बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

देवभूमि का दुःख!

अलग होने से विकास तो नहीं ही होता!
शंभूनाथ शुक्ल
उत्तराखंड को यूपी से अलग करने का दुख मुझे बहुत हुआ था और आज भी मुझे लगता है कि ऐसा करना कोई बहुत समझदारी का काम नहीं था। पर वरिष्ठ पत्रकार प्रयाग पाण्डे पांडे की किताब 'देवभूमि का रण' बहुत सारे भ्रम दूर करती है। और पहली दफे लगा कि इस पूरे इलाके को पहले तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने फिर यूपी की लखनऊ में बैठी सरकारों ने लूटा ही था। यह अलग बात है कि यूपी में अब तक जितने भी मुख्यमंत्री हुए हैं उनमें से आठ दफे तो इसी अंचल के लोग रहे हैं और इसे यूपी में मिलाने का फैसला भी उन गोविंद बल्लभ पंत ने किया था जो खूद कुमायूं के थे।
प्रयाग पांडे ने अपनी किताब में लिखा है- "उत्तराखंड में ब्रिटिश राज के पूरी तरह कायम होने के बाद धार्मिक आस्था के केंद्र उत्तराखंड के पहाड़ों का ऐशो-आराम और हवाखोरी के केंद्र के रूप में परिवर्तित होने का क्रम शुरू हो गया। हिमालय की शास्वत नीरवता, रोमांचक और आकर्षक छवि ने अंग्रेजों को लुभाया। पहाड़ के भव्य और अनोखे नजारे अंग्रेजों को भा गए। पहाड़ों की स्वास्थ्य वर्धक एवं स्फूर्ति दायक जलवायु और आबो-हवा इंग्लैंड से मिलती-जुलती थी। पहाड़ों का स्वच्छ, शुद्ध वातावरण बच्चों के पोषण और विकास के लिए आदर्श समझा गया। इस प्राकृतिक वातावरण के कारण यहां नैनीताल जैसे हिल स्टेशन बसाए गए। पहाड़ों में आवासीय स्कूलों की स्थापना होने लगी। ब्रिटिश साम्राज्य की अखंड एवं ताकतवर सामथ्र्य के प्रतीक साम्राज्यवादी स्थापत्य शैली के भवनों का निर्माण शुरू हुआ। इससे पहाड़ का उन्मुक्त शुद्ध वातावरण और पर्यावरण बिगडऩे लगा। जबकि मुगलकाल में मुगल शासकों ने श्रीनगर में तो अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाई। पर उन्होंने उत्तराखंड के पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ नहीं की।"
प्रयाग पांडे के तर्क वजनदार हैं पर इससे अलग उत्तराखंड का तर्क गले नहीं उतरता। यूपी की सरकारों ने उत्तराखंड के लिए बहुत कुछ किया था और यूपी की मजबूत प्रशासनिक और पुलिस मशीनरी इस राज्य को ज्यादा मजबूत बना रही थी। इसका नमूना हाल ही में जून 2013 में आए सैलाब से ही देखने को मिल गया। जब अलग उत्तराखंड की सरकार इससे निपटने में एकदम नाकाम रही और इस जलजले की जिम्मेदार भी वह खुद थी। उत्तर प्रदेश के समय 1962 में 2013 की तुलना में ज्यादा बड़ा जलजला आया था पर न तो इतने अधिक जान माल का नुकसान हुआ था न इंफ्र्रास्ट्रक्चर का। संयुक्त उत्तर प्रदेश का जब हमें नक्शा समझाया जाता तो बताया जाता था कि भारत के नक्शे में जो हिस्सा गर्दन उठाए शेर का है वह उत्तर प्रदेश है। पर अब गर्दन कट गई है। न तो अलग उत्तराखंड विकास कर पाया और बाकी का उत्तर प्रदेश। देवभूमि के हट जाने के कारण शेष उत्तर प्रदेश दानवीय ज्यादा लगता है।
ऐसा ही दुख तेलांगना के अलग हो जाने के कारण विशालांध्र केे लोगों को हुआ होगा। जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1946 से 1951 तक पृथक तेलांगना आंदोलन चलाया था तब इसी कांग्रेस पार्टी ने आंदोलनकारियों का बुरी तरह दमन किया था आज वही कांग्रेस सीमांध्र के लोगों का कर रही थी। इससे बड़ा आंदोलन तो अलग दार्जिलिंग के लिए सुभाष घीसिंग ने चलाया था लेकिन पश्चिम बंग सरकार ने दार्जिलिंग को अलग नहीं होने दिया। बस एक हिल कौंसिल देकर छुट्टी पा ली।
छोटे राज्यों की शुरुआत भाजपा ने अपने हितों के लिए की थी इसीलिए यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश को काट डाला गया था। कांग्रेस तो बड़े राज्यों की हिमायती थी उसने ऐसा क्यों किया?

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

पत्रकारिता संस्मरण एक से पांच तक

पत्रकारिता की घिसी हुयी सीढियां!
शम्भूनाथ शुक्ल
(जब से अखबार से रिटायर हुआ हूं लोग समझते हैं कि मैं तो निठल्ला बैठा ही हूं इसलिए जिसे देखो आग्रह किए जा रहा है कि आप अपने पत्रकारिता के संस्मरण लिखिए। जैसे पत्रकार को अपनी कोई राजनीतिक विचारधारा रखने का हक ही नहीं है। क्योंकि जैसे ही मैं कोई राजनीतिक पोस्ट डालता हूं असंख्य लोग कोसना शुरू कर देते हैं। चलिए अब अपने राजनीतिक विचार अपने मन में ही रखता हूं और पत्रकारिता के अपने अनुभव ही साझा कर रहा हूं। लेकिन धैर्य बरतिएगा क्योंकि ये संस्मरण केवल एक ही पोस्ट के जरिए तो लिखे नहीं जा सकते।)
"जब से विजुअल मीडिया का दौर आया है पत्रकारिता एक ग्लैमरस प्रोफेशन बन गया है। पर हमारे समय में दिनमान ही पत्रकारिता का आदर्श हुआ करता था और रघुवीर सहाय हमारे रोल माडल। लेकिन उनकी दिक्कत यह थी कि वे साहित्यकार थे और पत्रकारिता उनके लिए दूसरे दरजे की विधा थी। पर दिनमान वे पूरी पत्रकारीय ईमानदारी से निकालते थे। हमारे घर दिनमान तब से आ रहा था जब उसके संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे। लेकिन जब मैने उसे पढऩा शुरू किया तो संपादक रघुवीर सहाय हो गए थे। दिनमान हम पढ़ते जरूर थे। उसके तीखे तेवर, हर विषय पर सामयिक टिप्पणी और उसके शीर्षक। सदस (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना) का नियमित कालम तथा श्याम लाल शर्मा, शुक्ला रुद्र, सुषमा पाराशर, त्रिलोक दीप और जवाहर लाल कौल के लेख और रपटें। पर बनवारी जी ने जब इस पत्रिका में कदम रखा तो इसके तेवर ही बदल गए और यह एक विशुद्ध रूप से सामयिक पत्रिका बन गई। बनवारी जी के लिखने की स्टाइल ही अलग थी। चाहे वह नेपाल के चुनाव की रपटें हों या दिल्ली में कुतुब मीनार की सीढिय़ों से फिसल कर ४२ बच्चों की मौत की रपट। अब तो शायद लोगों को पता भी नहीं होगा कि आज से ३२ साल पहले तक कुतुब मीनार पर चढ़ा भी जा सकता था। लेकिन १९८२ में एक भयानक दुर्घटना घटी। कुतुब मीनार देखने आई छात्राओं की एक भीड़ भरभराती हुई तीसरी मंजिल से नीचे आ गिरी, उसमें ४२ छात्राएं मरीं। बनवारी की इस रपट की हेडिंग थी घिसी हुई सीढिय़ों पर मौत। मुझे यह शीर्षक इतना आकर्षक और रपट इतनी कारुणिक लगी कि मैं सिर्फ बनवारी जी से मिलने के लिए साढ़े चार सौ किमी की यात्रा तय कर कानपुर से दिल्ली आ गया। चूंकि मैं हावड़ा-दिल्ली (इलेवन अप) एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली आया था और वह ट्रेन सुबह पांच बजे ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आ जाया करती थी इसलिए पूरे तीन घंटे तो प्लेटफार्म पर ही वाक कर काटे और आठ बजे के आसपास वहां से पैदल ही दिनमान के दफ्तर के लिए निकल पड़ा। ठीक नौ बजे १० दरियागंज स्थित टाइम्स बिल्डिंग में पहुंच गया। पता लगा कि बनवारी जी तो दस के बाद आएंगे। लेकिन वहां मौजूद सक्सेना नामके चपरासी ने चाय पिलाई और समोसे लाकर खिलाए। मैं उसकी सज्जनता से गदगद था। उसने बताया कि टाइम्स से उसे १२ सौ रुपये महीने पगार मिलती है जो मेरी पगार से ड्यौढ़ी थी जबकि मैं कानपुर में दैनिक जागरण में उप संपादक था। खैर करीब सवा दस बजे बनवारी जी आए। मैं उनसे जाकर मिला। वे हल्की लाइनों वाला कुरता तथा एकदम झकाझक सफेद पायजामा धारण किए हुए एक बेहद सौम्य और उत्साही पत्रकार लगे। पर यह भी महसूस हुआ कि शायद पत्रिकाओं के संपादक कुछ हौवा टाइप के हुआ करते थे। क्योंकि बनवारी जी मुझसे बात करते समय कुछ सहमे से लगे और बार-बार संपादक रघुवीर सहाय के केबिन की तरफ देख लिया करते थे। ऐसा लग रहा था कि अभी एक दरवाजा खुलेगा और एक डरावना सा अधबूढ़ा संपादक निकलेगा। जो महान कवि होगा और महान चिंतक भी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और केबिन खुला तो खाकी रंग की एक जींस नुमा पैंट पहने एक व्यक्ति निकला और लंबे-लंबे संगीतकार जैसे बालों वाले सदस की टेबल तक गया फिर उसने हाल पर नजर डाली मुझे भी देखा और लौट गया। बनवारी जी ने बताया कि वे रघुवीर जी थे। मेरी मिलने की बहुत इच्छा हुई लेकिन न तो बनवारी जी ने मेरी उनसे मुलाकात के लिए बहुत उत्कंठा जताई और न ही वे सज्जन हाल में ज्यादा देर तक रुके थे। इसलिए मन मारकर चला आया। दिल्ली में तब तक किसी को जानता नहीं था इसलिए नई दिल्ली स्टेशन गया। पता लगा कि गोमती जाने को तैयार है। टिकट लिया कुल बीस रुपये अस्सी पैसे का। और ट्रेन में जाकर बैठ गया। तब गोमती एक्सप्रेस नई-नई चली थी। और दिल्ली के बाद सीधे कानपुर आ कर ही रुकती थी। सामने वाली बर्थ पर जो मोहतरमा थीं वे कोई लखनऊ के नवाब परिवार से ताल्लुकात रखती थीं। जब भी वे अपना पानदान खोलतीं तो पूरा कोच उसकी गमकती खुशबू से भर जाता।"
(बाकी के संस्मरण पढऩे के लिए अब कल का इंतजार करिए।)


