुए
और मेरा उसी रोज से पचास रुपये महीने मेहनताना बढ़ गया। जब मैं जागरण में
भरती हुआ तब दिसंबर १९७९ चल रहा था। अपने राजनीतिक गुरु डॉक्टर जेबी सिंह
के आग्रह पर मैने कालेज में एडमिशन ले लिया और १९८१ की जुलाई में मेरा
ग्रेजुएशन कंपलीट। लेकिन तब कानपुर विश्वविद्यालय का सत्र इतना लेट चल रहा
था कि रिजल्ट आते-आते १९८२ आ गया और तब मुझे मिल पाया दैनिक जागरण में सब
एडिटर का ग्रेड। लेकिन इस बीच भले मैं ठेके पर काम करता रहा पर मोहन बाबू
और निगम साहेब ने मुझसे हर तरह की रिपोर्टिंग कराई। खूब बाहर भेजा और
गांव-गांव जाकर मैने मध्य उत्तर प्रदेश की दस्यु समस्या और गांवों में
उभरते नए जातीय समीकरण तथा नए प्रतीकों पर शोध ही कर डाला।
इसी दौरान
में मैं मैनपुरी एटा के दस्यु छविराम यादव उर्फ नेताजी से मिला। इटावा के
मलखान सिंह से मिला, बाबा मुस्तकीम से मिला। तब तक शायद डकैतों से मिलना
आसान नहीं हुआ करता था और डाकुओं के बारे में वैसी ही अफवाहें हुआ करती थीं
जैसी कि सुनील दत्त की फिल्में देखकर लोग बनाया करते थे। लेकिन हर डकैत से
मैं गांवों के बीचोबीच उनके ठिकानों पर ही मिला और पूरा गांव जानता था कि
ये पत्रकार किसके घर जा रहा है। इसके बाद मैने बुंदेलखंड पर ध्यान फोकस
किया और वहां की सामाजिक समस्याओं पर लिखा।
एक दिन मैं जागरण के
सर्वोदय नगर स्थित दफ्तर से रात करीब नौ बजे निकलकर घर जा रहा था। पैदल ही
था और सोचा कि कुछ दूर आई हास्पिटल से टैंपू पकड़ लूंगा। लेकिन दफ्तर से और
आई हास्पिटल तक का करीब आधे किमी का रास्ता एकदम सूना और बीच में खूंखार
कुत्तों का इलाका था। मैं गेट से निकलकर कुछ ही कदम बढ़ा था कि एक लंबी सी
कार मेरी बगल से गुजरी। कार मोहन बाबू की थी। मेरे मन में एक ख्याल कौंधा
कि काश मुझे भी इस कार में बैठने का मौका मिले। आश्चर्य कि वह कार अचानक
बैक होने लगी और मेरे बगल में आकर रुकी। अंदर मोहन बाबू बैठे थे। उन्होंने
खिड़की का सीसा खोला और बोले- अंदर आ जाओ शंभूनाथ। मैं उनकी सौजन्यता से
अभिभूत था। मैने कहा नहीं भाई साहब मैं चला जाऊँगा। पर मेरी नकार के बावजूद
उन्होंने मुझे कार में बिठा लिया। मैने उनसे कहा कि भाई साहब मेरा गांव
यहां से कुल तीस किमी है पर अपना अखबार वहां तीन दिन बाद पहुंचता है। ऐसी
कोई व्यवस्था होनी चाहिए कि अखबार वहां भी रोज का रोज पहुंचे। लोग अखबार
पढऩा चाहते हैं। इस एक बात ने पता नहीं क्या असर डाला मोहन बाबू पर कि अगले
ही रोज उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा कि शंभूनाथ कल से तुम
कानपुर से लेकर एटा तक और दूसरी तरफ सुल्तानपुर तक और बुंदेलखंड में महोबा
तक खूब दौरा करो और स्टोरी निकाल कर लाओ अखबार मैं गांव-गांव पहुंचा दूंगा।
और इसके बाद मैं हो गया दैनिक जागरण का रोविंग करस्पांडेंट।
(अभी कल आगे का हिस्सा और ये संस्मरण अब लगातार जारी रहेंगे।)
पत्रकारिता के संस्मरण- चार (तीसरे अंक से आगे)
जैसा मैं बोलूं वैसा तू लिख!
