बुधवार, 11 सितंबर 2013

बीहड़ में फूलन

साल १९८० जून का आखिरी हफ्ता। हम तीन लोग यानी मैं खुद, सुमनराज और हमारा एक अन्य पत्रकार साथी अनिल शर्मा जालौन से लौट रहे थे। आसमान में बादल छाए थे और हमें जल्दी थी कि हम जितनी जल्दी हो यहां से निकल लें। जालौन जिले में धरती पर बूंद पड़ी नहीं कि एक कदम चलना भारी हो जाता है। वहंा लतरी लगने लगती है इस वजह से मोटर साइकिल के फिसलने का डर बहुत रहता है। दूसरे कदम-कदम पर बागियों यानी डकैतों का डर। फिर एक बुलेट फटफटिया और हम तीन लोग। तीनों ब्राह्मण जो अगर तीन मिल जाएं तो कोई सेफ नहीं। एक तो परस्पर सिर्फ इस बात पर लड़ेंगे कि हम तुमसे श्रेष्ठ हैं दूसरे शायद लोक ने भी यह उक्ति बनाई होगी कि ब्राह्मणों की पारस्परिकता कतई ठीक नहीं। कम्युनिस्ट होने से हम अपनी जाति तो नहीं बदल सकते थे। खैर हम किसी तरह उरई आ गए। वहां से अनिल को छोड़ देना था और हमें ट्रेन पकड़कर कानपुर आ जाना था। साबरमती एक्सप्रेस के आने में अभी करीब चार घंटे बाकी थे अब करें तो क्या करें। एकदम ध्यान आया कि अरे खेमू का होटल तो यहीं है। खेमू यानी खेमचंद सिंधी। कानपुर में गोविंदनगर में उसके मकान पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया था। हमने उसकी लड़ाई लड़ी और उसे न्याय दिलाकर रहे। उसका यहीं एक ढाबा था जो शायद कानपुर रोड पर उरई से बाहर निकलकर था।
उरई शहर भी कितना बड़ा हम पैदल ही चल पड़े और शहर पारकर करीब एक किमी तक कानपुर की दिशा में चलने पर उसका होटल मिल गया। दोनों तरफ करील के जंगल और बुंदेलखंड के बीहड़। एकदम सूनसान इलाका। समझ में नहीं आया कि यहां उसे ग्राहक कहां से मिलते होंगे। पर उसके ढाबे के बाहर ट्रकों की लाइन लगी थी लगा कि उसका होटल इन्हीं ट्रक ड्राइवरों की बदौलत चलता होगा। हमें देखते ही खेमू उठकर बाहर आया और हमें ससम्मान अंदर ले गया। एक खपरैल का सहन था जहां पंखा भी लगा था और उसके पीछे की खिड़की से दूर दूर तक बियाबां दिखता था। वहंा हवा भी चल रही थी और मौसम वाकई सुहाना लग रहा था। वहां एक बान की चारपाई बिछा दी गई और पटरे लगा दिए गए। हमने पहले तो चाय पी फिर कुछ देर तक आराम किया। अभी हम आराम कर ही रहे थे कि खेमू दौड़ता हुआ आया और बत्ती बुझा गया। कुछ देर की खटर-पटर रही जैसे कि कुछ लोग हड़बड़ी में कहीं भाग रहे हों। सारे ट्रक अचानक वहां से चले गए और पूरे ढाबे में हम शायद अकेले यात्री बचे। खेमू कुछ फुसफुसा रहा था- पाहुन आय गए हैं। हम समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह किसे पाहुन कह रहा है।
कुछ ही देर बाद कुछ लोग पैदल और कुछ जावा मोटरसाइकिल पर आ गए। खेमू हमें बता गया कि पाहुन आ गए हैं इनकी व्यवस्था कर दूं फिर आता हूं। वह चला गया तो मैने उसके एक वेटर से पूछा कि कौन आया है? उसने बताया कि विक्रम मल्लाह का गैंग आओ है। आने वालों में कुछेक के पास राइफिलें तथा बाकी के पास दुनाली बंदूकें थीं। एक तेजतर्राक सा दिखने वाला युवक अपनी कमर में पिस्तौल लगाए था। और उसके साथ एक औरत भी थी वह भी बंदूक लिए थी तथा पुलिस के जवानों जैसी वर्दी पहने थी। उनकी कड़क आवाज गूंजी जे कमरे मां कौन है? खेमू ने बताया कि हमारे रिश्तेदार हैं बंबई से आए हैं पाहुन। कुछ देर उन्होंने हमें घूरा फिर दूसरे खपरैल के कमरे में जा बैठे। कुछ बंदूकधारी बाहर पहरे पर बैठ गए और कुछ इधर-उधर पानी से भरी बोतलें लेकर चले गए। थोड़ी देर बाद उधर से बंदूकों के रखे जाने की झनझनाहटें और बोतलें खनकने की आवाजें आने लगीं। खेमू ने उनके लिए मुर्गे कटवाए और पकाए। करीब तीन चार घंटे के बाद वो लोग चले गए। तब खेमू हमारे पास आया और बताने लगा कि बिक्रम और फूलनदेवी हते। एकबारगी तो हमें झुरझुरी दौड़ गई। तब तक फूलन ने बेहमई कांड नहंी किया था और बिक्रम उसका प्रेमी था। इस इलाके के दुर्दांत डकैतों के हम इतने करीब थे कि उनकी हर आवाज हमें सुन रही थी। उनके खिलखिलाने और एक दूसरे से नट जाने की आवाजें। डकैतों के अपने रोने-गाने की आवाजें, उनके गम और खुशी के क्षणों के हम गवाह थे। पर तब अगर हम अपना परिचय दे देते तो हमारे साथ बेचारा खेमू भी मारा जाता। हमें वो सीधे-सीधे पुलिस का मुखबिर समझते। उनके जाने के बाद जो पहला ट्रक उधर आया हम उसपर सवार होकर सीधे उरई आ गए और संयोग से साबरमती हमें मिल गई तथा सुबह तक हम कानपुर आ गए।

1 टिप्पणी:

  1. VERY INTERESTING AND REALISTIC DESCRIPTION OF THE DACOITY AFFECTED AREA OF JALAUN AND KANPUR DEHAT..NOW DACOITS ARE NOT EFFECTIVE IN THIS AREA BUT FEUDAL CHARACTER STILL PERSISTS AND WHITE COLLARED DACOITS HAVE REPLACED THE PHOOLAN AND OTHER SUCH GANGS..AS COLLECTOR OF KANPUR DEHAT,I HAVE TOURED THE AREA EXTENSIVELY AND FEEL THAT LOT NEEDS TO BE DONE FOR DEVELOPMENT OF SIKANDARA AND ADJOINING AREA OF JALAUN.

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