पत्रकारिता के संस्मरण- दो (कल से आगे के संस्मरण)
यहां कुछ भी दाएं या बाएं नहीं है।
शंभूनाथ शुक्ल
पत्रकारिता में कुछ भी दाएं-बाएं नहीं होता। यहां पर तो जो कुछ है वह सपाट है, स्ट्रेट है और यथास्थितिवादी है। बस उसके अर्थ अलग-अलग निकाले जाते हैं। राइट अपने हिसाब से मायने निकालता है और लेफ्ट अपने लिहाज से। इसीलिए देखिए कि चाहे वे वामचिंतक हों या दाम चिंतक सहारा एक ही रिपोर्ट का लेते हैं और परस्पर उसी के भरोसे युद्ध चलाते हैं। जब दिनमान सूर्य की भांति अपनी चमक बिखेर रहा था तभी धूमकेतु की भांति उदय हुआ रविवार। धर्मयुग के दो पुराने सहयोगी सुरेंद्र प्रताप सिंह और उदयन शर्मा की जोड़ी ने इस साप्ताहिक पत्र को कलकत्ता से निकाला। बंगला के मशहूर अखबार आनंदबाजार पत्रिका समूह की तरफ से निकाले गए इस साप्ताहिक ने बाजार में आते ही पत्रकारिता के सारे रंग-ढंग बदल डाले। यह दिनमान की भांति धीर-गंभीर नहीं बल्कि चंद्रमा की तरह चंचल और सुर्ख था। जनता पार्टी के शासन काल में यह व्यवस्था विरोध के नाम पर निकाला गया और पहली बार लगा कि पत्रकारिता से सरकारें डरने लगी हैं, राजनेता भय खाने लगे हैं। और पत्रकार की हैसियत उनके बीच एक मध्यस्थ की बन गई है।
पहली बार रविवार ने उन क्षेत्रों और उन प्रतीकों पर लेख लिखवाए जो तब तक की शालीन और मर्यादित पत्रकारिता के लिए वर्जित था।
अप्रैल १९७८ में रविवार में मेरी एक स्टोरी छपी 'अर्जक संघ उत्तर प्रदेश का डीएमके'। इसके बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह से चिट्ठियों के जरिए संवाद का सिलसिला शुरू हुआ। तभी वहां कुछ नई भरतियां शुरू हुईं मैने भी आवेदन किया और कानपुर से तीन लोगों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। एक मैं, दूसरे संतोष तिवारी और तीसरे बलराम। साथ ही यह भी बताया गया कि आने-जाने का किराया दिया जाएगा। यह दूसरी बात ज्यादा उत्साहित कर रही थी। इंटरव्यू में पास हो या फेल किराया मिलेगा। हम तीनों तूफान मेल पकड़ कर अगले रोज शाम को पहुंच गए हावड़ा। वहीं हावड़ा होटल में सामान रखकर चल दिए कलकत्ता। अति उत्साह में इंटरव्यू के एक दिन पहले ही आनंदबाजार पत्रिका के दफ्तर में पहुंच गए। रिशेप्सन में एक आदमी जोर-जोर से अंग्रेजी में हल्ला कर रहा था। और रिशेप्शन पर बैठा आदमी सहमा हुआ सा उसे बांग्ला में समझा रहा था। पता चला कि हल्ला करने वाला शख्स रघु राय हैं। मशहूर फोटोग्राफर। हमने नमस्ते किया तो उन्होंने कोई जवाब तक नहीं दिया। अंदर जिस केबिन में रविवार का दफ्तर था वह मुश्किल से आठ बाई दस का एक कमरा था जिसके एक कोने में सुरेंद्र प्रताप सिंह बैठे थे। उनकी टेबल के सामने का हिस्सा कुछ उठा हुआ था शायद स्पांडलाइटिस से बचने के वास्ते यह व्यवस्था हुई होगी। उनके सामने साइड में अनिल ठाकुर और कुछ ही दिनों पहले 'भगवान' के घर चार दिन बिताकर लौटे राजकिशोर बैठे थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलकर अच्छा लगा और महसूस हुआ कि यह आदमी तो हम लोगों जैसा ही है। अगले रोज इंटरव्यू में सारे सवाल तो ठीक पाए गए लेकिन जब स्नातक की डिग्री दिखाने को कहा गया तो सिवाय बलराम के हम और संतोष तिवारी सिफर निकले। संतोष की पढ़ाई जारी थी और मैने बी एससी पार्ट वन करके पढ़ाई छोड़ दी थी और घर से भागकर पहले कलकत्ता फिर पटना और अंत में वाराणसी सारनाथ आ गया था जहां से पिताजी मुझे पकड़ कर लाए थे। लेकिन इन तीन सालों की भागादौड़ी में मैने सारनाथ रहकर पाली सीख ली थी। बाद में इमरजेंसी के कुछ पहले एक साप्ताहिक अखबार निकाला और इमरजेंसी में छापा पड़ा तो गांव चला गया जहां बाबा ने शादी करवा दी। बाद में फिर पढ़ाई अवरुद्ध होती ही चली गई। सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि आनंद बाजार पत्रिका समूह के नियमों के मुताबिक ग्रेजुएट होना जरूरी है। पर हमें कोई मलाल नहीं था। कलकत्ता घूमना हो ही गया। संतोष तिवारी तो वापस चले गए लेकिन मैं और बलराम वहीं कुछ और दिनों तक के लिए रुक गए। पर तभी १९७८ की भयानक बारिश के चलते ट्रेनें ठप हो गईं और बड़ा बाजार में नावें चलने लगीं। पैसा जो लाए थे वह भी खत्म होने लगा इसलिए हमने बड़ा बाजार गुरुद्वारे में जाकर शरण ली। सुबह शाम लंगर छकते और बाकी समय वहीं कोठरियों में रात काटते। एक दिन ऊबकर हम फिर सुरेंद्र प्रताप सिंह के पास गए और उनसे अपना दुखड़ा रोया कि हमारे पास पैसे खत्म हो गए हैं। जो आपके यहां से किराये के पैसे मिले थे वे भी और ट्रेनें बंद पड़ी हैं हम जाएं तो कैसे जाएं। सुरेंद्र जी में गजब की आत्मीयता थी। उन्होंने तत्काल आनंद बाजार प्रबंधन से कह कर हमारे जाने के लिए लखनऊ तक का हवाई टिकट मंगवा दिया और सौ-सौ रुपये भी दिए यह कहकर कि भविष्य में जरा जल्दी ही लेख भेज देना उसी में काट लिया जाएगा। हमारी खुशी का पार नहीं था। तब हवाई यात्रा के तो हम हवाई किले ही बनाया करते थे और ऊपर से सौ-सौ रुपये। खैर हम वाया लखनऊ वापस आ गए। बिना उन सौ रुपयों में से एक पैसा खरचे। अमौसी हवाई अड्डे पर उतरते ही हमने पहला काम तो यह किया कि अमौसी रेलवे स्टेशन तक पैदल गए और वहां से भारतीय रेल सेवा की फ्री सेवा ली। जब हम कानपुर सेंट्रल से पैदल चलकर घर पहुंचे तो सौ रुपये यथावत थे।
अब यह अलग बात है कि हम तीनों में से किसी का भी रविवार में चयन नहीं हुआ। हमने कहा कि हो जाता तो भी हम नहीं जाते। एक तो रविवार के कमरे में बैठने की जगह तक नहीं है दूसरे कलकत्ता की बारिश और बाढ़ का क्या ठिकाना!
(बाकी के संस्मरण अब कल पढि़एगा।)