शंभूनाथ शुक्ल
28 मई सन् 1983, दिन के 11 बज रहे थे। दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग
स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग की बेसमेंट में कई लोग एक कड़ी परीक्षा से रूबरू
थे। कोई 50 से ऊपर सवालों वाला परचा सामने था। इसी में एक सवाल था कि इस
पैरे की सबिंग करिए। पैरे में लिखा था- 'जयपुर के पास एक ढाणी में
..........।' अब हमने कस्बा सुना था, गांव
सुना था, हम पुरवा, खेड़ा, मजरा और पिंड भी जानते थे पर ढाणी पहली बार सुन
रहे थे। अपने आगे बैठे राजीव शुक्ला की कुर्सी को मैने पीछे से धक्का दिया
और कहा 'राजीव ये ढाणी क्या है?' राजीव ने जवाब दिया कि 'प्रभाष जोशी से
पूछो।' तभी अकस्मात एक सौम्य से सज्जन आँखों पर मोटा चश्मा लगाए प्रकट हुए
और पास आकर बोले- 'मैं प्रभाष जोशी हूं।' मैं हड़बड़ा कर अपनी सीट से खड़ा
हो गया और कहा- 'भाई साहब मैं शंभूनाथ कानपुर से आया हूं।' वे बोले- 'पता
है।' और फिर ढाणी के मायने बताए लेकिन मैं इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली
संस्करण के तत्कालीन रेजीडेंट एडिटर प्रभाष जोशी की सादगी को चकित सा देखता
रहा। वे चले भी गए लेकिन मैं ढाणी का अर्थ समझ नहीं सका। और जस का तस ढाणी
ही लिख के वापस कानपुर आ गया। 15 दिन भी नहीं बीते होंगे कि इंटरव्यू का
तार आ गया। अबकी कुछ लोग पिछले वाले दिखे और सब के सब घबराए से थे क्योंकि
जो लोग इंटरव्यू लेने आए थे वे सब अंग्रेजी के महारथी पत्रकार थे। जार्ज
वर्गीज, लक्ष्मीकांत जैन, राजगोपाल और कोई देसाई तथा खुद प्रभाष जोशी। सब
डर रहे थे कि कैसे इनके सामने अपनी बात कह पाएंगे। राजीव का कहना था कि
'चला जाए, कोई फायदा नहीं हम इस इंटरव्यू को पास नहीं कर पाएंगे।' लेकिन
प्रभाष जोशी के पीए रामबाबू ने कहा कि 'आने-जाने का किराया लेना है तो
इंटरव्यू तो फेस करना ही पड़ेगा।'
अपना नंबर आया। भीतर घुसा तो वहां का
माहौल तनिक भी बोझिल या अंग्रेजीदां नहीं लगा। मध्य उत्तर प्रदेश के मेरे
शोध पर ही सवाल पूछे गए और सबने हिंदी में ही पूछे। मैने राहत की सांस ली
और लौट आया। एक दिन प्रभाष जी का पत्र आया कि आपका चयन हो गया है और 20
जुलाई तक इंडियन एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार जनसत्ता में
उप संपादक के पद पर आकर ज्वाइन कर लें। प्रभाष जी का यह पत्र अविस्मरणीय था
और आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पत्र की भाषा में इतनी रवानगी और ताजगी थी
कि बस उड़कर दिल्ली चला जाऊँ।
19 जुलाई को दैनिक जागरण के प्रबंध
संपादक दिवंगत पूर्णचंद्र गुप्त को त्यागपत्र लिखा और रजिस्टर्ड डाक से भेज
दिया। तथा 20 की सुबह मैं गोमती एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली आ गया। नई दिल्ली
स्टेशन पर ही राजीव शुक्ला मिल गए। वे भी उसी ट्रेन से आए थे। हम वहां से
आटो पकड़कर पहुंच गए एक्सप्रेस बिल्डंग। वहां पर प्रभाष जी ने बताया कि अभी
आफिस बन नहीं पाया है इसलिए अब एक अगस्त को आना। हम सन्न रह गए। मैं तो
बाकायदा इस्तीफा देकर आया था। अजीब संकट था अगर अखबार नहीं निकाला गया तो
पुरानी नौकरी भी गई। राजीव शुक्ला ने कहा कि इस्तीफा देना ही नहीं था। मैं
तो निगम साहब को बताकर आया हूं कि अगर नहीं आया तो इस्तीफा बाद में भेज
दूंगा। तुम तो इस्तीफा दे आए हो और अब 19 दिन के काम का पैसा भी नहीं
