गुरुवार, 2 जुलाई 2015

दंगों का वीभत्स चेहरा!

दंगों का वीभत्स चेहरा!
1990 के दिसंबर का महीना था। मुझे कानपुर एक शादी में जाना था और यूपी में उन दिनों मुलायम सिंह का राज था। अपने वीरबहूटी बयानों व हमलावर तेवरों से उन्होंने राज्य में सांप्रदायिक शक्तियों पर काबू पाने की बजाय उसकी आग में घी जरूर डाल दिया था। गाजियाबाद से लेकर अलीगढ़ और कानपुर तक हिंसा और दंगों की आग फैली हुई थी। तब ही मेरे चचेरे भाई की शादी थी और जाना जरूरी था। जिस दिन का रिजर्वेशन था उसी दिन दोपहर खबर आई थी कि लखनऊ से दिल्ली आ रही गोमती एक्सप्रेस में एक आदमी को अलीगढ़ में काट डाला गया था। मेरा रिजर्वेशन रात दस बजे चलने वाली प्रयागराज एक्सप्रेस में था। उन दिनों मैं दिल्ली की यमुना विहार कालोनी में रहता था। शाम को सात बजे की दूरदर्शन न्यूज में दिखाया गया कि हालात बहुत खराब हैं और यूपी को जाने वाली ट्रेनें सूनी चल रही हैं। खैर राम का नाम लेकर मैं घर से चला और जिस थ्री टायर में मेरा रिजर्वेशन था वह संयोग से एक कूपे में पड़ गया। मैने राहत की सांस ली और लगा कि यह बेहतर रहा कम से कम कूपा अंदर से लॉक तो हो सकता था। पर मुझे ध्यान नहीं रहा कि कूपे में छह बर्थे होती हैं और बाकी की पांच सवारियां कौन होंगी पता नहीं। नई दिल्ली स्टेशन से जब गाड़ी खुली तो लगभग खाली थी लेकिन अचानक कुछ लोग अपनी बर्थ तलाशते हुए कूपे में आ गए। सब के सब हाफिज सईद जैसी दाढ़ी वाले और एक से एक हट्टे-कट्टे व छह फुटा। अब मेरी सांस रुक गई। एक बार तो मन किया कि कूपा छोड़कर बाहर चला जाऊँ। पर दो हिचक थी कि ये लोग अगर भले आदमी हुए तो क्या सोचेंगे और अगर वाकई दंगाई हुए तो बाहर तो 72 में से मात्र पांच ही बर्थ भरी हुई हैं। चूंकि तब प्रयागराज एक्सप्रेस कहीं रुकती नहीं थी और कानपुर तक बचाव का कोई रास्ता नहीं था। उन पांच सवारियों में से एक तो पचास के ऊपर का अधेड़ था और वह लगातार एक माला फिराता जा रहा था तथा कुछ बुदबुदा रहा था। जब देर रात तक टीटी टिकट चेक करने नहीं आया तो उनमें से एक ने कूपे की सिटकनी चढ़ा दी। मेरी बर्थ बीच वाली थी और मैं हर एक की गतिविधि देख रहा था। नींद न मेरी आंखों में थी न बाकी के उन पांचों की आंखों में। रात धीरे-धीरे गाढ़ी होती जा रही थी और ट्रेन सम स्पीड से बगैर कहीं रुके भागी जा रही थी। ट्रेन सुबह चार बजे के आसपास कानपुर पहुंचती थी और मैं यह भी सोच रहा था कि जाड़े में सुबह चार बजे कानपुर मे कोई वाहन मिलेगा भी या नहीं और तब कानपुर में भले-चंगे दिनों में लूट और हत्याएं हो जाया करती थीं। इसी उधेड़बुन में था। तब ही माला फेर रहे बुजुर्गवार ने मुझसे पूछा- बेटा कानपुर कब तक आएगा। मैने घड़ी देखी तीन के ऊपर समय था। मैने कहा- बस आधा-एक घंटे में आ जाएगा। मैने पूछा- कानपुर जाएंगे? बोले- हां बेटा हमें कानपुर जाना है छोटे नवाब का हाता। मैने कहा- बड़े मियाँ सुबह सूरज निकलने पर जाना। इस समय कानपुर के हालात खराब हैं। वे बताने लगे कि उनके चचेरे भाई के बेटी की शादी है और वे पाकिस्तान से आए हैं। अब मुझे उनकी स्थिति पर तरस आया। कहा- बड़े मियाँ बड़े गलत मौके पर पाकिस्तान से निकले। बोले बेटा क्या करता। भतीजी की शादी में तो हिंदुस्तान आना ही पड़ता है। अचानक मुझे लगा कि मैं भी किन लोगों से डर रहा था। वे बेचारे तो खुद वक्त के मारे हैं। अब मेरे अंदर की मानवीयता और मेहमाननवाजी की भावना भी जागी। मैने कहा- देखो मियाँ जी मैं यह कर दूंगा कि आपको कानपुर जीआरपी के हवाले कर दूंगा और जब आपके यहां से कोई लेने आ जाएगा तब ही मैं स्टेशन छोड़ूंगा। क्योंकि जिस छोटे नवाब के हाते में जा रहे हैं वहां रात के वक्त जाना सेफ तो नहीं हैं। अचानक उनके मुँह से मेरे लिए दुआओं का भंडार फूट पड़ा। स्टेशन पर उतर कर पहले मैने उनको सुरक्षित रवाना करवाया फिर अपने गंतव्य तक गया। दंगों का वीभत्स चेहरा कैसा होता है यह मैने उस दिन उन बड़े मियाँ के चेहरे पर देखा था।

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