पत्रकारिता के संस्मरण पार्ट- तीन (गतांक से आगे)
सिर्फ शहरों के बूते नहीं पनपते अखबार
शंभूनाथ शुक्ल
रविवार ही नहीं बगैर ग्रेजुएशन कंपलीट किए सांस्थानिक मीडिया हाउसों में नौकरी मिलने से रही और कालेज जाकर पढ़ाई करने का मन नहीं करता था। वहां जो प्रोफेसर थे वे कभी मेरे साथ पढ़ चुके थे। उम्र करीब २५ साल हो आई थी और पुत्री का पिता भी बन चुका था। फ्रीलांसिंग में पैसा तो था पर स्थायित्व नहीं। इसलिए नौकरी कर लेने की ठानी। मैने एक कहानी लिखी वंश हत्या, जो दैनिक जागरण के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी। यथार्थवादी समानांतर कहानी का युग था। उसके छपते ही हंगामा मच गया और दैनिक जागरण के समाचार संपादक हरिनारायण निगम ने मुझसे पूछा कि नौकरी करोगे? मैने कहा जी तो बोले कि ठीक कल आ जाना। अगले दिन उन्होंने मुझे दैनिक जागरण के मालिक संपादक नरेंद्र मोहन जी से मिलवाया। जिन्हें वहां सब मोहन बाबू कहते थे। वहां एक और सज्जन, जो भी शायद कोई शुक्ला ही थे वे टोपी तो नहीं लगाए थे लेकिन अपने कुरते की आधी बाजू समेटे हुए थे, को भी इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। वे श्रीमान शुक्ल जी हाई स्कूल से लेकर एमए हिंदी तक प्रथम श्रेणी में थे तथा पी एचडी कर रहे थे। मोहन बाबू ने मेरे सामने ही उनसे पूछा कि एक निजी कार और टैक्सी में क्या फर्क है? वे बोले- टैक्सी काली-पीली होती है। मोहन बाबू उनके जवाब से खुश नहीं हुए और यही सवाल मुझसे दोहरा दिया। जाहिर है एक जवाब मुझे मिल ही चुका था। और अब उसे दोहराने का कोई मतलब नहीं था इसलिए मैने कहा कि टैक्सी की नंबर प्लेट सफेद पर उसकी लिखावट काली होती है और प्राइवेट कार की नंबर प्लेट काली पर नंबर सफेद से लिखे जाते हैं। मालूम हो तब तक ऐसा ही होता था। अब तो निजी कार की नंबर प्लेट सफेद और नंबर काले होते हैं। मोहन बाबू खुश और चयन तय। न उन्होंने पूछा कि ग्रेजुएट हो या नहीं न मैने बताया। और यह बात मैने हरिनारायण निगम साहेब को भी नहीं बताई थी। मेरा चयन हो गया पर कार्मिक विभाग ने जब मेरी पढ़ाई लिखाई का ब्यौरा मांगा तो मैने अपने को स्नातक बता दिया। लेकिन डिग्री या माक्र्सशीट कहां से लाऊँ? अंत में मैने वहां पर तब मैगजीन एडिटर विजय किशोर मानव से सलाह ली और न्यूज एडिटर हरिनारायण निगम को सारा किस्सा बता दिया। मोहन बाबू ने कहा कि ठीक है नौकरी चलती रहेगी लेकिन होगी ठेके पर। जब तक स्नातक नहीं कर लेते ग्रेड नहीं मिलेगा। साढ़े चार सौ रुपये महीने की पगार तय हुई। लेकिन यह ठेके की नौकरी मेरे लिए मुफीद हो गई। इसमें न तो कोई हाजिरी का झंझट था न समय का और खूब लिखने-पढऩे तथा फ्रीलांसिंग की पूरी आजादी। यहां तक कि जो कुछ मेरा दैनिक जागरण में भी छपता उसका भी पैसा मिलता। तब मोहन बाबू हर सोमवार को संपादकीय विभाग की एक बैठक करते और कुछ सवाल पूछते जो उसे बता देता उसकी जय-जय। कुछ ऐसा हुआ कि पहली ही बैठक में मोहन बाबू ने पूछा कि बताओ फाकलैंड कहां है? उन दिनों फाकलैंड पर कब्जे को लेकर अर्जेंटीना और ग्रेट ब्रिटेन में युद्ध चल रहा था। मैं चूंकि फ्री लांसिंग के चक्कर में इंडियन एक्सप्रेस घर पर मंगाया करता था इसलिए इस सवाल का जवाब दे दिया। बाकी के सब मुँह ताकते रहे। मोहन बाबू बड़े खुश हुए और मेरा उसी रोज से पचास रुपये महीने मेहनताना बढ़ गया। जब मैं जागरण में भरती हुआ तब दिसंबर १९७९ चल रहा था। अपने राजनीतिक गुरु डॉक्टर जेबी सिंह के आग्रह पर मैने कालेज में एडमिशन ले लिया और १९८१ की जुलाई में मेरा ग्रेजुएशन कंपलीट। लेकिन तब कानपुर विश्वविद्यालय का सत्र इतना लेट चल रहा था कि रिजल्ट आते-आते १९८२ आ गया और तब मुझे मिल पाया दैनिक जागरण में सब एडिटर का ग्रेड। लेकिन इस बीच भले मैं ठेके पर काम करता रहा पर मोहन बाबू और निगम साहेब ने मुझसे हर तरह की रिपोर्टिंग कराई। खूब बाहर भेजा और गांव-गांव जाकर मैने मध्य उत्तर प्रदेश की दस्यु समस्या और गांवों में उभरते नए जातीय समीकरण तथा नए प्रतीकों पर शोध ही कर डाला।
इसी दौरान में मैं मैनपुरी एटा के दस्यु छविराम यादव उर्फ नेताजी से मिला। इटावा के मलखान सिंह से मिला, बाबा मुस्तकीम से मिला। तब तक शायद डकैतों से मिलना आसान नहीं हुआ करता था और डाकुओं के बारे में वैसी ही अफवाहें हुआ करती थीं जैसी कि सुनील दत्त की फिल्में देखकर लोग बनाया करते थे। लेकिन हर डकैत से मैं गांवों के बीचोबीच उनके ठिकानों पर ही मिला और पूरा गांव जानता था कि ये पत्रकार किसके घर जा रहा है। इसके बाद मैने बुंदेलखंड पर ध्यान फोकस किया और वहां की सामाजिक समस्याओं पर लिखा।
एक दिन मैं जागरण के सर्वोदय नगर स्थित दफ्तर से रात करीब नौ बजे निकलकर घर जा रहा था। पैदल ही था और सोचा कि कुछ दूर आई हास्पिटल से टैंपू पकड़ लूंगा। लेकिन दफ्तर से और आई हास्पिटल तक का करीब आधे किमी का रास्ता एकदम सूना और बीच में खूंखार कुत्तों का इलाका था। मैं गेट से निकलकर कुछ ही कदम बढ़ा था कि एक लंबी सी कार मेरी बगल से गुजरी। कार मोहन बाबू की थी। मेरे मन में एक ख्याल कौंधा कि काश मुझे भी इस कार में बैठने का मौका मिले। आश्चर्य कि वह कार अचानक बैक होने लगी और मेरे बगल में आकर रुकी। अंदर मोहन बाबू बैठे थे। उन्होंने खिड़की का सीसा खोला और बोले- अंदर आ जाओ शंभूनाथ। मैं उनकी सौजन्यता से अभिभूत था। मैने कहा नहीं भाई साहब मैं चला जाऊँगा। पर मेरी नकार के बावजूद उन्होंने मुझे कार में बिठा लिया। मैने उनसे कहा कि भाई साहब मेरा गांव यहां से कुल तीस किमी है पर अपना अखबार वहां तीन दिन बाद पहुंचता है। ऐसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए कि अखबार वहां भी रोज का रोज पहुंचे। लोग अखबार पढऩा चाहते हैं। इस एक बात ने पता नहीं क्या असर डाला मोहन बाबू पर कि अगले ही रोज उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा कि शंभूनाथ कल से तुम कानपुर से लेकर एटा तक और दूसरी तरफ सुल्तानपुर तक और बुंदेलखंड में महोबा तक खूब दौरा करो और स्टोरी निकाल कर लाओ अखबार मैं गांव-गांव पहुंचा दूंगा। और इसके बाद मैं हो गया दैनिक जागरण का रोविंग करस्पांडेंट।
(अभी कल आगे का हिस्सा और ये संस्मरण अब लगातार जारी रहेंगे।)