मिलेगा। अब पछतावा होने लगा लेकिन हो भी क्या सकता था। हम उस रोज सरदार
पटेल रोड स्थित यूपी भवन में रुके। वह राजीव ने ही अपने किसी परिचित विधायक
के ज़रिये बुक कराया था। तब यूपी भवन नया-नया बना था। गजब की बिल्डिंग थी।
शाम को अपना-अपना सामान संतोष तिवारी के यहां रखा और अगले रोज पुरी
एक्सप्रेस पकड़कर कानपुर पहुंच गए। पिता जी ने कह दिया कि अब भुगतो तुम
दरअसल कुछ कर ही नहीं सकते। घर में किसी ने भी मेरे पछतावे को नहीं महसूस
किया और सब ने मुझसे मुंह फुला लिया।
ये दस दिन किस तरह कटे मुझे ही
मालूम है। पहली बार पता चला कि वाकई दस दिन में दुनिया उलट-पुलट हो जाती
है। लेकिन इस बार एक अगस्त को नहीं दो अगस्त को मैं आया। इस बार दफ्तर
सुसज्जित था। हमारे बैठने की व्यवस्था हो गई थी। पर बैठना निठल्ला ही था
क्योंकि अखबार कब निकलेगा, यह किसी को नहीं पता था।
दिल्ली में ठहरना
और भी कठिन था। एकाध दिन तो संतोष तिवारी के यहां रुक सकते थे लेकिन फिर
राजीव ने ही मद्रास होटल में रहने की व्यवस्था की और हम पूरा हफ्ता वहीं
रुके। पर कनाट प्लेस के इस होटल में तो दूर आसपास भी कहीं अरहर की दाल की
व्यवस्था नहीं थी ऊपर से आफिस में दिन भर प्रभाष जी का भाषण सुनना पड़ता था
और उनकी अटपटी हिंदी भी। जनसत्ता में जिन लोगों ने ज्वाइन किया था उनमें
हम यानी मैं और राजीव ही सबसे बडे और सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार से आए थे।
ऐसे में प्रभाष जी की चोखी हिंदी सुनना बहुत कष्टकर लगता था। वे हम को अपन
बोलते और तमाम ऐसे शब्द भी बोलते जो हमारे लिए असहनीय थे। मसलन वे चौधरी
को चोधरी बोलते और ऊपर से तुर्रा यह कि वह यह भी कहते- 'जिस तरह मैं बोलता
हूं उस तरह तू लिख।' वे हर बार मालवा की बोली को ही हिंदी का उत्तम नमूना
बताते। अब प्रभाष जी की यह अहमन्यता हमें बहुत अखरती। हम जिस बोली वाले
इलाके से आए थे वहां हिंदी सबसे अच्छी बोली जाने का हमें गुरूर था और इस
बात पर भी कि हमारी बोली साहित्यिक रूप से सबसे समृद्ध है। भले उत्तर
प्रदेश में भोजपुरी, बुंदेली और बृज भी बोली जाती हो लेकिन रामचरित मानस और
पद्मावत जैसे साहित्यिक ग्रंथ हमारी अवधी बोली में ही लिखे गए। इसलिए हमने
तय कर लिया कि हम प्रभाष जी की इस मालवी बोली के अर्दब में नहीं आने वाले
अत: अब हम बस शनिवार को कानपुर चले जाएंगे और लौटेंगे नहीं। हम शाम को वहां
से निकल लिए और फिर सोमवार को लौटे ही नहीं। एक हफ्ते बाद प्रभाष जी ने
अपने किसी परिचित के माध्यम से हम तक सूचना पहुंचाई कि हम क्यों नहीं आ रहे
हैं? तब पता चला कि कानपुर में प्रभाष जी की ससुराल है। हम फिर वापस
दिल्ली आए और प्रभाष जी से मिले। उन्होंने पूछा कि क्या परेशानी है? हमने
कहा कि यहां अरहर की दाल नहीं मिलती। बोले ठीक है मैं इंतजाम करवा दूंगा और
कुछ? अब क्या कहते कि भाई साहब हमें आपकी बोली नहीं अच्छी लगती! सो चुप
साध गए। शाम को प्रभाष जी ने बुलाया और कहा कि राजघाट के गेस्ट हाउस में
चले जाओ। वहीं कमरा मिल जाएगा और खाने में अरहर की दाल भी मिलेगी। यह तो
लाजवाब व्यवस्था थी। कमरे के लिए हमें पांच रुपये फी बेड देना पड़ता और
साढ़े तीन रुपये में जो भोजन मिलता उसमें अरहर की दाल, रोटी, चावल, सब्जी
और एक मीठा भी होता। हम करीब महीने भर वहीं रहे। बल्कि हमारी इच्छा तो वहीं
रहने की थी। क्योंकि जो भी नई भरती आती हम उसे वहीं रुकवा लेते। पहले तो
सत्यप्रकाश त्रिपाठी आए फिर परमानंद पांडेय। यहां से दफ्तर भी इतना करीब था
कि हम टहलते हुए चले जाते। लेकिन एक दिन हमें कह दिया गया कि अब खाली करना
पड़ेगा। सत्यप्रकाश और परमानंद चले गए माडल टाउन और मैं व राजीव आ गए लोदी
कालोनी। जहां हमारे एक सहभागी कुमार आनंद टिकमाणी भी थे। लेकिन तीन बेड
रूम का वह आलीशान फ्लैट धीरे-धीरे धर्मशाला बन गया। उसमें कभी फक्कड़ की
तरह आलोक तोमर तो कभी उमेश जोशी आ धमकते। एक दिन हमने इस धर्मशाला को छोड़
लेने का मन बना लिया।
(अब आगे का हिस्सा कल पढि़एगा।)
पत्रकारिता के संस्मरण- पांच (चौथे हिस्से के बाद का भाग)
जिसने भी बाजार को पकड़ा वही मीर हुआ
शंभूनाथ शुक्ल
१९८० के दशक को पत्रकारिता का स्वर्ण काल कहा जा सकता है। दशक की शुरुआत
में ही इंदिरा गांधी का पुन: राज्यारोहण हो चुका था और गैर कांग्रेसी
सरकारों से लोगों का मोहभंग होने लगा था। लेकिन इस बार सदैव से सोवियत संघ
के पाले में रहीं इंदिरा गांधी का झुकाव अमेरिका की तरफ बढ़ चला था और संजय
गांधी राजनीति में सबसे ताकतवर इंसान थे।
संजय के चलते दक्षिणपंथी राजनीति अचानक इंदिरा गांधी के प्रति उदार हो उठी
थी। लेकिन संजय गांधी भरोसेमंद नहीं थे। वे एक आक्रामक और तत्काल फल चाहने
वाले राजनेता थे। तथा हर तरह का जोखिम उठाने को तत्पर। वे कांग्रेस के
परंपरागत वोट बैंक ब्राह्मण, तुर्क व दलित के समीकरण को ध्वस्त करते चल रहे
थे। इमरजेंसी के दौरान दिल्ली के तुर्कमान गेट की मुस्लिम आबादी को जिस
तरह उन्होंने उजाड़ डाला था उससे आरएसएस समर्थक तबका तो खुश था लेकिन उदार
और लेफ्ट तबका कन्फ्यूज्ड। संजय ने तेजी दिखाई और राज्यों की सरकारें
ताबड़तोड़ गिरानी शुरू कर दीं। उनके पहले निशाने पर हिंदी राज्य रहे। यूपी,
एमपी, राजस्थान, बिहार और हरियाणा में सरकारें गिराई गईं और वहां फिर से
कांग्रेसी सरकारें फिर आ गईं। पर इस बार मुख्यमंत्री भी कांग्रेस के
परंपरागत वोट बैंक से नहीं बने। यूपी में एक पूर्व राजा वीपी सिंह इसी तरह
मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह, राजस्थान में पहले जगन्नाथ पहाडिय़ा को बनाया
गया लेकिन जल्द ही उन्हें अपदस्थ कर शिवचरण माथुर नए मुख्यमंत्री बने।
हरियाणा में भजन लाल को बनाया गया। पर उसी साल २३ जून को एक छोटा प्लेन
उड़ाते वक्त दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।
कांग्रेस के सारे
प्रांतों के मुख्यमंत्री नाकारा साबित हुए। वजह यह थी कि हिंदी राज्यों में
एक नई राजनीति पग रही थी और वह थी मध्यवर्ती और पिछड़ी कही जाने वाली
जातियों को नव उभार। दूसरी तरफ पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद पनपने लगा था।
पंजाब में सिख आतंकवाद इस तरह चरम पर था कि वहां से हिंदू पलायन करने लगे
थे और कश्मीर से पंडित भगाए जाने लगे। इंदिरा गांधी का सोवियत लाबी से अलग
होना उन्हें अनवरत कमजोर कर रहा था। देश में पूंजीवाद एक नए रूप में उभर
रहा था जो कोटा कंट्रोल पद्धति से भिन्न था और पूंजीपति लगातार बेलगाम होते
जा रहे थे। ट्रेड यूनियन्स कमजोर पड़ती जा रही थीं तथा आजादी के बाद से
राजनीति व अर्थनीति के बाबत बनाई गई सारी मर्यादाएं तार-तार हो रही थीं। यह