पत्रकारिता के संस्मरण- चार (तीसरे अंक से आगे)
जैसा मैं बोलूं वैसा तू लिख!
शंभूनाथ शुक्ल
28 मई सन् 1983, दिन के 11 बज रहे थे। दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग की बेसमेंट में कई लोग एक कड़ी परीक्षा से रूबरू थे। कोई 50 से ऊपर सवालों वाला परचा सामने था। इसी में एक सवाल था कि इस पैरे की सबिंग करिए। पैरे में लिखा था- 'जयपुर के पास एक ढाणी में ..........।' अब हमने कस्बा सुना था, गांव सुना था, हम पुरवा, खेड़ा, मजरा और पिंड भी जानते थे पर ढाणी पहली बार सुन रहे थे। अपने आगे बैठे राजीव शुक्ला की कुर्सी को मैने पीछे से धक्का दिया और कहा 'राजीव ये ढाणी क्या है?' राजीव ने जवाब दिया कि 'प्रभाष जोशी से पूछो।' तभी अकस्मात एक सौम्य से सज्जन आँखों पर मोटा चश्मा लगाए प्रकट हुए और पास आकर बोले- 'मैं प्रभाष जोशी हूं।' मैं हड़बड़ा कर अपनी सीट से खड़ा हो गया और कहा- 'भाई साहब मैं शंभूनाथ कानपुर से आया हूं।' वे बोले- 'पता है।' और फिर ढाणी के मायने बताए लेकिन मैं इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली संस्करण के तत्कालीन रेजीडेंट एडिटर प्रभाष जोशी की सादगी को चकित सा देखता रहा। वे चले भी गए लेकिन मैं ढाणी का अर्थ समझ नहीं सका। और जस का तस ढाणी ही लिख के वापस कानपुर आ गया। 15 दिन भी नहीं बीते होंगे कि इंटरव्यू का तार आ गया। अबकी कुछ लोग पिछले वाले दिखे और सब के सब घबराए से थे क्योंकि जो लोग इंटरव्यू लेने आए थे वे सब अंग्रेजी के महारथी पत्रकार थे। जार्ज वर्गीज, लक्ष्मीकांत जैन, राजगोपाल और कोई देसाई तथा खुद प्रभाष जोशी। सब डर रहे थे कि कैसे इनके सामने अपनी बात कह पाएंगे। राजीव का कहना था कि 'चला जाए, कोई फायदा नहीं हम इस इंटरव्यू को पास नहीं कर पाएंगे।' लेकिन प्रभाष जोशी के पीए रामबाबू ने कहा कि 'आने-जाने का किराया लेना है तो इंटरव्यू तो फेस करना ही पड़ेगा।'
अपना नंबर आया। भीतर घुसा तो वहां का माहौल तनिक भी बोझिल या अंग्रेजीदां नहीं लगा। मध्य उत्तर प्रदेश के मेरे शोध पर ही सवाल पूछे गए और सबने हिंदी में ही पूछे। मैने राहत की सांस ली और लौट आया। एक दिन प्रभाष जी का पत्र आया कि आपका चयन हो गया है और 20 जुलाई तक इंडियन एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार जनसत्ता में उप संपादक के पद पर आकर ज्वाइन कर लें। प्रभाष जी का यह पत्र अविस्मरणीय था और आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पत्र की भाषा में इतनी रवानगी और ताजगी थी कि बस उड़कर दिल्ली चला जाऊँ।
19 जुलाई को दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक दिवंगत पूर्णचंद्र गुप्त को त्यागपत्र लिखा और रजिस्टर्ड डाक से भेज दिया। तथा 20 की सुबह मैं गोमती एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली आ गया। नई दिल्ली स्टेशन पर ही राजीव शुक्ला मिल गए। वे भी उसी ट्रेन से आए थे। हम वहां से आटो पकड़कर पहुंच गए एक्सप्रेस बिल्डंग। वहां पर प्रभाष जी ने बताया कि अभी आफिस बन नहीं पाया है इसलिए अब एक अगस्त को आना। हम सन्न रह गए। मैं तो बाकायदा इस्तीफा देकर आया था। अजीब संकट था अगर अखबार नहीं निकाला गया तो पुरानी नौकरी भी गई। राजीव शुक्ला ने कहा कि इस्तीफा देना ही नहीं था। मैं तो निगम साहब को बताकर आया हूं कि अगर नहीं आया तो इस्तीफा बाद में भेज दूंगा। तुम तो इस्तीफा दे आए हो और अब 19 दिन के काम का पैसा भी नहीं मिलेगा। अब पछतावा होने लगा लेकिन हो भी क्या सकता था। हम उस रोज सरदार पटेल रोड स्थित यूपी भवन में रुके। वह राजीव ने ही अपने किसी परिचित विधायक के ज़रिये बुक कराया था। तब यूपी भवन नया-नया बना था। गजब की बिल्डिंग थी। शाम को अपना-अपना सामान संतोष तिवारी के यहां रखा और अगले रोज पुरी एक्सप्रेस पकड़कर कानपुर पहुंच गए। पिता जी ने कह दिया कि अब भुगतो तुम दरअसल कुछ कर ही नहीं सकते। घर में किसी ने भी मेरे पछतावे को नहीं महसूस किया और सब ने मुझसे मुंह फुला लिया।
ये दस दिन किस तरह कटे मुझे ही मालूम है। पहली बार पता चला कि वाकई दस दिन में दुनिया उलट-पुलट हो जाती है। लेकिन इस बार एक अगस्त को नहीं दो अगस्त को मैं आया। इस बार दफ्तर सुसज्जित था। हमारे बैठने की व्यवस्था हो गई थी। पर बैठना निठल्ला ही था क्योंकि अखबार कब निकलेगा, यह किसी को नहीं पता था।
दिल्ली में ठहरना और भी कठिन था। एकाध दिन तो संतोष तिवारी के यहां रुक सकते थे लेकिन फिर राजीव ने ही मद्रास होटल में रहने की व्यवस्था की और हम पूरा हफ्ता वहीं रुके। पर कनाट प्लेस के इस होटल में तो दूर आसपास भी कहीं अरहर की दाल की व्यवस्था नहीं थी ऊपर से आफिस में दिन भर प्रभाष जी का भाषण सुनना पड़ता था और उनकी अटपटी हिंदी भी। जनसत्ता में जिन लोगों ने ज्वाइन किया था उनमें हम यानी मैं और राजीव ही सबसे बडे और सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार से आए थे। ऐसे में प्रभाष जी की चोखी हिंदी सुनना बहुत कष्टकर लगता था। वे हम को अपन बोलते और तमाम ऐसे शब्द भी बोलते जो हमारे लिए असहनीय थे। मसलन वे चौधरी को चोधरी बोलते और ऊपर से तुर्रा यह कि वह यह भी कहते- 'जिस तरह मैं बोलता हूं उस तरह तू लिख।' वे हर बार मालवा की बोली को ही हिंदी का उत्तम नमूना बताते। अब प्रभाष जी की यह अहमन्यता हमें बहुत अखरती। हम जिस बोली वाले इलाके से आए थे वहां हिंदी सबसे अच्छी बोली जाने का हमें गुरूर था और इस बात पर भी कि हमारी बोली साहित्यिक रूप से सबसे समृद्ध है। भले उत्तर प्रदेश में भोजपुरी, बुंदेली और बृज भी बोली जाती हो लेकिन रामचरित मानस और पद्मावत जैसे साहित्यिक ग्रंथ हमारी अवधी बोली में ही लिखे गए। इसलिए हमने तय कर लिया कि हम प्रभाष जी की इस मालवी बोली के अर्दब में नहीं आने वाले अत: अब हम बस शनिवार को कानपुर चले जाएंगे और लौटेंगे नहीं। हम शाम को वहां से निकल लिए और फिर सोमवार को लौटे ही नहीं। एक हफ्ते बाद प्रभाष जी ने अपने किसी परिचित के माध्यम से हम तक सूचना पहुंचाई कि हम क्यों नहीं आ रहे हैं? तब पता चला कि कानपुर में प्रभाष जी की ससुराल है। हम फिर वापस दिल्ली आए और प्रभाष जी से मिले। उन्होंने पूछा कि क्या परेशानी है? हमने कहा कि यहां अरहर की दाल नहीं मिलती। बोले ठीक है मैं इंतजाम करवा दूंगा और कुछ? अब क्या कहते कि भाई साहब हमें आपकी बोली नहीं अच्छी लगती! सो चुप साध गए। शाम को प्रभाष जी ने बुलाया और कहा कि राजघाट के गेस्ट हाउस में चले जाओ। वहीं कमरा मिल जाएगा और खाने में अरहर की दाल भी मिलेगी। यह तो लाजवाब व्यवस्था थी। कमरे के लिए हमें पांच रुपये फी बेड देना पड़ता और साढ़े तीन रुपये में जो भोजन मिलता उसमें अरहर की दाल, रोटी, चावल, सब्जी और एक मीठा भी होता। हम करीब महीने भर वहीं रहे। बल्कि हमारी इच्छा तो वहीं रहने की थी। क्योंकि जो भी नई भरती आती हम उसे वहीं रुकवा लेते। पहले तो सत्यप्रकाश त्रिपाठी आए फिर परमानंद पांडेय। यहां से दफ्तर भी इतना करीब था कि हम टहलते हुए चले जाते। लेकिन एक दिन हमें कह दिया गया कि अब खाली करना पड़ेगा। सत्यप्रकाश और परमानंद चले गए माडल टाउन और मैं व राजीव आ गए लोदी कालोनी। जहां हमारे एक सहभागी कुमार आनंद टिकमाणी भी थे। लेकिन तीन बेड रूम का वह आलीशान फ्लैट धीरे-धीरे धर्मशाला बन गया। उसमें कभी फक्कड़ की तरह आलोक तोमर तो कभी उमेश जोशी आ धमकते। एक दिन हमने इस धर्मशाला को छोड़ लेने का मन बना लिया।
(अब आगे का हिस्सा कल पढि़एगा।)


पत्रकारिता के संस्मरण- पांच (चौथे हिस्से के बाद का भाग)

जिसने भी बाजार को पकड़ा वही मीर हुआ
शंभूनाथ शुक्ल
१९८० के दशक को पत्रकारिता का स्वर्ण काल कहा जा सकता है। दशक की शुरुआत में ही इंदिरा गांधी का पुन: राज्यारोहण हो चुका था और गैर कांग्रेसी सरकारों से लोगों का मोहभंग होने लगा था। लेकिन इस बार सदैव से सोवियत संघ के पाले में रहीं इंदिरा गांधी का झुकाव अमेरिका की तरफ बढ़ चला था और संजय गांधी राजनीति में सबसे ताकतवर इंसान थे। संजय के चलते दक्षिणपंथी राजनीति अचानक इंदिरा गांधी के प्रति उदार हो उठी थी। लेकिन संजय गांधी भरोसेमंद नहीं थे। वे एक आक्रामक और तत्काल फल चाहने वाले राजनेता थे। तथा हर तरह का जोखिम उठाने को तत्पर। वे कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक ब्राह्मण, तुर्क व दलित के समीकरण को ध्वस्त करते चल रहे थे। इमरजेंसी के दौरान दिल्ली के तुर्कमान गेट की मुस्लिम आबादी को जिस तरह उन्होंने उजाड़ डाला था उससे आरएसएस समर्थक तबका तो खुश था लेकिन उदार और लेफ्ट तबका कन्फ्यूज्ड। संजय ने तेजी दिखाई और राज्यों की सरकारें ताबड़तोड़ गिरानी शुरू कर दीं। उनके पहले निशाने पर हिंदी राज्य रहे। यूपी, एमपी, राजस्थान, बिहार और हरियाणा में सरकारें गिराई गईं और वहां फिर से कांग्रेसी सरकारें फिर आ गईं। पर इस बार मुख्यमंत्री भी कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक से नहीं बने। यूपी में एक पूर्व राजा वीपी सिंह इसी तरह मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह, राजस्थान में पहले जगन्नाथ पहाडिय़ा को बनाया गया लेकिन जल्द ही उन्हें अपदस्थ कर शिवचरण माथुर नए मुख्यमंत्री बने। हरियाणा में भजन लाल को बनाया गया। पर उसी साल २३ जून को एक छोटा प्लेन उड़ाते वक्त दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।
कांग्रेस के सारे प्रांतों के मुख्यमंत्री नाकारा साबित हुए। वजह यह थी कि हिंदी राज्यों में एक नई राजनीति पग रही थी और वह थी मध्यवर्ती और पिछड़ी कही जाने वाली जातियों को नव उभार। दूसरी तरफ पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद पनपने लगा था। पंजाब में सिख आतंकवाद इस तरह चरम पर था कि वहां से हिंदू पलायन करने लगे थे और कश्मीर से पंडित भगाए जाने लगे। इंदिरा गांधी का सोवियत लाबी से अलग होना उन्हें अनवरत कमजोर कर रहा था। देश में पूंजीवाद एक नए रूप में उभर रहा था जो कोटा कंट्रोल पद्धति से भिन्न था और पूंजीपति लगातार बेलगाम होते जा रहे थे। ट्रेड यूनियन्स कमजोर पड़ती जा रही थीं तथा आजादी के बाद से राजनीति व अर्थनीति के बाबत बनाई गई सारी मर्यादाएं तार-तार हो रही थीं। यह वह समय था कि जिसे जो कुछ बेचना हो बाजार में आए और बेचे। मीडिया एक प्रोडक्ट के रूप में सामने आ रहा था। उसकी सारी आक्रामकता और खबरें अब एक प्रोडक्ट को बाजार में लांच करने की हमलावर शैली जैसी थीं। इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी ने आकर देश के उस बाजार को पकड़ा जो अभी तक अछूता था। पहली बार भागलपुर आंख फोड़ो कांड को कवर कराया गया जहां कुछ सवर्ण पुलिस अफसरों ने पिछड़ी जाति के अपराधियों की आंखें तेजाब डालकर या सूजा घुसेड़कर फोड़ डाली थीं। इसी तरह उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अंतुले के कारनामों पर हमला बोला। इसी दौरान हुई मीनाक्षीपुरम की वह घटना जिसने सारे हिंदू समाज को स्तब्ध कर दिया। मीनाक्षी पुरम के दलितों के एक बड़े हिस्से ने धर्म परिवर्तन कर इस्लाम अपना लिया। पर हिंदी के अखबार इन सब खबरों से अनजान थे और अक्सर अरुण शौरी की इंडियन एक्सप्रेस में छपी रपटों को हिंदी में अनुवाद कर छापा करते थे।
ऐसे समय में इंडियन एक्सप्रेस समूह ने हिंदी का नया अखबार निकाला जनसत्ता। तब तक दिल्ली में दो ही हिंदी के अखबार अपनी पैठ बनाए थे। टाइम्स आफ इंडिया समूह का नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स का हिंदी हिंदुस्तान। इसमें से हिंदुस्तान में तो रंचमात्र पत्रकारीय स्पंदन नहीं था। उसके संपादक विनोदकुमार मिश्र की स्थिति तो यह भी नहीं थी कि वे किसी उप संपादक अथवा किसी रिपोर्टर तक को भरती कर सकें। सारी भरतियां उसके कार्यकारी निदेशक नरेश मोहन करते। संपादक महज एक दिखाऊ पोस्ट थी। नवभारत टाइम्स में स्थिति कुछ अलग थी। उसके प्रबंधन ने अस्सी के बदलाव को पहचान लिया था और प्रबंधन के अपने कृपापात्र संपादकों की फौज हटाकर पहली दफे एक तेज तर्राक पत्रकार राजेंद्र माथुर को संपादक बनाया गया। राजेंद्र माथुर मूलत: आगरा के थे और इंदौर जाकर बस गए थे। वे वहां पहले अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे थे और फिर नई दुनिया के स्थानीय संपादक। राजेंद्र माथुर ने आते ही नवभारत टाइम्स का कलेवर बदल दिया और माथुर साहब ने उसे पाठकों से जोड़ा। उनके संपादकीय के लोग इस कदर दीवाने थे कि नवभारत टाइम्स की खबरों की बजाय उसके लेख पढ़े जाने लगे और माथुर साहब के संपादकीय तथा लेख। माथुर साहब की राजनीतिक समझ नेहरू जमाने की थी और उनकी मान्यताएं भी। पत्रकारिता में पुराने पर नवीन दिखने वाली इस मान्यता को खूब स्वीकार्यता मिली। पर जनसत्ता ने तो आते ही तहलका मचा दिया।
जनसत्ता की इस सफलता के दो कारण थे। एक तो इसके संपादक प्रभाष जी ने बाजार को खूब समझा और दूसरे हिंदी पत्रकारिता की सड़ी-गली आर्य समाजी नैतिकता से बोली और भाषा को निकाला। उन्होंने कठिन और आर्यसमाजी हिंदी को दिल्ली और पास के हिंदी राज्यों के अनुरूप सहज और उर्दूनुमा हिंदी को मानक बनाया। बाजार के अनुरूप उन्होंने उस समय पंजाब में लगी आग को मुद्दा बनाया और वहां से भाग रहे हिंदुओं के लिए जनसत्ता संबल बना तथा यूपी और बिहार में हिंदी को संकीर्ण बनाने वाले मानक तोड़ डाले। नतीजा यह हुआ कि हर वह व्यक्ति जनसत्ता का मुरीद हो गया जो अंदर से नए बाजारवाद का समर्थक था तथा उसके अंदर जेपी की समग्र क्रांति को लेकर कहीं न कहीं एक नरम भाव था। बाजार के इस नए लोकप्रिय और तथाकथित जनप्रियता का यह एक नया पैमाना था।
(बाकी का हिस्सा अब कल)

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

कामरेड सुरजीत की याद में

तीसरे मोर्चे में सब बावन गज के
शंभूनाथ शुक्ल
जब-जब तीसरे मोर्चे की बात उठती है कामरेड सुरजीत बहुत याद आते हैं। वे अकेले कम्युनिस्ट नेता थे जिनका हर दल में सम्मान था और हर राजनेता उन्हें इज्जत देता था। यूं माना जाता है कि युवा राजनेता बुजुर्गों की तुलना में ज्यादा ऊर्जावान और ईमानदार तथा गतिशील होते हैं। पर वामदलों, खासकर माकपा में उलटा हो रहा है। उनके बुजुर्ग राजनेताओं के हाथ से कमान निकल कर जब से प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे तथाकथित युवा नेताओं के पास आई है लगता है बुद्धि घास चरने चली गई है। इनके सारे फैसले पार्टी को ही नहीं पूरे वाम गठबंधन को रसातल में पहुंचाने वाले रहे। अब प्रकाश करात जिन ११ दलों के बूते तीसरा मोर्चा बनाने का जोर दे रहे हैं उसमें बसपा नहीं है, आप नहीं है, द्रमुक नहीं है तथा अन्य तमाम क्षेत्रीय दल इससे किनारा किए हैं। इसमें भ्रष्ट नेताओं की अगुआई वाले दलों को न्यौता गया है साथ ही सांप्रदायिक दलों को भी। इसमें वे दल भी हैं जो बारी-बारी से भाजपा और कांग्रेस दोनों से सुविधानुसार गठबंधन करते ही रहे हैं। पर तेलगू देशम पार्टी सरीखे धार वाले दल नहीं हैं। इसमें सपा को तो बुलाया गया है जो उस समय नौटंकी का नाच देखने में बिजी थी जब मुजफ्फर नगर के राहत शिविरों में रोज बच्चे और बूढ़े इलाज के अभाव में मर रहे थे। क्या ऐसा मोर्चा जिसके सभी नेता बावन गज के हों साथ बैठकर कोई सर्वमान्य हल निकाल पाएंगे? भाजपा की सांप्रदायिक नीति से ही लडऩा है तो कांग्रेस का हाथ मजबूत करो। कम से कम राहुल गांधी में पूर्व के नेताओं की तुलना में ईमानदारी और कुछ कर सकने की इच्छाशक्ति तो दीखती है। और अगर कांग्रेस के भ्रष्टाचार से निपटना है तो फिर इस मोर्चे में सपा, अन्ना द्रमुक और बीजद को बाहर करो। लेकिन यह क्या बात हुई कि चुनाव के बाद समर्थन ले लेंगे लेकिन चुनाव पूर्व जनता को बेवकूफ बनाते रहेंगे। काश आज कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत होते तो शायद यह जड़ता नहीं होती जो आज दीख रही है।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

खाप की पोलमपोल!

लालडोरे से घिरी जातीय पंचायतें
शंभूनाथ शुक्ल
मेरी पत्नी और मैं दोनों भारद्वाज गोत्र के हैं। हमारी शादी को 38 साल बीत चुके हैं पर अब तक सामान्य बातों को छोड़ दिया जाए तो न तो कभी परस्पर कोई झगड़ा हुआ न ही समगोत्री होने के कारण हमारे बच्चों को किसी तरह की जेनेटिक बीमारियों से जूझना पड़ा। शादी हमारे परिवारों की मर्जी से हुई थी तब किसी ने न तो कुंडली मिलवाई थी न ही हमारा परिवार किसी तरह के ज्योतिषीय विकारों के चक्कर में पड़ा था। उस वक्त तक साधारण मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की जन्म कुंडली बनवाने का भी चलन नहीं हुआ करता था सो मेरी पत्नी की भी कोई जन्म कुंडली नहीं बनी थी। शादी से पहले पत्नी से मेरी कोई जान पहचान भी नहीं थी। समानता सिर्फ इतनी थी कि हमारा कालेज एक ही था। वे कानपुर के वीएसएसडी कालेज में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थीं और मैं मैथ्स में। शादी के लिए मेरे दादा का जोर था क्योंकि  उनके मुताबिक मैं कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करके पथभ्रष्ट होता जा रहा था।
ऐसा नहीं कि उस समय गोत्र, जाति और ग्रह नक्षत्र मिलाने का चलन नहीं था लेकिन उस पर इतना जोर नहीं हुआ करता था कि अच्छी खासी हो रही शादी ही तोड़ दी जाए। आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कितनी ही शादियां महज इसलिए नहीं हो पा रही हैं क्योंकि लड़का लड़की दोनों ही समगोत्री हैं। परंपरागत विश्वास साइंस नहीं है। संभव है भारत के खेतिहर समाज में लड़की को गांव के बाहर भेजने की सोच ने इस परंपरा को जन्म दिया हो। एक लंबे समय तक  भारत गांवों पर आश्रित रहा है। अब अगर लड़का लड़की एक ही गांव में शादी कर लेंगे तो सामाजिक दायरा सिमटता चला जाएगा इसलिए गोत्र यानी गांव के बाहर शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ होगा। वैदिक कालीन समाज में एक ही आश्रम में रहने वाले लोग एक ही गोत्र के कहलाते थे। यानी एक तरह से पूरा गांव एक आश्रम ही होता था। इसीलिए गोत्र से बाहर शादी करने की परंपरा शुरू हुई। लेकिन जैसे जैसे समाज का स्वरूप बदलता गया यह आग्रह टूटता गया। आज एक एक गोत्र के लोगों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि समगोत्री लोगों में किसी भी तरह की पुरानी पारिवारिकता को ढूंढऩा बेमानी है।
गांवों में दो तरह की पंचायतें होती हैं। एक गांव पंचायत जो विधि सम्मत है और जिसके पदाधिकारी चुने जाते हैं। दूसरी जातीय पंचायतें जो अभी तक पुराने सामाजिक चौधरियों के बूते चल रही हैं। जातीय पंचायतें देश के किसी भी विधि विधान के दायरे में नहीं हैं, वे सामाजिक विश्वासों के बूते चल रही हैं। उनके फैसले पुराने कबीलाई समाज के फैसलों की तरह होते हैं। मानवीय गरिमा से ज्यादा महत्व उनके लिए कबीले के परंपरागत विश्वास और अलिखित कानून हैं। मसलन किसी का सामाजिक बहिष्कार या किसी का सिर मुंड़वा देना अथवा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के दोषी व्यक्ति को पीडि़ता से शादी कर लेने का हुक्म देकर बरी कर देना जैसे फैसले ये पंचायतें देती रहती हैं। इसमें सजा की नरमाई अथवा कड़ाई व्यक्ति के अपराध से नहींं उसकी हैसियत से तय होती है। आज के समय में इन पंचायतों का कोई मतलब रह भी नहीं गया है।
जातीय पंचायतें एक जाति अथवा समुदाय की लड़ाई लड़ती हैं जबकि हमारा संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कटिबद्घ है। कोई किससे शादी करे अथवा कौन सा व्यवसाय चुने या किस दल को वोट दे, ईश्वर पर विश्वास करे या न करे, ईश्वरवादी हो तो किस धर्म में जाए यह उस व्यक्ति के अपने विवेक और सुविधा से तय होगा न कि समाज केे बंधन से। कोई पंचायत या जातियों के मुखिया उसे इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते कि जो हमारा आदेश है वही मानो। मजे की बात तो एक तरफ तो हमारा समाज इतना उदार है कि वह खुद आगे बढ़कर घोषणा करता है कि पुरानी लीक को तोडऩा ही बेहतर है क्योंकि नया काम वही करते हैं जो लीक को तोड़ते हैं दूसरी तरफ ये जातीय पंचायतें पुराने ढर्रे पर चलती हुई लीक को पीटती रहती हैं।
इन पंचायतों का पुराने समय में क्या स्वरूप था इसे लेकर प्रेमचंद और रेणु ने दो अलग-अलग कहानियां लिखी हैं। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर में गांव की एक ऐसी पंचायत का जिक्र है जिसमें बैठते ही जुम्मन शेख अलगू चौधरी के साथ अपनी वर्षों की दुश्मनी को भूल जाते हैं और अपने दुश्मन चौधरी के हक में फैसला देते हैं। वहीं फणीश्वर नाथ रेणु की पंच लाइट में कुर्मियों की एक पंचायत किसी तरह पैसा उगाह कर एक पेट्रोमैक्स खरीदती है। पेट्रोमैक्स कुर्मी पंचायत की जरूरत से ज्यादा उसके जातीय गुरूर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस पेट्रोमैक्स को लाने के बाद इसको जलाने के पहले उसकी पूजा की जाती है और छड़ीदार को सख्त हिदायत है कि पेट्रोमैक्स को बहुत आहिस्ता से लया ले जाया जाए। एक तरह से यह जातीय अस्मिता के झूठे और थोथे अभिमान की कहानी है। एक पेट्रोमैक्स को प्रतीक बनाकर रेणु ने लिखा है कि कैसे जातीय पंचायतें अपनी तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए फिजूल की ड्रामेबाजी करती हैं। आज जब प्रेम के ऊपर जाति के पहरेदार बिठा दिए गए हैं तो रेणु की कहानी एकदम से समीचीन हो उठती है।
लोकतंत्र में गांव की पंचायतों की जरूरत तो हो सकती है लेकिन जातीय पंचायतें अब गैर जरूरी हो गई हैं। अंग्रेजों ने शहरों के विस्तार के लिए तमाम गांवों का औपनिवेशीकरण कर डाला था। उन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से शहरों को फैलाया और गांवों को उनकी खोल में ही रहने दिया। लाल डोरा की अवधारणा अंग्रेजों ने इसी हिसाब से बनाई थी। दिल्ली को राजधानी चुनते वक्त अंग्रेजों के समक्ष सबसे बड़ी परेशानी दिल्ली के विस्तार की थी। दिल्ली के गंावों को चिन्हित कर अंग्रजों ने सबसे पहले नक्शे में गांवों को एक लाल रंग से घेर दिया और उनकी सारी खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण कर लिया। अंग्रजों के पूरे मास्टर प्लान से दिल्ली के गांव गायब रहे। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली शहर तो फैला लेकिन इसके गांव जस के तस बने रहे। दिल्ली में लाल डोरा आज भी हैं। आजादी के बाद आई सरकारों ने भी विकास के लिए वही अंग्रेजों वाला औपनिवेशिक ढांचा अपना लिया। इसी का नतीजा है कि शहर तो फैल रहे हैं लेकिन न गांव बदल  रहे हैं न वहां के लोगों के सोचने का नजरिया। ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि जाति का दंभ पाले ये पंचायतें नए विचारों के अनुरूप अपने को ढाल पाएंगी।