वह समय था कि जिसे जो कुछ बेचना हो बाजार में आए और बेचे। मीडिया एक
प्रोडक्ट के रूप में सामने आ रहा था। उसकी सारी आक्रामकता और खबरें अब एक
प्रोडक्ट को बाजार में लांच करने की हमलावर शैली जैसी थीं। इंडियन
एक्सप्रेस में अरुण शौरी ने आकर देश के उस बाजार को पकड़ा जो अभी तक अछूता
था। पहली बार भागलपुर आंख फोड़ो कांड को कवर कराया गया जहां कुछ सवर्ण
पुलिस अफसरों ने पिछड़ी जाति के अपराधियों की आंखें तेजाब डालकर या सूजा
घुसेड़कर फोड़ डाली थीं। इसी तरह उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री
अंतुले के कारनामों पर हमला बोला। इसी दौरान हुई मीनाक्षीपुरम की वह घटना
जिसने सारे हिंदू समाज को स्तब्ध कर दिया। मीनाक्षी पुरम के दलितों के एक
बड़े हिस्से ने धर्म परिवर्तन कर इस्लाम अपना लिया। पर हिंदी के अखबार इन
सब खबरों से अनजान थे और अक्सर अरुण शौरी की इंडियन एक्सप्रेस में छपी
रपटों को हिंदी में अनुवाद कर छापा करते थे।
ऐसे समय में इंडियन
एक्सप्रेस समूह ने हिंदी का नया अखबार निकाला जनसत्ता। तब तक दिल्ली में दो
ही हिंदी के अखबार अपनी पैठ बनाए थे। टाइम्स आफ इंडिया समूह का नवभारत
टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स का हिंदी हिंदुस्तान। इसमें से हिंदुस्तान में
तो रंचमात्र पत्रकारीय स्पंदन नहीं था। उसके संपादक विनोदकुमार मिश्र की
स्थिति तो यह भी नहीं थी कि वे किसी उप संपादक अथवा किसी रिपोर्टर तक को
भरती कर सकें। सारी भरतियां उसके कार्यकारी निदेशक नरेश मोहन करते। संपादक
महज एक दिखाऊ पोस्ट थी। नवभारत टाइम्स में स्थिति कुछ अलग थी। उसके प्रबंधन
ने अस्सी के बदलाव को पहचान लिया था और प्रबंधन के अपने कृपापात्र
संपादकों की फौज हटाकर पहली दफे एक तेज तर्राक पत्रकार राजेंद्र माथुर को
संपादक बनाया गया। राजेंद्र माथुर मूलत: आगरा के थे और इंदौर जाकर बस गए
थे। वे वहां पहले अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे थे और फिर नई दुनिया के
स्थानीय संपादक। राजेंद्र माथुर ने आते ही नवभारत टाइम्स का कलेवर बदल दिया
और माथुर साहब ने उसे पाठकों से जोड़ा। उनके संपादकीय के लोग इस कदर
दीवाने थे कि नवभारत टाइम्स की खबरों की बजाय उसके लेख पढ़े जाने लगे और
माथुर साहब के संपादकीय तथा लेख। माथुर साहब की राजनीतिक समझ नेहरू जमाने
की थी और उनकी मान्यताएं भी। पत्रकारिता में पुराने पर नवीन दिखने वाली इस
मान्यता को खूब स्वीकार्यता मिली। पर जनसत्ता ने तो आते ही तहलका मचा दिया।
जनसत्ता की इस सफलता के दो कारण थे। एक तो इसके संपादक प्रभाष जी ने
बाजार को खूब समझा और दूसरे हिंदी पत्रकारिता की सड़ी-गली आर्य समाजी
नैतिकता से बोली और भाषा को निकाला। उन्होंने कठिन और आर्यसमाजी हिंदी को
दिल्ली और पास के हिंदी राज्यों के अनुरूप सहज और उर्दूनुमा हिंदी को मानक
बनाया। बाजार के अनुरूप उन्होंने उस समय पंजाब में लगी आग को मुद्दा बनाया
और वहां से भाग रहे हिंदुओं के लिए जनसत्ता संबल बना तथा यूपी और बिहार में
हिंदी को संकीर्ण बनाने वाले मानक तोड़ डाले। नतीजा यह हुआ कि हर वह
व्यक्ति जनसत्ता का मुरीद हो गया जो अंदर से नए बाजारवाद का समर्थक था तथा
उसके अंदर जेपी की समग्र क्रांति को लेकर कहीं न कहीं एक नरम भाव था। बाजार
के इस नए लोकप्रिय और तथाकथित जनप्रियता का यह एक नया पैमाना था।
(बाकी का हिस्सा अब कल)