जब नार्थी लड़के को दिल्ली में पीट-पीटकर मार डाला गया तो मुझे अपनी मेघालय यात्रा याद आ गई। साल २००० में मैं कोलकाता से गुवाहाटी गया था। कुल एक घंटे की फ्लाइट है। पर हवाई अड्डे से गुवाहाटी शहर काफी दूर था। रात गुवाहाटी रुका। वहां कुछ देखने को लायक था नहीं इसलिए अगले रोज शिलांग और चेरापूंजी जाने का मन बनाया। गुवाहाटी से एक घंटे से भी कम समय में हम मेघालय की सीमा में प्रवेश कर गए। जैसे ही मेघालय की सीमा में घुसे तो लगा कि मानों हम भारत छोड़कर यूरोप में आ गए हैं। साफ-सुथरी सड़कें और सड़क पर न गाय न भैंस न सुअर। इसी तरह न मंदिर न मसजिद। लगा कि नर्क हम काफी पीछे छोड़ आए हैं और वाकई देवताओं के लोक में आ गए हैं। मेघालय की सीमा में प्रवेश करते ही शराब की दूकान और शराब के विज्ञापनों ने आकर्षित किया पता चला कि यहां एक्साइज टैक्स नहीं है इसलिए शराब शेष भारत से काफी सस्ती है। अपना यूपी याद आया जहां पर लोग बताया करते थे कि हर बोतल व बोतली पर सीएम टैक्स व डीएम टैक्स भी देना पड़ता है। कुछ मोंटी चड्ढा टैक्स भी लगता था। माफ कीजिएगा मैने कभी शराब खरीदी ही नहीं है इसलिए मुझे इस पर पडऩे वाले टैक्सों का अंदाजा नहीं है। दूसरे हर कदम पर ढाबे और पान की दूकानें जिन्हें टखनों से नीचे की स्कर्ट पहने महिलाएं ही चलाती हैं। चाय पिएं या बियर बड़ी ही विनम्रता और सौजन्यता के साथ परोसती हैं। खाने के लिए चावल, अंडा करी और दाल। पान में कच्ची सुपारी जो मैदान का आदमी खा ले तो पलट जाएगा। मेरे साथ थे हमारे गुवाहाटी के संवाददाता श्री प्रभाकरमणि तिवारी और इंडियन एक्सप्रेस के गुवाहाटी स्थित रीजनल मैनेजर बोरदोलोई। जब हम शिलांग पहुंचे तो बारिश हो रही थी। शहर बहुत ही खूबसूरत है। शिमला, कश्मीर, नैनीताल अथवा मसूरी या दार्जिलिंंग से कहीं ज्यादा। वहां के सारे व्यापार पर मारवाडिय़ों का और ब्यूरोक्रेसी पर बंगाली भद्रलोक का कब्जा है। शिलांग को ही भारत में हिल सिटी का दरजा प्राप्त है।
मुझे वहां पर असम ट्रिब्यून के शिलांग स्थित विशेष संवाददाता ने बता रखा था कि रास्ते में कोई भी पूछे तो अपना पता दिल्ली का बताना कोलकाता का नहीं क्योंकि मेघालय के खासी लोग बंगालियों को पसंद नहीं करते और कभी-कभार हमला भी कर देते हैं। शिलांग के बाद हम चेरापूंजी गए। पांचवें दरजे से पढ़ते चले आए थे कि चेरापूंजी में बारिश सबसे ज्यादा होती है। हालंाकि अब ऐसा नहीं रहा। वहां पर हम उस स्थान पर गए जो भारत और बांग्लादेश की सीमा है। एक बड़ी सी खाई दोनों देशों को बांटती है। वहंा पर एक खासी महिला चाय की दूकान खोलकर बैठी थी। सो हमने वहां चावल खाया पर जैसे ही उसने पान दिया कि बोरदोलोई ने पान हाथ से खींच लिया। बोरदोलोई ने वह पान मेरे हाथ से खींचकर खुद खा लिया। मैं भौंचक्का। बोरदोलोई ने कहा कि सर यह पान खा कर आप यहीं गिर पड़ेंगे क्योंकि इसमें कच्ची सुपारी पड़ी है। उस चेरापूंजी कस्बे में पता चला कि रामकृष्ण मिशन का आश्रम है। पूरे मेघालय और शेष उत्तरपूर्वी भारत में रामकृष्ण आश्रम ही हिंदू धर्म की अलख जगाए हैं। वहां पर ये हिंदुत्व के नागपुरी प्रचारक नहीं दिखाई पड़ते।
मुझे लगता है कि अब अगर वहां जाना हो तो शायद यह बताना बड़ा खराब समझा जाएगा कि हम दिल्ली से आए हैं।
चेरापूंजी में सीमा पर मेरे साथ बोरदोलोई।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

हाय बसंत! बाय बसंत!

दिल्ली की सरदी से ठिठुरता बसंत
शंभूनाथ शुक्ल
साल १९६५ की बात है। उस वर्ष २६ जनवरी को बसंत पंचमी पड़ी थी। मैं तब कानपुर के गोविंद नगर इलाके में स्थित गांधी स्मारक इंटर कालेज में छठी दरजे में पढ़ता था। स्कूल में  गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में शरीक होने के लिए सुबह नौ बजे तैयार होकर मैं स्कूल पहुंचा। बसंत पंचमी होने के कारण मां ने पीले रंग की कमीज पहनने के लिए कहा। इस रंग की कोई शर्ट गरम कपड़े की तो थी नहींं इसलिए मलमल के कपड़े की शर्ट पहन कर स्कूल में गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम देखने गया। वहां मुझे एक कविता पढऩी थी। पता नहीं भूल वश अथवा प्रिंसीपल रामनायक शुक्ल के डर के कारण मेरे मुंह से गणतंत्र दिवस की बजाय स्वतंत्रता दिवस निकल गया। कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद मुझे प्रिंसीपल रूम में बुलाया गया। मुझे लगा कि शायद पुरस्कार मिलेगा लेकिन वहां उपस्थित मेरी क्लास टीचर सुरजीत कौर ने बबूल की छड़ी से मेरी जमकर पिटाई की और कहा कि स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त को कहते हैं तथा २६ जनवरी को गणतंत्र दिवस। उस दिन यह लगा था कि काश आज कोई गरम कपड़ा पहन रखा होता तो छड़ी की पिटाई इतना दर्द न करती। पर बसंत पंचमी के साथ ही हम मान लेते थे कि अब गई सरदी इसलिए बसंत के साथ ही इक्का दुक्का स्वेटर ही पहने जाते रहे हैं।
लेकिन इस साल की बसंत पंचमी एकदम उलट रही। स्वेटर उतारना तो दूर चमड़े की जैकेट तक लोगों ने नहीं उतारीं। मेरी उम्र ५९ साल की हो चुकी है और मैने अब तक कभी बसंंत पंचमी के दिन इतनी सरदी नहीं महसूस की। बसंत पंचमी को सूरज की किरणें ताप देने लगती थीं। सुबह कुछ जल्दी होने लगती और शाम को भी सूरज ठिठकने लगता था। २२ दिसंबर को सबसे छोटा दिन होता है और उसी के बाद से दिन कुछ थमने लगता था इसीलिए २५ दिसंबर को बड़ा दिन भी कहा जाता है। पर इस बार मजा देखिए कि करीब एक महीने बीत जाने के बाद भी पता नहीं चला कि सूरज कितना ठिठका क्योंकि सूरज एक भी दिन निकला ही नहीं। २० दिसंबर से कोहरा पडऩा शुरू हुआ था और २ फरवरी तक बदस्तूर जारी रहा। इसलिए बसंत के आने की खुशी मनानी दूभर हो गई।
बसंत पंचमी से आम के पेड़ों में बौर आने लगती है। बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा की परंपरा बंगाल के ब्राह्मïो लोगों ने डाली वरना इसके पहले बसंत पंचमी से मदनोत्ससव मनाने की परंपरा चली आ रही थी। मदनोत्सव होली तक अनवरत चलता था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाणभट्ट की आत्मकथा में मदनोत्सव का व्यापक वर्णन किया है जो इसी बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता था। कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत यानी मधुमास का वर्णन अत्यंत लावण्यमय तरीके से किया है। रांगेय राघव द्वारा उसके अनुवाद में यह वर्णन कुछ इस तरह है-
प्रिये मधु आया सुकोमल,
तीक्ष्ण गायक-आम और प्रफुल्ल की कर में उठाए।
भ्रमर माला की मुकर अभिराम प्रत्यंचा चढ़ाए।
सुरत सर से हृदय को करता विदग्ध विदीर्ण व्याकुल।
प्रिये! वीर बसंत योद्घा आ गया मदपूर्ण चंचल।
कालिदास ने बसंत के साथ ही गरमी की आहट का संकेत समझा। यूं भी भयंकर शीत के बाद मधुमास का आगमन चित्त को ऊष्मा देता है। हिंदी कवि निराला ने भी जूही की कली में बसंंत को कोमल और मन को हरषाने वाला बताया है।
सखि बसंत आया,
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव लय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरु पतिका,
मधुप वृन्द बन्दी,
पिक स्वर नभ सरसाया।
यह सच है कि इस साल बसंत पंचमी ४ फरवरी को पड़ गई। यह हर साल बदला करती है क्योंकि अपने यहां परंपरा से जिस विक्रमी कलेंडर से तिथियां मान्य हैं वह चंद्रमा की गति से चलता है। चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा २७.३ दिनों में पर पृथ्वी की आकृति वलयाकार होने के कारण कभी वह इसे २९.५ दिन में पूरी कर पाता है। इसलिए चंद्रमास से हर महीना कुछ न कुछ दिन घटता बढ़ता रहता है और इसे पूरा करने के लिए हर दो साल के अंतराल के बाद अधिमास मना कर ऋतुओं को यथावत कर लिया जाता है। दूसरी तरफ सूर्य गणना से बना गे्रगेरियन या ईस्वी कलेंडर झंझटी भले कम दिखता हो लेकिन उसकी गणना में भूमंडलवाद ज्यादा है सटीकता कम। खगोल शास्त्र के विद्वानों का कहना है कि  ईस्वी कलेंडर में गणना सही नहीं है क्योंकि  पृथ्वी ३६५ दिन ५ घंटे ४९ मिनट और १२ सेकेंड में सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है। सूर्य की परिक्रमा की इस अवधि को एक वर्ष बताया गया है। अब ये ५.४९.१२ घंटे तो जोड़कर हर चौथे साल फरवरी २९ दिनों की कर दी जाती है। लेकिन सेकेंंड की गणना इस कलेंडर में छोड़ दी गई है। पर एक न एक  दिन तो यह गणना उलट-पलट जाएगी। इसकी काट अभी तक नहीं तलाशी गई है। यही तो भूमंडलीकरण है कि जब संकट आएगा तब ही उसका समाधान खोज लिया जाएगा इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो।
चंद्रमास की तिथियों से बंधे होने के कारण ही इस साल बसंत पंचमी जनवरी की २० तारीख को पड़ गई। लेकिन विक्रमी कलेंडर में अधिमास की मान्यता मिली होने के कारण इस कलेंडर के आधार पर मनाए जाने वाले त्योहार ऋतुओं के आधार पर आते हैं। मसलन दीपावली सरदी की शुरुआत में ही आएगी और होली गरमी की आहट के साथ। भले वे त्योहार अंग्रेजी कलेंडर के हिसाब से १०-१५-२० दिनों के हेरफेर से पड़ें। चूंकि भारत ऊष्ण कटिबंधीय देश है इसलिए यहां के प्रचलित कलेंंडरों में अधिमास की परंपरा न होती तो बड़ा मुश्किल हो जाता। कैसा अजीब लगता जब दीपावली बरसात में और होली शिशिर में पड़ रही होती।
एक बहुरंगी और किसी नियम के बंधनों से न जुड़े होने का फायदा भारतीय समाज को मिला हुआ है। यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को बराबर की हैसियत प्राप्त है इसलिए काम को भी यहां वही नैतिक मान्यता है जो धर्म को है। लेकिन १९वीं शताब्दी के रेनेसाँ से शुरू हुए नैतिकतावादियों ने त्योहारों की परंपरा को कुछ अलग किस्म का बना दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि त्योहारों में उल्लास और मादकता कम उनमें कर्मकांड ज्यादा जुड़ गया।
बसंत पंचमी को सर्दी का कम न हो पाने से अब यह डर तो सताने ही लगा है कि क्या कोपेनहेगेन का भूत अब भारतीय त्योहारों में भी घुस गया है और हम वाकई ग्लोबल चिल्लड के शिकार हो गए हैं जो बसंत जैसा त्योहार भी भयानक शीतलहर में गुजरा। पंजाब से लेकर बांग्लादेश तक यह त्योहार अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है। कहीं सरस्वती पूजा तो कहीं सरसों के बिरवे की पूजा लेकिन यह सच है कि सभी जगह इस त्योहार में मस्ती का आलम मौजूद रहता है।

कोहरे का कहर

सावधान! आगे घना कोहरा है
शंभूनाथ शुक्ल
कोहरे की चादर ने पूरे उत्तर भारत को घेर रखा है। कश्मीर घाटी से लेकर उत्तरी व पूर्वी प्रदेशों के सुदूर इलाकों तक कोहरे की सफेद चादर फैली है। दृश्यता लगभग शून्य है। ट्रेनें, हवाई जहाज और सड़क परिवहन अस्त-व्यस्त है। लेकिन देखिए कि प्रकृति की यह निर्ममता भी जीवन की गति को जरा भी रोक नहीं पाती है। अलस्सुबह टहलने निकले बुजुर्गों से लेकर स्कूल जाते बच्चों और नौकरी पर निकले लोगों की रेलमपेल सड़कों पर वैसी ही व्यस्तता बनाए रखती है जैसी कि आम दिनों में होती है। घने कोहरे में सड़क पर गाड़ी चलाते हुए लगता है कि काश! हमारी आँखें कोहरे की चादर के पार देख सकतीं। हमें नहीं पता कहां कोई डंफर यमदूत बनकर हमें लील जाए अथवा कोई ट्रैक्टर अपनी ट्राली समेत हमारी गाड़ी के ऊपर आ गिरे। सड़क सरकार ने बनवा दी है पर सड़क पर चलने वालों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
हमारे एक सहकर्मी हैं जो अरसे तक नार्वे में रहे हैं। जिन्हें योरोप की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान होगा उन्हें यह ज्ञात होगा कि नार्वे उत्तरी ध्रुव के पास का ऐसा भूभाग है जहां साल में छह महीने सूरज नहीं डूबता और बाकी में निकलता नहीं है। इसके बावजूद इस छोटे से देश के वासियों ने अपनी मेहनत, लगन और जिजीविषा के बूते प्रकृति की इस निर्ममता के खिलाफ एक ऐसा तंत्र विकसित कर लिया है कि नार्वे उन विकसित मुल्कों में से है जो दुनिया भर को अपनी जाने कितनी चीजें निर्यात करता है और बदले में खाद्य सामग्री खरीदता है। हमारे वो सहकर्मी बताते हैं कि नार्वे में सोशल सिक्योरिटी इतनी ज्यादा है कि कुछ वर्षों वहां काम करने की एवज मेें उन्हें ६२ साल की उम्र के बाद नार्वेजियन मुद्रा में इतनी ज्यादा पेंशन मिलेगी जिसकी कीमत यहां कोई १०५००/- महीना होती है। अब इसके उलट जरा अपने यहां की बानगी देखिए। नए साल के पहले ही दिन हावड़ा से दिल्ली आने वाली सारी ट्रेनें दस से बीस घंटे तक की देरी से चल रही थीं। आगरा से ग्रेटर नोएडा तक बने यमुना एक्सप्रेस वे पर सौ किमी लंबा जाम लगा था। मालूम हो कि इस मार्ग पर १६५ किमी की दूरी तय करने के लिए ३२० रुपये टोल टैक्स देना पड़ता है। लेकिन सुविधा के नाम पर सिफर।
हर साल कोहरे में ट्रेनें टकराती हैं। मंहगे टोल वाले राजमार्गों पर कारें, बसें, ट्रक तो भिड़ते ही रहते हैं। सैकड़ों लोग हर साल इन दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते हैं। हवाई सेवाओं का तो बुरा हाल है। कभी बारिश के चलते फ्लाइट रद्द होती है तो कभी कोहरे के कारण और अगर मौसम एकदम साफ रहा तो भी रन वे पर कंजेशन के चलते आसमान में ही जहाज चक्कर लगाया करते हैं। नतीजा यह होता है कि मुंबई से दिल्ली का सफर दो घंटे के बजाय तीन से चार घंटों के बीच पूरा हो पाता है। लेकिन सरकार को जनता की इन तकलीफों से कोई वास्ता नहीं होता। प्राकृतिक आपदा बताकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। क्या कोहरा, बारिश या सूखे को सिर्फ इसलिए अनदेखा किया जाए क्योंकि ये प्राकृतिक आपदाएं हैं। क्या सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती कि प्रति वर्ष नियम से आने वाली इन आपदाओं से लडऩे के लिए कोई सटीक वैज्ञानिक पहल की जाए। हाल में तिरुअनंतपुरम में हुई साइंस कांग्रेस में अंतरिक्ष में विजय यात्रा की स्तुति तो की गई लेकिन इस पर रत्ती भर विचार नहीं हुआ कि हमारे देश की इन प्राकृतिक विपदाओं से कैसे निपटा जाए।
एक छोटा सा मुल्क नार्वे साइंस में भी हमसे कहीं आगे है। हम अंतरिक्ष तथा दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव की अपनी विजय यात्राओं का कितना भी स्तुतिगान करते रहें लेकिन योरोप का हर देश वहां पहले से झंडा गाड़े है। लेकिन ये मुल्क अपने देश के वासियों को यह भरोसा भी देते हैं कि आपकी सुरक्षा की गारंटी भी हमारे पास है। घने कोहरे में भी वहां के विमान सकुशल लैंडिंग करते हैं और त्वरित सेवाओं के बावजूद उनके रन वे पर इतनी जगह होती है कि विमान समय पर उतर जाएं। हर ट्रैक पर वाहन सुरक्षित गुजरते हैं। योरोप ही नहीं  एशिया में भी चीन, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया और कोरिया तक प्रकृति की विभीषिकाओं से हमारी तुलना में ज्यादा सुगमता और सहजता से लड़ लेते हैं लेकिन हमारे देश में अभी जनता को मूलभूत सुविधाएं तक मुहैया नहीं हैं। चीन और जापान में बुलेट ट्रेन की रफ्तार इतनी है कि दिल्ली से कानपुर तक की दूरी को महज ७५ मिनट में पूरा किया जा सकता है और यहां हालत यह है कि रात ९.२० पर दिल्ली से छूटी प्रयागराज कानपुर के आउटर स्टेशन पनकी से सुबह ८.४० पर खिसकी। यानी ग्यारह घंटों से भी ज्यादा समय में गाड़ी कुल लगभग ४२५ किमी का सफर ही तय कर पाई जबकि प्रयागराज एक्सप्रेस द्रुत गति वाली ट्रेन है और उसमें सफर करने के लिए अतिरिक्त पैसा देना पड़ता है।
यह लज्जा की बात है कि हमारी सरकारें अभी तक देश के लोगों को किसी भी तरह की सुरक्षा की गारंटी नहीं प्रदान कर पाई हैं। यहां तक कि उनके मूलभूत अधिकारों की गारंटी भी। जिस मुल्क में आदमी इसलिए सड़क पर न निकले कि पता नहीं कब कोहरा, आँधी या तूफान उसका रास्ता रोक ले या कब उन मार्गों पर भी उसे विपदाओं का सामना करना पड़ जाए जिन पर से गुजरने के लिए उसे अतिरिक्त कर देना पड़ता है या इन सारे करों के भुगतान के बावजूद भी उसे कोई सामाजिक सुरक्षा न मिले तो कहना ही होगा हम शर्मिंदा हैं।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

औघड़ लेखक हैं खुशवंत सिंह!

औघड़ लेखक हैं खुशवंत सिंह!
शंभूनाथ शुक्ल
खुशवंत सिंह और मेरे में जमीन आसमान का फर्क है। कह सकते हैं कि वे राजा भोज और मैं गंगू तेली। वे जिस रईसी में पैदा हुए और जिस तरह के तथा जैसे नामी गिरामी स्कूलों में पढ़े उनमें तो मैं घुस तक नहीं सकता। वे जहां रहते हैं अक्सर मैं उस सुजान सिंह पार्क को हसरत भरी निगाहों से देख लेता हूं। लेकिन उनकी पत्रकारिता और उनकी बेबाक जीवनशैली का मैं कायल हूं। खुशवंत सिंह कतई कट्टर नहीं हैं। वे एक अकाली सिख हैं पर गायत्री मंत्र पढ़ते हैं, प्रवेश द्वार पर गणपति की प्रतिमा लगा रखी है और कृपालु जी महाराज उनके पसंदीदा साधु थे। वे एक जमाने में इंदिरा गांधी के करीबी रहे पर आपरेशन ब्लू स्टार के बाद से वे इंदिरा जी पर शक करने लगे और उन्हें लगने लगा कि यह महिला कट्टर ब्राह्मणी ही है। वे अटलबिहारी बाजपेयी के उदार राजनीतिक विचारों और खानपान शैली के प्रशंसक रहे हैं और खुल्लमखुल्ला आडवाणी की भी तारीफ कर दी।
उनके बल्ब को मैने पूरी तईं पढ़ा है। और एक बार जब उन्होंने अपने बल्ब में कानपुर की तमाम बुराइयां कीं। तो मुझे बहुत खराब लगा और मैने उस समय के दैनिक जागरण के संपादक कम मालिक श्री नरेंद्र मोहन से अनुरोध किया कि वे खुशवंत सिंह के बल्ब को छापना बंद कर दें क्योंकि यह कितना खराब लगता है कि आप कानपुर के नंबर वन अखबार हो और आपके यहां ऐसा लेख छपे जिसमें कानपुर की  घोर निंदा की गई है। पर मोहन बाबू को अपना व्यवसाय और व्यावसायिक हित प्यारे थे उन्होंने मेरा सुझाव ठुकरा दिया। तो मैने जनसत्ता में एक लेख लिखा कि वे बेचारे क्या जान पाएंगे कानपुर की जिंदादिली। और कानपुर के प्रति जागरण की इस अवहेलना को भी छापा। मैने अपने लेख में खुशवंत सिंह की खूब लानत-मलामत की। यह शायद १९९१ का साल रहा होगा। जनसत्ता की तब तूती बोला करती थी और चाहे हिंदी का लेखक हो अथवा अंग्रेजी का जनसत्ता जरूर पढ़ता था। दुख है कि इसके पहले और जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद यह रुतबा किसी हिंदी अखबार को नहीं मिला। हालांकि आनंदबाजार पत्रिका और समाज व दिनमणि जैसे वर्नाक्यूलर भाषाओं में निकलने वाले अखबार अपने-अपने प्रदेशों के अभिजात्य वर्गों में खूब पसंद किए जाते हैं पर हिंदी को यह सौभाग्य सिर्फ प्रभाष जोशी वाले जनसत्ता के दिनों में ही मिला था।
खुशवंत सिंह जी ने जनसत्ता में छपा मेरा वह लेख पढ़ा और प्रभाष जी को फोन कर  मेरे बारे में पूछताछ की। फिर बोले कि उस लड़के को कह दो कि कभी आकर मिल ले। प्रभाष जी ने मुझसे कहा कि खुशवंत सिंह तुमसे बहुत नाराज हैं। मैने कहा यह तो होना ही था। बोले- जाकर  मिल लो। खैर, एक दिन मैं पहुंच गया उज्बक की तरह उनके आवास पर। परिचय दिया तो बोले- अच्छा लिखते हो। और लिखो तथा अपने शहर को पसंद तो करते हो लेकिन कुछ उसके लिए करो भी सिर्फ लिखने से कुछ नहीं होने वाला। बात सही थी। मेरा लेख बस गुस्से का इजहार भर था। तत्काल लगा कि कुछ भी हो खुशवंत सिंह गजब के इंसान हैं। आज वे अपनी उम्र के ९९ साल पूरे कर सौवें साल में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे औघड़ लेखक के लगातार सक्रिय बने रहने के लिए मेरी शुभकामनाएं। अब उन्हें सौ साल जीने की शुभकामना देना तो उनका अपमान है। उनके बारे में कहा जाना चाहिए कि जिया तू हजार साला!

शनिवार, 11 जनवरी 2014

गंगा दर्शन

जो बहती है वह गंगा माँ है!
गंगा की अविरल धारा को देखकर मेरी भी आँखें ठीक उसी तरह भीग जाती हैं जैसी कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की भीगा करती थीं। पंडित जी अक्सर इलाहाबाद में संगम तट पर जाते और वहां त्रिवेणी की धारा को देखकर सोचा करते कि गंगा ही हमारी सभ्यता और संस्कृति है। अगर गंगा नहीं होती तो ये गंगा जमना का मैदान नहीं होता और हमारे चिंतन प्रक्रिया में वह विविधता नहीं आती और न ही सद्भाव आता जो यहां मौजूद है। सोचिए गंगा ने हमें कितना कुछ दिया है। वह अल्हड़ता, वह मस्ती और फक्कड़ी जिसके चलते हमारी चिंतन प्रक्रिया में असहिष्णुता और उदारता आई जो देश मेें और कहीं नहीं है क्योंकि बाकी सब जगह का मौसम सम है और वहां एकरस जीवन है। गंगा की धारा के साथ बहना और उसके उद्गम स्थल गोमुख से लेकर गंगा सागर तक मैं कई दफे गया हूं। मैं कोई छद्म राष्ट्रवादी नहीं हूं कि गंगा सफाई जैसे कुतर्की अभियान चलाऊँ या विकास की धारा को अवरुद्ध करने की नीयत से गंगा की धारा को अपने तईं स्वच्छ करने का दंभ पालूं। विश्व में गंगा को कोई भी अनंत काल से नहीं बांध पाया है क्योंकि गंगा एकमात्र जीवित देवता हैं। इसलिए उन्हें पवित्र करने का दंभ कुछ छद्म और झूठे राष्ट्रवादी ही पालते हैं। जिस गंगा के प्रवाह पर मुग्ध होकर पंडित जगन्नाथ ने गंगा लहरी और आदि शंकराचार्य ने गंगा स्त्रोत रचा वह गंगा किसी छद्म व भ्रम में नहीं बहती है। वह बहती है क्योंकि बहना उसकी निरंतरता का द्योतक है। मूर्ख हैं जो गंगा के खत्म होने से डरे हुए हैं। गंगा तब ही खत्म होगी जब यह सृष्टि खत्म होगी। वह अपना रास्ता खुद तय करती है, अपने बांधने के अभियान से खुद रुष्ट होती है और प्रलय ढा देती है। इसलिए गंगा को बचाने अथवा उसे साफ करने का अभियान बेमानी है। चलाना है तो सुंदर लाल बहुगुणा की तरह गंगा के रुष्ट नहीं होने का अभियान चलाओ। पर मजा देखिए कि एक तरफ तो वाराणसी में गंगा सफाई अभियान चलाया जाता है दूसरी तरफ टिहरी में उसे अवरुद्ध करने की प्रक्रिया भी वही राष्ट्रवादी करते हैं। मैं स्वयं मगर गंगा के साथ ही बहना चाहता हूं। जब भी मौका मिलता है मैं निकल जाता हूं गंगा के सहारे-सहारे उसके बहाव की उल्टी दिशा में। इस नदी को देखने का एक मजा काशी में है तो एक उत्तरकाशी में। उत्तरकाशी के निकट नैताला में गंगा के बहाव के सहारे मैं भी अपनी जीवनगंगा बहाने का इच्छुक हूं।